नौकरी के लालच में मौत का सबब बना व्यापम

 

प्रमोद भार्गव

व्यापम यानी मध्यप्रदेश का ऐसा व्यावसायिक परीक्षा मंडल जो शिक्षित बेरोजगारों की स्थायी आजीविका का आधार तो नहीं बन पाया,लेकिन दर्जनों मौतों का कारण जरूर बनता चला जा रहा है। इंदौर की जेल में बंद पशु चिकित्सक नरेंद्र तोमर और ग्वालियर के बिरला अस्पताल में उपचार करा रहे आरोपी चिकित्सक राजेंद्र आर्य की मौत के बाद संदिग्ध मौतों का यह आंकड़ा सरकारी जानकारी के मुताबिक २५ हो चुका है,जबकि गैर सरकारी जनकारियां मौतों की गिनती ४३ बता रही हैं। इन ताजा दो मौतों के साथ ही तीसरी रहस्यमयी मौत का खुलासा जिला मुख्यालाय श्योपुर की पुलिस ने किया है। व्यापम घोटाले से जुड़े आरोपी अमित सागर की लाश इसी साल फरवरी में श्योपुर के तालाब में मिली थी। इसका नाम व्यापम के प्रमुख आरोपीयों में से एक इंद्रजीत भूषण ने पुलिस को बताया था। अभियुक्तों,गवाहों और सामाजिक कार्यकताओं की एक-एक कर हो रही ये मौतें महज संयोग नहीं कही जा सकती हंै,क्योंकि इनके मुंह से निकलने वाले बोल प्रभावशा लोगों को बेनकाब कर सकते थे। जाहिर है,इस प्रकरण से संबंधित लोगों को पर्याप्त सुरक्षा के इंतजाम नहीं किए गए तो मौतों का सिलसिला थमने वाला नहीं है ?

व्यापम मध्यप्रदेश में परीक्षा का एक ऐसा माध्यम है जो प्रतिभाओं की प्रतिस्पर्धा परीक्षा लेकर उन्हें डॉक्टर,इंजीनियर और प्रशासक बनने के प्रवेष का र्माग खोलता है। व्यापम अन्य कई प्रकार की तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती की परीक्षाएं भी आयोजित करता है। इसमें गड़बड़ी के संकेत तो २००६ से ही मिलने लगे थे,लेकिन डॉ जगदीश सागर को हिरासत में लेने के बाद ही इस बड़े गोरखधंधे की आधिकारिक पुष्टि हो पाई। जगदीश के कलम बंद बयाल से पता चला कि व्यापम एक ऐसे व्यापक घोटाले में तब्दील हो गया है,जो प्रतिभा का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की बजाय,मोटी धनराशि लेकर अयोग्य और अपात्र परीक्षार्थियों का चयन करने लगा है। इसी दौरान प्रदेश के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और फोरेंसिक विशेषज्ञ प्रशांत पाण्डेय ने ऐसे दस्तावेजी साक्ष्य और कंप्युटर तकनीक में हेराफेरी के तथ्य दिए,जिससे यह घोटाला प्रमाणित होता चला गया। हालांकि इन ताजा तीन मौतों की जानकारी आने के बाद प्रशांत अपने इर्द-गिर्द भी खतरा मंडराते देख रहे हैं,क्योंकि वे इन मौतों को सामान्य नहीं मानते हुए,किसी षड्यंत्र का हिस्सा मान रहे हैं। इसीलिए प्रशांत,उच्च न्यायालय के नेतृत्व में चल रही एसआईटी जांच से संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने सीबीआई से जांच कराने की मांग की है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी बार-बार यही मांग दोहरा रहे हैं। हालांकि दिग्विजय सिंह की इस आशय की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई याचिका खारिज हो चुकी है। न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए कहा था कि मौजूदा जांच सही दिशा में चल रही है।

प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने इन संदिग्ध मौतों को जीवन-दर्शन और मृत्यु की अनिर्वायता से जोड़कर ऐसा हास्यास्पद बयान दिया है,जिसे कतई संवेदनशील नहीं कहा जा सकता है। उनका कहना है कि ‘मृत्यु जीवन की एक स्वाभाविक घटना है और दुनिया में जो आता है,उसे जाना ही होता है।‘यदि जीवन और मृत्यु का एकमात्र यही सनातन सत्य है तो फिर भला अस्पतालों और उपचार व पोषण संबंधी संस्थाओं की जरूरत ही क्या रह जाती है ? दरअसल एक गृहमंत्री जो पुलिस और प्रदेश की गृप्तचर संस्थाओं का मुखिया है,वह एक बड़े घोटाले से जुड़ी इतनी मौतें जो इतने कम समय में हुई हैं,कैसे कह सकते हैं कि इन मौतों पर शक की सुई टिकती ही नहीं है ? इस मामले में अब तक २००० गिरफ्तारियां हो चुकी हैं और कुल मिलाकर ३००० पर एफआईआर दर्ज हैं। आरोपियों में प्रदेश के शिक्षा मंत्री व व्यापम के अध्यक्ष रहे लक्ष्मीकांत शर्मा सहित अनेक राजनेता,नौकरशाह,उद्योगपति और अन्य ताकतवर लोग जेल में हैं। घोटाले की जांच की आंच प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव के गिरेवान तक भी पहुंच चुकी है। प्रथम दृष्टया उन्हें दोषी मानते हुए उन पर प्राथमिकी भी दर्ज की चुकी थी,लेकिन राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे होने के कारण मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने उन्हें राहत बख्श दी। गोयाकि संदेह तो उन पर गहराया ही हुआ है। यही नहीं नौकरी दिलाने के फर्जीवाड़े का दंश उनके ५० वर्षीय बेटे शैलेश यादव को भी भुगतना पड़ा है। उन पर १० अभ्यर्थियों को गलत तरीके से वर्ग तीन के शिक्षाकर्मी बनवा देने का आरोप था। शैलेश पुलिस के शिंकजे में आ पाता इससे पहले ही उसकी २५ मार्च २०१५ को लखनऊ के अपने ही घर में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी।

दरअसल तकनीक में हेराफेरी से जुड़ा यह सरकारी नौकरी दिलाने का एक ऐसा फर्जीवाड़ा है,जिसे संगठित एवं व्यापक रूप से तकनीकि कौशल में दक्ष लोगों ने अंजाम तक पहुंचाया। डॉक्टर और इंजीनियर बनाने के ५ से ५० लाख रूपए तक लिए गए। वहीं लिपिक शिक्षाकर्मी और पुलिस निरीक्षक बनवा देने के २ से १५ लाख रूपए लिए गए। दौलत की यह गटर गंगा निर्बाध बहती रहे,इस हेतु रातोंरात भर्ती के नियम भी बदलकर शिथिल कर दिए गए। हैरानी इस बात पर है कि नियमों में फेरबदल का अधिकार सामान्य प्रशासन विभाग और राज्य मंत्री मंडल की समिति को है। इन दोनों के ही मुखिया मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। किंतु नियम कब और कैसे बदले गए,चौहान इस मसले पर अनभिज्ञता जता रहे हैं। तब क्या ये नियम बाला-बाला फर्जी दस्तावेजों की कूट रचना करके प्रशासनिक अधिकारियों ने बदल डाले ? मुख्यमंत्री इस बिंदू पर जांच का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ? साफ है कि धांधली की प्रकृति और दायरा जितना प्रगट है,उससे कहीं ज्यादा प्रच्छन भी है। जिसे छिपाने और दबाने के प्रयत्न जारी हैं।

जाहिर है,इस मामले में संवैधानिक पद पर आसीन लोगों से लेकर जांच की आंच आला अधिकारी,पक्ष व विपक्ष के नेता व्यापारी और सत्ता के दलालों तक पहुंच रही है। लिहाजा प्रतिष्ठत लोगों को बचाने के लिए षड्यंत्र की व्यूहरचनाएं आमतौर पर देखने में आती रहती हैं। उत्तरप्रदेश का राष्ट्रिय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़ा घोटाला और उससे संबंधित मौतें इसी प्रकृति की थीं। यह घोटाला व्यवस्थाजन्य लिप्सा और खामियों से जुड़ी है,लेकिन इसका दण्ड एक तो वे युवा और उनके अभिभावक भोग रह गए हैं,जो रिश्वत के बूते परीक्षा में चयनित हुए,दूसरे वे भोग रहे हैं,जो अपनी योग्यता के बूते चयन के वास्तविक हकदार थे,किंतु चयनित हो नहीं पाए। इस घोटाले से उठे पर्दे के बाद जो तस्वीर पेश आई है,उसने व्यवस्था की रीढ़ तो तोड़ी ही है,योग्यता के जरूरत पर भी सवाल खड़े किए हैं,क्योंकि अनेक कमतर उम्मीदवार डॉक्टर,इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी बनकर शासन-प्रशासन का अंग बने हुए हैं। अनेक आरोपी तो जमानत मिलने के बाद नौकरी पर बहाल भी हो गए हैं ? जब ये अभ्यर्थी अयोग्य व अपात्र थे तो गलत तरीके से पाई नौकरी पर बहाली क्यों हुई ? तय है, जांच को प्रभावित करने के अंदेशे और गहराएंगे। लिहाजा जांच प्रक्रिया संदेह मुक्त बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि आगे अन्य किसी आरोपी की हत्या नहीं होने पाए ? अन्यथा भय और विश्वास का संकट बना ही रहेगा।

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