गरीबों के लिए वरदान बना ‘मुख्‍यमंत्री दाल-भात योजना’

अमरेन्द सुमन 

हाल ही में केंद्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार बिल संसद में प्रस्तुत किया। इसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 75 प्रतिशत जबकि शहरी क्षेत्रों के 50 प्रतिशत लोगों को इसके दायरे में लाया जाएगा। बिल का मुख्य उद्देश्‍य ऐसे लोगों को भोजन का कानूनी अधिकार देना है जिन्हें दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं हो पाता है। विशेष बात यह है कि खाद्य सुरक्षा बिल में पहली बार अनाज देने के लिए गरीबी रेखा को मापदंड नहीं बनाया गया है। समाज में हाशिए पर खड़े लोगों के हित में लिया गया सरकार का यह फैसला स्वागतयोग्य है। भले ही केंद्र सरकार इस उपलब्धि पर अपनी पीठ थपथपाए परंतु केंद्र से पहले ही झारखंड सरकार इसी उद्देश्‍य को पूरा करती एक योजना को राज्य में लागू कर इसे सफलतापूर्वक चला रही है। सूबे के मुखिया अर्जुन मुण्डा ने 15 अगस्त 2011 को गरीबों के लिये नई पहल के रूप में ”मुख्यमंत्री दाल-भात योजना” की शुरूआत की जो राज्य के गरीबों में भावी जीवन का नया सवेरा देखने को मिल रहा है। योजना के तहत मात्र 5 रुपए में प्रति व्यक्ति 200 ग्राम चावल का भात और उसी अनुपात मे दाल व सब्जी उपलब्ध कराया जा रहा है। यह योजना झारखंड के सभी जिलों के लगभग 100 केन्द्रों पर उपलब्ध है। इसका संचालन स्वंयसेवी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध ऑंकड़ों के अनुसार आरंभ में राजधानी रांची, जमषेदपुर तथा धनबाद में 7, दुमका में 6, बोकारो, गिरिडीह तथा पलामू में 5, हजारीबाग, गुमला देवघर, सरायकेला तथा चाईबासा में 4 और पाकुड़, गोड्डा, साहेबगंज, जामताड़ा, कोडरमा, रामगढ़, लोहरदगा, लातेहार, चतरा, सिमडेगा, गढ़वा तथा खूंटी जिला में 3-3 केन्द्र खोले गए हैं।

झारखंड के दुमका जिले के जामा प्रखण्ड स्थित भैरवपुर गाँव का सुकल हॉसदा पिछले 30 वर्षों से दुमका में भाड़े पर रिक्षा चलाकर अपने परिवार का भरण-पोशण कर रहा है। प्रतिदिन रिक्षा से उसकी आमदनी मात्र सौ डेढ़ सौ रूपए हो पाती है। दिनभर रिक्षा चलाने के बाद उसे रिक्षा मालिक को 40 रुपये बतौर भाड़ा चुकाना पड़ता है। शेष राशियों में 20 से 30 रुपये का खाना वह खुद खा लिया करता था। ऐसे में महंगाई के इस दौर में वह अपने परिवार के खर्चे के लिये जरूरत की राषि भी जमा नहीं कर पा रहा था। परंतु ”मुख्यमंत्री दाल-भात योजना” के आने से अब वह मात्र 5 रुपये में ही पेट भर खाना खाकर प्रति दिन तकरीबन 25 रुपये की बचत करने में कामयाब हो रहा है, जिसका फायदा उसके परिवार के अन्य सदस्यों को प्राप्त हो पा रहा है। इसी तरह दुमका से 7-8 किलोमीटर दूर काठीकुण्ड मार्ग पर स्थित है एक गाँव नकटी। जहां मुख्यत: दलित व संताल समुदाय के लोग निवास करते हैं। गाँव के मर्दों का मुख्य पेषा रिक्षा-ठेला चलाना अथवा मोटिया (दिहाड़ी मजदूर) के रूप में काम करना है जबकि महिलायें खेतों में धान रोपनी या घरों में बर्तन मांझने जैसे छोटे-मोटे रोजगार कर घर की आय को बढ़ाने में सहयोग करती हैं। कठिन मेहनत के बावजूद इनकी आमदनी इतनी नहीं हो पाती थी कि वह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकें। क्योंकि महंगाई के इस दौर में घर का राशन जमा करने में ही इनकी सारी पूंजी लग जाती थी। लेकिन मुख्यमंत्री दाल-भात योजना अब इन लोगों के लिए एक वरदान साबित हो रहा है। सुबह से शाम तक मेहनत-मजदूरी के बीच जहां एक ओर इन्हें खुद को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक भोजन के नाम पर काफी पैसे खर्च हो रहे थे वहीं अब इनके लिए भरपेट भोजन के साथ साथ पैसों की बचत भी हो रही है। दाल, तेल-मसाला से लेकर आलू-प्याज, नमक तक लोगों को उंची कीमतों पर खरीदने की जगह मात्र 5 रू में दाल-भात, सब्जी और चटनी के स्वाद ने इनकी चिंताओं को दूर कर दिया है। वास्तव में आज जब महंगाई ने आम लोगों की कमर तोड़ रखी है ऐसे में यह राज्य समाज के हाषिए पर खड़े लोगों को भरपेट भोजन नसीब करा पा रहा है यह क्या कम आश्‍चर्य की बात नहीं है? राज्य के खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले से संबंधित विभाग द्वारा संचालित इस योजना के तहत तमाम केन्द्रों में प्रति दिन लम्बी कतारें देखी जा रही है।

योजना की सफलता को देखते हुए राज्य सरकार ने 02 अक्टूबर 2011 से इसका विस्तार करते हुए इसे प्रखंड स्तर पर भी लागु करने का फैसला किया है। जिला स्तर पर एक केंद्र में 400 लोगों जबकि प्रखंड स्तर पर 300 लोगों के खाने की व्यवस्था की गई है। हालांकि कुछ जगहों पर स्‍वयंसेवी संस्थाओं ने इस योजना को चलाने में असमर्थता व्यक्त करते हुए इसे बंद करने का आवेदन भी दिया है। दरअसल सरकार ने जब इस योजना की शुरूआत की थी तो इसे भ्रष्‍टाचार मुक्त रखने के लिए इसके संचालन से संबंधित काफी कड़े नियम भी बनाए थे। ऐसे में स्वयंसेवी संस्थाओं को फायदा मिलता नजर नहीं आ रहा था। यही कारण है कि अब राज्य की सरकार ने इस योजना को महिला स्वंयसेवी संस्थाओं को सौंप दिया है। जिससे उन्हें और अधिक आत्मनिर्भर बनाया जा सके। कुरुवा ग्राम श्रमिक संघ के अध्यक्ष रमेश कुमार चौधरी के अनुसार निर्धन, दलित तथा आर्थिक रुप से कमजोर तबकों के लिये झारखंड सरकार द्वारा चलाई जा रही यह योजना राज्य के लिये मील का पत्थर साबित होगा। इससे रोजी-रोटी कमाने के लिए दूसरे राज्यों में हो रहे पलायन को जहां रोका जा सकेगा वहीं पेट की आग बुझाने की खातिर महिलाओं द्वारा मजबूरी में किए जा रहे अनैतिक कार्यों पर भी लगाम लग सकती है।

रिक्षा-ठेला चालकों, दिहाड़ी का कार्य कर रहे मजदूरों, गाँव-देहातों से प्रति-दिन शहर की ओर पहुँचने वाले इंसानों, असंगठित क्षेत्रों से जुड़े लोगों सहित न्यूनतम आय वाले आम नागरिकों के लिये झारखंड सरकार की यह पहल निश्चित रुप से एक सकारात्मक सोंच मानी जाएगी। यह दीगर बात है कि ”मुख्यमंत्री दाल-भात योजना” जैसी इतनी सस्ती योजना देश के अन्य राज्यों में न चल रही हो, किन्तु झारखंड में इस तरह की योजना के क्रियान्वयन से इस प्रदेश की अधिसंख्य गरीब आबादी के लिये सुकुन भरा जीवन जीने का एक महत्वपूर्ण साधन अवश्‍य बन गया है। देश के 28 वें राज्य के रूप में 15 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया झारखंड अपनी स्थापना के 11 वर्ष पूरे कर चुका है। इन 11 वर्षों में उसने धीमी गति से ही सही विकास के कई आयाम तय किये हैं। यह राज्य आज अपने पैरों पर पूर्ण रूप से खड़ा है। लेकिन अब भी उसके सामने कई चुनौतियां है। जिसमें रोजगार के लिए राज्य से होने वाले पलायन को रोकना सबसे अहम है। बहरहाल राज्य सरकार द्वारा गरीबों की पेट की आग को शांत करने के लिए चलाई जा रही इस योजना से किसी चमत्कारिक नहीं तो प्रभावी परिणाम की उम्मीद की जा सकती है। दुष्यंत कुमार का यह शेर कि ”कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों” सरकार की वर्तमान सोंच को काफी बल प्रदान करता है। परंतु ऐसी योजनाओं की कामयाबी के लिए जरुरत है इसके निरंतरता को बनाए रखने की क्योंकि अक्सर यह देखा जाता है कि सरकार की ओर से योजनाओं का शुभारंभ तो पूरे जोर षोर से किया जाता है लेकिन कुछ दिनों अथवा महीनों के बाद सरकारी उदासीनता के कारण ऐसी योजनाएँ स्वत: समाप्त हो जाती हैं और फिर आम आदमी उसी लाचारी का षिकार होकर रह जाता है। (चरखा फीचर्स)

(लेखक झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं साथ ही स्वंतत्र पत्रकार के रूप में विभिन्न विषयों पर लेखन कार्य के माध्यम से नीति निर्धारकों का ध्यान भी आकृष्‍ट करते रहें हैं) 

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