जीवात्मा के अस्तित्व व इसके पूर्व, मध्य व पर जन्मों पर विचार

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य जीवन क्या है? इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर वैदिक साहित्य में ही मिलता है। इतर साहित्य में इस विषय पर पर्याप्त व निर्भ्रान्त जानकारी उपलब्ध नहीं होती। वैदिक विद्या के अनुसार संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति की सत्ता है जो अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक व उपासनीय है तो जीवात्मा एक चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकृति रहित, अभौतिक, संवेदनशील गुणवाली, अजर, अमर, अछेद्य, अभेद्य, आग में जलकर नष्ट न होने वाली तथा वायु से न सूखने वाली सत्ता है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, आंखों को खोलना व बन्द करना आदि इसके लिंग वा लक्षण हैं। यह जीवात्मा जन्म व मरण धर्मा है। जन्म व मरण शुभ व अशुभ कर्मों को स्वतन्त्रतापूर्वक करने के लिए ईश्वर देता है। मनुष्य जन्म में इसे अपने विवेक व ज्ञान से शुभ व अशुभ कर्मों को करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। मनुष्य जीवन में किए गए कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल परमात्मा अपने कर्म विधान के अनुसार संसार में विद्यमान असंख्य जीवात्माओं को जन्म जन्मान्तर व अनेकानेक योनियों में भेजकर देता है। शरीर में आत्मा की उपस्थिति ही मनुष्य व अन्य प्राणियों की जीवित अवस्था कहलाती है। जीवात्मा का प्रवेश माता के गर्भ में जन्म से पूर्व ही हो जाता है और जन्म से मृत्यु तक जीवात्मा शरीर के भीतर रहती है। मृत्यु जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर हुई कही जाती है। मृत्यु के बाद शरीर में जीवात्मा न रहने से शरीर निष्क्रिय हो जाता है। इसके लिए वेदों में विधान भी है और सभी बुद्धिमान मृतक शरीर की अन्त्येष्टि वा दाह संस्कार को ही उचित मानते हैं जिससे पंच भौतिक तत्वों से बना शरीर उन्हीं में विभक्त होकर विलीन हो जाता है।

 

ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में जन्म का उल्लेख कर लिखा है कि ‘जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार का मानता हूं।’ वह आगे लिखते हैं कि ‘‘शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।” स्वामी जी ने जन्म व मृत्यु के बारे में जो परिभाषा की है वह वेद और समस्त ऋष्योक्त साहित्य का सार है। उन्होंने इन पंक्तियों में कहा है कि जीवात्मा के शरीर धारण कर प्रकट होने को जन्म कहते हैं। जन्म भी पूर्व जन्म, वर्तमान जन्म व पुनर्जन्म भेद से तीन प्रकार का होता है। इसे उन्होंने पूर्व, मध्य व पर जन्म कह कर बताया है। उन्होंने आगे लिखा है कि आत्मा व शरीर के संयोग का नाम जन्म व इनके वियोग का नाम मृत्यु है। यही संसार की वास्तविक स्थिति है। संसार में इसके अनुकूल व अनुरूप जो विचार व मान्यतायें हैं वह सत्य और जो इसके विपरीत हैं वह असत्य व भ्रामक हैं। मनुष्य जन्म इसी कारण होता है कि जीवात्मा का अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर अस्तित्व है। यदि जीवात्मा अनादि व अमर न होते तो फिर संसार में मनुष्य व अन्य प्राणियों के जन्म भी न होते। ऐसी स्थिति में ईश्वर जिसने मनुष्यों व अन्य प्राणियों को उनके कर्म फल भोग के लिए यह सृष्टि बनाई है वह इस सृष्टि को भी न बनाता क्योंकि तब इस सृष्टि को बनाने का कोई कारण न होता। वेदों में तो आत्मा के अस्तित्व को माना ही गया है, इसके साथ वाममार्ग को छोड़कर सभी मतों में जीवात्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। ईश्वर के अस्तित्व को भी सभी मत व बुद्धिमान व्यक्ति मानते हैं। अतः अनादि व अमर आत्मा के इस जन्म व जीवन को देख कर इसके पूर्व जन्मों व पर जन्मों अर्थात् पुनजन्मों का भी अनुमान स्पष्टतः होता है। जब आत्मा है तो उसका जन्म होना और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होना तर्क व युक्ति से सिद्ध है।

 

अब इस रहस्य को जान लेने के बाद कि हमारी जीवात्मा अनादि व अमर है, इसका कभी नाश नहीं होता, यह हर काल में विद्यमान रहती है, आत्मा का जन्म नहीं होता अपितु जन्म शरीर का होता है व मृत्यु भी शरीर की ही होती है, तो हमें जीवात्मा व जीवन के उद्देश्य व अन्तिम परम लक्ष्य को भी जानने का प्रयत्न करना चाहिये। यजुर्वेद में कहा है कि ‘अविद्या मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतश्नुते।’ अर्थात् कर्मोपासना से मनुष्य वा जीवात्मा द्वारा मृत्यु को पार करता है और विद्या से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कर्मोपासना का तात्पर्य है कि वेद विहित शुभ कर्मों को करने से मनुष्य मृत्यु को पार कर जाता है अर्थात् वह जन्म व मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। विद्या अर्थात् अध्यात्म विद्या आदि अथवा परा व अपरा विद्या के ज्ञान से उसको मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

जीवात्मा के बार बार जन्म व मृत्यु का उद्देश्य धर्म पालन व शुभ कर्म करने के लिए परमात्मा की ओर से उसे अवसर दिया जाना है। जो स्वामी दयानन्द व आर्य महापुरुषों की तरह इसका लाभ उठाते हैं वह उन्नति करते हुए मोक्ष तक पहुंच जाते हैं व उसे प्राप्त कर लेते हैं और जो धर्म अर्थात् श्रेष्ठ शुभ कर्मों को नहीं करते वह बार बार जन्म मरण के चक्र में बंधे रहते हैं। कभी मनुष्य तो कभी पशु-पक्षी व अन्य निम्न योनियों में कर्मानुसार आते जाते रहते हैं। यह भी जान लें कि धर्म वही है जो वेद आदि शास्त्रों में वर्णित है। वेद विहित व वेदानुकूल कर्म ही धर्म व शुभ होते हैं और इसके विपरीत अशुभ, अधर्म व पाप। जब तक वेदों का प्रकाश व प्रचार था सारा विश्व सुखों से पूरित था। वेदों का प्रकाश न रहने के कारण ही संसार में अविद्याजन्य मत-मतान्तरों की उत्पत्ति हुई है। पूर्ण सत्य केवल वेद मत है और अन्य सत्य व असत्य मान्यताओं का संग्रह व मिश्रण हैं। उन मतों में भी जितना सत्य है वह वेदों से ही पहुंचा है। यह बात ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में विश्लेषण कर प्रस्तुत की है। आज ऋषि दयानन्द की कृपा से हमारे पास सत्यार्थ व कर्तव्यों को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाष्य, पंचमहायज्ञविधि, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिनसे कर्तव्यों का निर्धारण कर जीवन उन्नति, मोक्ष के साधन व उनके करने की विधि का ज्ञान प्राप्त होता है। यही कारण है कि आज लाखों लोग स्वामी दयानन्द जी के अनुयायी है और उनके द्वारा बताये गये वेद, धर्म, सत्य व मोक्ष पथ का अपने ज्ञान व विवेक से परीक्षा कर अनुसरण करते हैं।

 

ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन व मोक्ष का भी युक्तिसंगत वर्णन किया है जो उनसे पूर्व के संसार के अन्य किसी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता। आत्मा व परमात्मा तथा मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए जिज्ञासु पाठको को सप्तम् से नवम समुल्लास का भी अध्ययन करना चाहिये। ऋषि दयानन्द जीवन, श्रद्धानन्द जीवन चरित, पं. गुरुदत्त जीवन चरित, स्वामी सर्वदानन्द जीवन चरित आदि का भी अध्ययन करना चाहिये और उनके जीवन से सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिये। हमने इस लेख में जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप व उसके उद्देश्य आदि पर संक्षेप में प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे वा पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।

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  1. आत्मा ही परमात्मा है, परमात्मा ही आत्मा है, जो सर्व विध्यमान है, अजर अमर है, अनाशवान पर स्वेक्षाधारी है । आज के विग्यान में इसे ‘इनर्जी’ (शक्ति, बल) कहा जाता है, जो कितनी ही अवस्थाओं में होती है । इनर्जी को नष्ट या उत्पन्न नही किया जा सकता है, किंतु एक दूसरे में परिबर्तित किया जा सकता है । परमात्मा यानी ईश्वर एक शक्ति है । इस प्रकार, आत्मा एक शक्ति यानी इनर्जी है, जिसके शरीर के अंदर होने से शरीर क्रियांवित होता है, निकल जाने पर शरीर निश्क्रिय हो जाता है, यानी कि म्रत्यु हो जाती है । शरीर से निकलने पर आत्मा, सर्व विध्यवान आत्मा में विलीन हो जाती है, जो अवसर पा दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर जाती है, जिसे पुनर्जन्म कहते है । यही क्रिया समस्त प्राणीमात्र में व्यवस्थित है और इस तरह विश्व बिध्यवान व चलायमान है ।

    आज के मनुष्य ने अन्य कई भौतिक शक्तियों का विग्यान द्वारा ग्यान प्राप्त कर लिया है, इस आत्मा शक्ति का ग्यान प्राप्त करना (समझना, नापना, विश्लेषण करना) वाकी है, जिसे आत्मा यानी ईश्वर की खोज कहा जा सकता है । इसके लिये परम ग्यान की आवश्कता है, जो मेरी सोच के अनुसार कठिन तो है, असम्भव नही । आओ इस आत्म शक्ति पर गहन विचार करें ।
    हरीबाबू बिंदल, यू एस ए, अक्टूवर 26, 2017

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