प्रमोद भार्गव

प्रमोद भार्गव
मध्य-प्रदेश में झाबुआ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव
में जीत तो कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया की हुई है, लेकिन ताकत मुख्यमंत्री
कमलनाथ की बढ़ी है। इसीलिए कमलनाथ ने भाजपा को खुली चुनौती देते हुए कहा भी है कि
‘मैदान में आएं और सरकार को गिराकर दिखाएं।‘ साथ ही कमलनाथ ने यह भी कहा कि ‘मेरी
सरकार पर बुरी नजर डालने की बजाय भाजपा को यह चिंता करने की जरूरत है कि महाराष्ट्र
और हरियाणा में उनकी सरकारें पांच साल
टिकी रहें।‘ कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा के विरुद्ध इतने कठोर शब्दों
का इस्तेमाल शायद पहली बार किया है। यह संदेश केवल भाजपा हल्के तक ही सीमित नहीं
है, बल्कि कांग्रेस के
विरोधियों को भी सबक है, जो अनर्गल बयानबाजी करके
मुख्यमंत्री को यह संदेश देने में लगे हैं, कि सरकार चुनावी वचन-पत्र में किए वादों को 10 माह में भी निभा नहीं पाई
है। याद रहे कमलनाथ पर इस समय अपनी परंपरागत लोकसभा सीट गुना से पराजित
ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे ज्यादा हमले बोल रहे हैं। उन्होंने किसान कर्जमाफी पर
तो सवाल उठाए ही हैं, हाल ही में दूध व
मिठाईयों में मिलावटखोरी करने वाले व्यापारियों को सजा नहीं होने पर भी सवाल खड़े
किए हैं। ये सवाल ऐसे है, जो यह दर्शाते हैं कि
सिंधिया करीब 18 साल सांसद रहे, बावजूद उनमें न तो कानून
की समझ विकसित हो पाई और न ही किसान व बैंकिंग व्यवस्था की भीतरी खामियों को वे
समझ पाए हैं।
दरअसल भाजपा को झाबुआ सीट पर हार का बड़ा झटका लगा है, क्योंकि कांग्रेस इस सीट
पर जीत हासिल करके बहुमत के आंकड़े से एक सीट दूर रहते हुए, 115 के जादुई आंकड़े पर आ टिकी
है। वहीं भाजपा के खाते में एक सीट कम हुई हैं। भाजपा ने यहां पूरी ताकत झोंकी थी।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान समेत अनेक नेताओं ने रोड शो किए और सभाओं में
कमलनाथ की गलतियों को बढ़ा-चढ़ा कर गिनाया, लेकिन मतदाता किसी बहकावे में नहीं आया और कांग्रेस अपनी
परंपरागत सीट अपने पक्ष में करने में सफल हुई। यहां भूरिया 27000 से भी ज्यादा मतों से
विजयी हुए। अंततः भाजपा ने इस हार का ठींकरा सरकारी तंत्र के सिर फोड़कर अपनी लाज
बचाने की कोशिश की। इससे यह आशंका पैदा होती है कि भाजपा सरकार में रहते हुए
चुनावों में सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करने में माहिर रही है।
इस चुनाव में कमलनाथ की साख दांव पर थीं। इसलिए
उन्होंने रणनीतिक फैसले लेते हुए दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य को झाबुआ से दूर
रखा। जबकि खुद चार माह के भीतर पांच बार झाबुआ गए और झाबुआ का विकास छिंदवाड़ा के
माॅडल पर करने का भरोसा मतदाताओं को दिया। दरअसल कमलनाथ जानते थे कि दिग्विजय की
जुबान पर लगाम लगी नहीं रह पाएगी और वे हिंदू विरोधी कोई भी बयान दे देंगे तो
मतदाताओं को राष्ट्रवाद का शिकार होने में देर नहीं लगेगी। ज्योतिरादित्य अपनी हार
से इतने कुंठित हैं कि सरकार के विरोध में कुछ भी ऊल-जुलूल बोलने से चूकते नहीं
हैं। एक तरह से वह अपने पैरों में अपने हाथों से ही कुल्हाड़ी मारने लग गए हैं।
लिहाजा कांग्रेस की इस जीत से कमलनाथ की जो शक्ति बड़ी है, उससे तय है कि कालांतर
में ज्योतिरादित्य का कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष बनना भी मुष्किल है ? कमलनाथ ने इस जीत के बाद
ऐलान किया है कि ‘भाजपा और कुछ कांग्रेसी ऋणमाफी को लेकर किसानों को गुमराह करने
के प्रयास में लगे हैं। हमने कभी भी सभी किसानों की ऋणमाफी का वादा नहीं किया। जिन
किसानों के पास दो लाख रुपए तक का कर्ज है, केवल वही माफ होंगे। पहले चरण में 21 लाख किसानों का कर्ज माफ
हो चुका हैं, शेष की ऋणमाफी की
प्रक्रिया चल रही है। जनता को जो वचन दिया है, उसका जवाब जनता को ही देंगे।‘ इस तीर से कमलनाथ ने भाजपा को
तो निशाना बनाया ही, ज्योतिरादित्य को भी निशाने
पर साधने से नहीं चुके हैं।
भूरिया की जीत के बाद प्रदेश राजनीति के समीकरणों में बदलाव की चर्चाएं होने लगी हैं। स्पष्ट बहुमत के आंकड़े से कांग्रेस अब महज एक सीट की दूरी पर है। विधानसभा में कमलनाथ सरकार को चार निर्दलीय विधायक, एक सपा और दो बसपा विधायकों का बाहर से समर्थन प्राप्त है। निर्दलीय विधायकों में से एक प्रदीप जयसवाल सरकार में खनिज मंत्री हैं। वे कमलनाथ के बेहद करीबी हैं। वहीं दूसरे बुरहानपुर से जीते शेरा कांग्रेस के समर्थक हैं। ये दोनों ही पार्टी से बगावत करके निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते। ऐसे में उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से निर्दलीय एवं सहयोगी दलों के विधायकों का सरकार पर दबाव कम होगा। भाजपा अपनी हार के बाद सरकार गिराने के दावे के मुगालते में नहीं रह पाएगी ? वहीं कमलनाथ और दिग्विजय के मंत्री इस जीत को कमलनाथ की नीतियों का कारगर क्रियान्वयन बता रहे हैं, तो ज्योतिरादित्य के मंत्रियों के मुंह पर ताला जड़ गया है।
इस जीत से भूरिया आदिवासी राजनीति के केंद्र में आ गए हैं। भूरिया को लगातार दो चुनाव में हार मिलने के बाद इस जीत से संजीवनी मिली है। इससे कांग्रेस में जो अवसरवादी आदिवासी राजनीति उभर आई थी, उसे भूरिया किनारे लगा देंगे। साफ है, भूरिया को या तो मंत्रीमण्डल में जगह मिलेगी या फिर प्रदेश अध्यक्षी का सेहरा उनके सिर बांधा जाएगा। जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) ने भी कांग्रेस को झाबुआ में खुला समर्थन देते हुए अपना प्रत्याषी नहीं उतारा। इस वजह से भ्ूरिया की जीत आसान हुई। इस हेतु कांग्रेस के आदिवासी विधायक हीरालाल अलावा की भूमिका अहम् रही है। हालांकि आदिवासी नेताओं में इस समय गृह मंत्री बाला बच्चन, वन मंत्री उमंग सिंघार, आदिम जाति कल्याण मंत्री ओमकार सिंह मरकाम और बिसाहूलाल सिंह की तूती बोलती रही है। अध्यक्षी के लिए इनके नाम भी उछलते रहे हैं। सिंधिया के विरोध में कमलनाथ ने खुद बाला बच्चन का नाम पेश किया था। किंतु अब लगता है भूरिया ताकतवर आदिवासी नेता के रूप में एक बार फिर पहचान बनाएंगे। दरअसल मध्यप्रदेश विधानसभा में 47 आदिवासी विधायकों में से कांग्रेस के 31 विधायक हैं। भूरिया पांचवी बार विधायक की शपथ लेंगे। वे दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को लेकर पार्टी के अंदर जो घमासान मचा है, उस दौड़ में अब भूरिया सबसे आगे है। सज्जन सिंह वर्मा ने भूरिया का नाम उछालकर सिंधिया की राह में कांटे बिछाना शुरू कर दिए हैं। वर्मा का कहना है कि कांग्रेस के 31 आदिवासी विधायक हैं, इसलिए वरिश्ठ कांग्रेस आदिवासी नेता भूरिया को अध्यक्ष बनाया जाना कांग्रेस के लिए लाभदायी होगा। भूरिया के पक्ष में यह पैरवी सुनियोजित बताई जा रही है। एन वक्त दिग्विजय सिंह और उनके समर्थक भी भूरिया के पक्ष में खड़े दिखाई देंगे। इस कवायद के साथ निगम मंडलों में नियुक्तियों की कवायद भी तेज हो गई हैं। अंदरूनी विवाद के चलते अब तक कमलनाथ केवल चार ही राजनीतिक नियुक्तियां कर पाए हैं। ये नियुक्तियां निजी विवि नियामक आयोग के अध्यक्ष स्वराज पुरी, शुल्क नियामक आयोग के अध्यक्ष कमलाकर सिंह, माखनलाल पत्रकारिता विवि के कुलपति दीपक तिवारी और अपेक्स बैंक के प्रशासक अशोक सिंह के रूप में हुई हैं। इनमें से कोई भी सिंधिया समर्थक नहीं है। दरअसल सिंधिया स्वयं अध्यक्ष पद की दावेदारी के रूप में पेश आ जाने के कारण अपने नुमाइंदों की वकालात ही नहीं कर पर रहे हैं। यह उनकी बड़ी भूल राजनीतिक नादानी मानी जा रही है।