न्यायिक नियुक्ति आयोग की गुत्थी

modiपीयूष द्विवेदी
सभी राजनीतिक दलों द्वारा संसद में एकसुर से पारित किए गए ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग-२०१४’ (एनजेएसी) क़ानून को निरस्त कर सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार को बड़ा झटका दिया है। न्यायालय द्वारा इस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए न केवल निरस्त किया गया बल्कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की पुरानी कोलेजियम व्यवस्था को पुनः बहाल भी कर दिया गया। पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ में से सिर्फ एक न्यायाधीश जे चेलमेश्वर ने इसे संवैधानिक माना, बाकी चारों न्यायाधीश इसके विरुद्ध ही रहे। लिहाजा पीठ द्वारा फैसला सुनाते हुए कहा गया कि ‘इस क़ानून में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिस नियुक्ति आयोग की बात कही गयी है, उसमे न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। अब न्यायपालिका से सम्बंधित नियुक्ति में न्यायपलिका का ही प्रतिनिधित्व कम होना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन है।’ इस प्रकार कहते हुए न्यायाधीशों की संविधानिक पीठ द्वारा सरकार के न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से केंद्र सरकार को कितना झटका लगा है, उसे इसीसे समझा जा सकता है कि आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को सिर माथे स्वीकार लेने वाली सरकार इस निर्णय से हैरानी में और आतंरिक रूप से काफी हद तक बौखलाहट में भी है। केन्द्रीय क़ानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा कि यह क़ानून जनता की इच्छा से आया था तो वहीँ पूर्व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसे संसदीय संप्रभुता को झटका बताया। सरकार की तरफ से यह भी स्पष्ट किया गया है कि वो इस सम्बन्ध में मौजूद अन्य विकल्पों पर विचार करेगी। इन विकल्पों में सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी बेंच के पास जाने से लेकर निरस्त क़ानून में संशोधन तक कई रास्ते हैं, जिनपर विचार के लिए सरकार ने फिलहाल सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा कर दी है। मगर सरकार की दिक्कत यह भी है कि जिस मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने कभी संसद में अपने समर्थन से इस क़ानून को पारित करवाया था, अब उसने इसपर सरकार का समर्थन करने से इंकार कर दिया है। लिहाजा इस क़ानून को लेकर आगे बढ़ना अब सरकार के लिए आसान नहीं रहने वाला।
हालांकि अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कोलेजियम को लेकर उठ रहे सवालों का समाधान करने व इसकी कमियों में सुधार करने पर पहली दफे रूचि दिखाई है और सरकार से इस सम्बन्ध में सुझाव मांगते हुए आगामी ३ नवम्बर को पुनः सुनवाई की तारीख निश्चित की है, जिसमे मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था की खामियों को दूर करने सम्बन्धी कुछ निर्णय लिए जा सकते हैं। बावजूद इसके गौर करें तो इस मामले में न्यायपालिका का रवैया कुछ हद तक अड़ियल और अहं से ग्रस्त नज़र आता है। न्यायपालिका से यह सरल-सा प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों न्यायाधीशों की नियुक्ति सिर्फ न्यायाधीश ही करें ? सरकार के कामों में पारदर्शिता लाने के लिए जब-तब अनेक निर्णय देने वाली न्यायपालिका अपने न्यायाधीशों की नियुक्ति सिर्फ न्यायाधीशों की कोलेजियम की कोठरी में बैठकर ही क्यों करना चाहती है। क्या न्यायपालिका में पारदर्शिता नहीं होनी चाहिए ? वो भी तब, जब विगत कुछ वर्षों से जहाँ-तहां न्यायाधीशों पर यौन उत्पीड़न और भ्रष्टाचार आदि के आरोप भी सामने आते रहे हैं। अब रही कोलेजियम व्यवस्था तो उसपर तो खैर लम्बे समय से प्रश्न उठ ही रहे हैं। ऐसे में क्या न्यायपालिका सरकार के राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जिसे कि संसद की दोनों सदनों ने पूर्ण बहुमत से पारित किया था अर्थात पूरे देश का समर्थन इसके साथ था, को स्वीकृति नहीं देनी चाहिए थी। ये हो सकता है कि उसमे कुछ बिंदु असंवैधानिक हों, लेकिन न्यायपालिका कहती तो उनमे बदलाव भी हो सकता था। पर जिस तरह से उसे निरस्त कर दिया गया उससे तो यही लगता है कि जैसे न्यायपालिका मन बनाकर बैठी थी कि ये क़ानून स्वीकृति के लिए सर्वोच्च न्यायालय में आए और इसे निरस्त किया जाय। इसी क्रम में अगर एनजेएसी पर एक नज़र डालें तो इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक छः सदस्यीय आयोग का प्रावधान किया गया था। इसके अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश होते तथा सदस्यों में सर्वोच्च न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश, क़ानून मंत्री एवं दो प्रबुद्ध नागरिक नागरिक शामिल थे। इन दो प्रबुद्ध नागरिकों का चयन प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की एक तीन सदस्यीय समिति करती। स्पष्ट है कि इस न्यायिक नियुक्ति आयोग में न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व की कहीं कोई कमी नहीं है; अध्यक्ष समेत आधे सदस्य न्यायपालिका के ही हैं। अब सवाल यह है कि आखिर सर्वोच्च न्यायालय और कौन-सा प्रतीनिधित्व चाहता था कि उसे इस आयोग में न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व की कमी दिखी ? साथ ही सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना भी समझ से परे है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग में क़ानून मंत्री और नागरिकों को रखना संविधान विरुद्ध है। सर्वोच्च न्यायालय यह भी बता देता कि जब क़ानून मंत्री रहेंगे ही नहीं, नागरिक रहेंगे ही नहीं तो फिर और कौन रहेगा ? समझना बहुत कठिन नहीं है कि न्यायपालिका किसी भी हालत में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर से कोलेजियम व्यवस्था के रूप में अपना एकाधिकार खोना नहीं चाहती और बस इसीलिए संवैधानिक प्रावधानों की एक हद तक मनमुताबिक व्याख्या करके उसने सरकार के न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त कर दिया। मनमुताबिक व्याख्या इसलिए कि पांच न्यायाधीशों की संविधानिक पीठ में से एक न्यायाधीश ने एनजेएसी को संविधान सम्मत भी माना है। लिहाजा इसे पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर अक्सर न्यायाधीशों द्वारा यह कहा जाता रहा है कि सरकार इसके जरिये अपने मनमाफिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करना चाहती है। अब सरकार के नियुक्ति आयोग को देखने पर तो यह बात कहीं से सही नहीं लगती कि सरकार इसके जरिये अपने मनमाफिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर पाती। लेकिन एकबार के लिए अगर मान लें कि न्यायिक नियुक्ति आयोग के जरिये सरकार की मंशा न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करने की है तो वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था के जरिये न्यायपालिका भी तो यही कर रही है।
गौर करें तो ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम जैसी व्यवस्था नहीं है और न ही भारतीय संविधान निर्माताओं ने ही ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण किया था। संविधान के अनुसार तो मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रावधान है। अब इसमें यह कोलेजियम व्यवस्था तो खुद न्यायालय द्वारा कुछ-कुछ अंतराल पर दिए तीन फैसलों जिसे ‘थ्री जजेस केसेस’ भी कहा जाता है, के फलस्वरूप १९९३ में आ गयी। इसका एक अलग ही इतिहास है। अब जो भी हो, पर फिलहाल तो कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभों कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव जैसी स्थिति तो पैदा हो गई है जो कि न केवल चिंताजनक है, वरन विश्व में भारतीय लोकतंत्र को लेकर गलत सन्देश देने वाला भी है। अतः उचित होगा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका यानी सरकार बैठकर इस मामले पर चर्चा कर कोई एक राय कायम करें तथा ऐसा रास्ता निकालें जिससे कि देश की न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी कोई प्रश्नचिन्ह न लगे और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया भी वर्तमान व्यवस्था से इतर पारदर्शी और बेहतर हो सके।

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