अरविंद जयतिलक
ब्रिस्बेन में दुनिया के विकसित और विकासशील देशों के समूह जी-20 की बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीरता से सुना जाना और उनके महत्वपूर्ण विचारों को एजेंडे में शामिल किया जाना भारत की बड़ी उपलब्धि है। जी 20 के नेता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें वैश्विक नेता के रुप में कबूल लिया है और सच कहें तो उन्हें उभरती हुई अर्थव्यवस्था का नायक भी स्वीकार लिया है। सम्मेलन के दौरान मोदी न केवल भारतीय मीडिया में छाए रहे बल्कि उनका व्यक्तित्व वैश्विक मीडिया का भी आकर्षण का केंद्र बना। उपलब्धियों के लिहाज से ब्रिस्बेन शिखर सम्मेलन बहुत सफल नहीं रहा इसलिए कि उस तरह के आर्थिक निर्णय नहीं लिए गए जिससे कि वैश्विक अर्थव्यवस्था और ढांचागत परियोजनाओं को गति मिले। इस बैठक में निवेश, वित्तीय नियमन और ढांचागत परियोजनाओं के पोषण से जुड़े अन्य मसलों पर गंभीर चर्चा न के बराबर रही। विडंबना यह भी रहा कि क्रीमीया के मसले पर अमेरिका समेत कई देशों द्वारा सवाल उठाए जाने पर रुसी राष्ट्रपति पुतिन सम्मेलन छोड़कर चले गए। लेकिन सम्मेलन के अंत में जो प्रस्ताव पेश किए गए उसमें मोदी द्वारा उठाए गए मुद्दों को शामिल किया जाना रेखांकित करता है कि वैश्विक जगत में भारत का दबदबा बढ़ा है और उसके हीरो नरेंद्र मोदी हैं। मोदी ने कालेधन और करचोरी के मुद्दे को जोर शोर से उठाया और अच्छी बात यह रही कि जी 20 देशों ने संयुक्त बयान में उस पर प्रतिबद्वता जाहिर की। यह भी सहमति बनी कि जी 20 के देश कालेधन पर षिकंजा कसते हुए अंतर्राष्ट्रीयता कर प्रणाली में सुधार की दिशा में ठोस प्रयत्न करेंगे। अगर ऐसा हुआ तो यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित होगा। यह कटु सच्चाई है कि गुमनाम कंपनियों के अवैध वित्तीय प्रवाह, करचोरों के ठिकानों की गोपनीयता और नकारात्मक आर्थिक तरक्की से विकासशील देशों को हर वर्ष एक खरब डॉलर का नुकसान पहुंचता है। यही नहीं बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अपराध भी पनप रहा है। जी 20 देशों ने सकल घरेलू उत्पाद में 2018 तक दो फीसदी तक अतिरिक्त वृद्धि का लक्ष्य भी तय किया है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब जी 20 के देश कालेधन और करचोरी के अवैध प्रवाह को रोकने में सफल होंगे। गौरतलब है कि जी-20 औद्योगिक एवं उभरती अर्थव्यवस्था वाले विश्व के 19 बड़ी राष्ट्रिय अर्थव्यवस्थाओं और यूरोपिय संघ के वित्त मंत्रियों और केंद्रिय बैंकों के गवर्नरों का समूह है जो वैश्विक आर्थिक स्थिरता से जुड़े प्रमुख मुद्दों पर रचनात्मक बहस को प्रोत्साहित करता है। इसका गठन 1997-99 के आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में हुआ। वैश्विक वित्तीय स्थिरता को मजबूत करने के लिए सितंबर 1999 में वाशिंगटन में संपन्न जी-8 के वित्तमंत्रियों के सम्मेलन में किया गया। जर्मनी और कनाडा के वित्तमंत्रियों द्वारा आयोजित इसकी प्रथम बैठक बर्लिन में दिसंबर 1999 को संपन्न हुई। इसके गठन का प्रमुख उद्देश्य महत्वपूर्ण देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता लाना है। इस संगठन में कुछ प्रमुख संस्थाएं भी शामिल हैं, जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, इंटरनेशनल मानेटरी एंड फाइनेंसियल कमेटी और डवलपमेंट कमेटी आॅन आइएसएफ आदि-इत्यादि। जी-20 का कोई स्थायी सचिवालय और अपने कर्मचारी नहीं हैं। इसकी अध्यक्षता वार्षिक आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय समूहों से निर्धारित की जाती है। यह विश्व व्यापार के 80 फीसद हिस्से एवं वैश्विक सकल राष्ट्रिय उत्पाद के 90 फीसद हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। दुनिया की दो-तिहाई आबादी यही रहती है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि 2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद जी-20 की बैठक को और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए इसे शिखर बैठक का रुप दिया गया। जी-20 देशों द्वारा स्वीकारा जा चुका है कि विश्व के सभी देश उत्पादकता और रोजगार बढ़ाने की चुनौतियों से जुझ रहे हैं और इससे निपटने के लिए अर्थव्यव्यवस्था में सुधार किया जाना जरुरी है। समय-समय पर सम्मेलनों में ढे़रों आर्थिक नीतिगत निर्णय लिए जाते रहे हैं। जी 20 का मानना है कि वर्तमान आर्थिक मंदी से बाहर निकलने और विश्व में रोजगारोन्मुख माहौल निर्मित करने के लिए सरकारी खर्च और वित्तीय अनुशासन के मध्य संतुलन स्थापित किया जाना जरुरी है। लेकिन सच्चाई यह है कि जी-20 अधिकांश सदस्य देश इस नीति पर अमल नहीं कर रहे हैं। सच्चाई यह भी है कि इंट्रीगेषन बैंकिंग के अभाव में प्रत्येक देश अनुमान आधारित मौद्रिक नीति तय करते हैं जिससे आर्थिक हालात डावांडोल होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष एक अरसे से कोटा अधिकार बढ़ाने एवं संगठन में संस्थागत सुधार करने की वकालत कर रहा है लेकिन इस दिशा में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका है। भारत के जोर दिए जाने के बाद ही अवसंरचना के क्षेत्र में निवेश को शामिल किया गया और विकासशील देशों को इसके लिए चुना गया। लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम अभी देखने को नहीं मिले। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि फिर जी-20 देश टिकाऊ और उचित आर्थिक नीतियों को जामा पहनाने में कैसे कामयाब होंगे? उम्मीद की जा रही थी कि ब्रिस्बेन सम्मेलन में विकास व रोजगार के लिए एकीकृत वैश्विक आर्थिक नीतियों पर मुहर लगेगी। वित्तीय और श्रम बाजार पर विकसित देश सकारात्मक दृष्टिकोण दिखाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह अलग बात है कि भारत को लेकर विकसित देशों के रवैए में बदलाव आया है लेकिन अभी भी विकासशील देशों को लेकर विकसित देशों की नीयत बहुत अच्छी नहीं है। विकासशील देश एक अरसे से दबाव बना रहे हैं कि विकसित देश अपनी आर्थिक नीतियों को बनाते वक्त उनके हितों का भी ध्यान रखें। लेकिन स्वयं स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीतियों का मोह त्यागने को तैयार नहीं। अब उन्हें समझना होगा कि जी-20 के देशों की आर्थिक हालात तभी सुधरेंगे जब वे सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएंगे। उन्हें यह भी समझना होगा कि उदारीकरण के इस दौर में सभी देशों की आर्थिक हालात और समस्याएं भले ही अलग-अलग हों किंतु अर्थव्यवस्थाएं आपस में जुड़ी हुई हैं। वे एकदूसरे को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के तौर पर गत वर्ष अमेरिका की आर्थिक नीतियों में बदलाव के कारण भारतीय रुपया गोता लगाने लगा और अमेरिकी फंड द्वारा भारत समेत तमाम विकाशील देशों से डॉलर खीचने के बाद विकासशील देशों की सूरत बिगड़ गयी। चूंकि जी-20 औद्योगिक और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का एक विश्वसनीय समूह है इस लिहाज से उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसी नीतियों को गढ़े ताकि कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश भी आर्थिक मंदी की रसातल से बाहर निकल सके। जी-20 की सफलता इस बात में निहित है कि वह कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों में विकास और रोजगार की गति बढ़ाने की नीति पर अमल करे। मांग में वृद्धि और असमानता को कम करने के लिए श्रम बाजार को संजीवनी दे। लेकिन यह तभी संभव होगा जब विकसित देश वैश्विक आर्थिक नीतियां बनाने के लिए अपनी रजामंदी देंगे। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तरह से विकसित देशों को संकेत दे दिया है कि विकसित देशों की गलत आर्थिक नीतियों के कारण विकासशील देशों की मुश्किलें बढ़ रही है। उन्होंने अपने तर्क से विकसित देशों को यह कबूलवाने में समर्थ भी रहे कि वह अपनी आर्थिक नीतियां बनाते समय वैश्विक अर्थव्यवस्था का ख्याल रखें। अगर विकसित देश इस राह पर चलते हैं तो निश्चय ही यह जी-20 के लिए बड़ी उपलब्धि होगी। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर चढ़नी शुरू हो गयी है और देश में एक सशक्त नेतृत्व उभरा है ऐसे में संभव है कि विकसित देशों के नजरिए में बदलाव आए। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का अनुमान है कि अगर भारत की मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर शानदार प्रदर्शन की तो भारत इस साल 2000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा और देश का सकल घरेलू उत्पाद का आकार पांच साल बाद यानी 2019 में 3000 अरब डॉलर का हो जाएगा। अगर ऐसा संभव हुआ तो फिर भारत 2019 तक दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होगा। मौजूदा समय में भारत दुनिया की 10 वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। देखना दिलचस्प होगा कि इस बदलते राजनीतिक-आर्थिक माहौल में जी-20 सम्मेलन मुद्रा बाजार पर आए संकट को दूर करने, रोजगार बढ़ाने और वैश्विक विकास को गति देने में कितना समर्थ होता है। लेकिन एक बात पूरी तरह चरितार्थ हो गयी है कि जी 20 में भारत की हनक बढ़ी है और मोदी वैश्विक नायक के रुप में उभरे हैं।