न्यायपालिका और लोकतंत्र – राजीव तिवारी

न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका का समन्वित स्वरूप ही लोकतंत्र होता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका एक दूसरे के पूरक भी होते हैं तथा नियंत्रक भी। इसका अर्थ यह हुआ कि इन तीनों में से कोई अंग कमजोर पड़ रहा हो तो शेष दो उसे शक्ति दें और यदि कोई अंग अधिक मजबूत हो रहा हो तो उसके पंख कतर दें। लोकतंत्र की सबसे घातक स्थिति वह होती है जब तीनों अंग एक दूसरे को कमजोर करके स्वयं शक्तिशाली होने की प्रतिस्पर्धा में जुट जाएं। लगता है कि वर्तमान भारत में न्यायपालिका और विधायिका के बीच ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। इस टकराव की पहल तो विधायिका ने ही की है और न्यायपालिका ने लंबे समय तक इसे सहन भी किया लेकिन जबसे न्यायपालिका इस टकराव में कूदी है तबसे उसने भी मुड़ कर समीक्षा नहीं की। परिणाम टकराव के रूप में दिख ही रहे हैं।

इसी माह न्यायपालिका ने दो महत्वपूर्ण विचार दिये, पहला सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी भी मामले में सीबीआई जांच के आदेश देने के अधिकार संबंधी और दूसरा नक्सलवाद का मुख्य कारण राजनैतिक न होकर आर्थिक होने की सलाह संबंधी। इन दोनों की विस्तृत विवेचना आवश्यक है। पहला मामला यह है कि बंगाल सरकार हाई कोर्ट के आदेश के विरुध्द सुप्रीम कोर्ट गई थी कि न्यायालय किसी भी राज्य सरकार की सहमति के बिना किसी मामले में सीबीआई जांच का आदेश नहीं दे सकती। बंगाल सरकार के अनुसार कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है और सीबीआई केंद्र सरकार की जांच एजेंसी है। इस मामले सुप्रीम में कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने विचार किया और कई वर्ष तक विचार करने के बाद निर्णय दिया कि न्यायालय को ऐसा अधिकार है।

न्यायपालिका के कई कार्य हैं। सामान्यतया न्यायपालिका कानून के अनुसार न्याय करती है। यदि न्याय और कानून आपस में विरुध्द हो जाएं तो न्यायपालिका संविधान के अनुसार उक्त कानून की समीक्षा करती है। किन्तु यदि कभी संविधान और न्याय भी आपस में टकरा जाएं तब न्यायपालिका प्राकृतिक न्याय के पक्ष में संविधान की भी समीक्षा कर सकती है। जब इंदिरा गांधी ने तानाशाहीपूर्ण अधिकारों से लैस होकर कहा था कि संसद सर्वोच्च होने से उसे संविधान संशोधन के असीमी अधिकार प्राप्त है तब न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि संसद ऐसा कोई संविधान संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान का मौलिक स्वरूप ही बदल जाएं। यह मौलिक स्वरूप क्या है इसकी आज तक व्याख्या नहीं हुई, किन्तु संविधान का मौलिक स्वरूप है तो अवश्य। मेरे विचार में संविधान का मौलिक स्वरूप यही है कि संविधान स्वयं भी किसी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार अकारण नहीं छीन सकता। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि मनुष्य एक स्वतंत्र इकाई है जिसे प्राकृतिक रूप से जीने का मौलिक अधिकार स्वतः प्राप्त है। यह अधिकार कोई भी संविधान छीन नहीं सकता। भारत में भी यही व्यवस्था है। मनुष्य को मौलिक अधिकार संविधान प्रदत्त भी नहीं है और संविधान उसकी व्याख्या नही कर सकता। वे तो मनुष्य को प्राकृतिक रूप से प्राप्त है जिनकी सुरक्षा की गारंटी मात्र संविधान देता है।

जब संविधान प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा की गारंटी देता है और न्यायपालिका उस संविधान की पहरेदार तीन इकाइयों में से एक है तो न्यायपालिका का यह दायित्व है कि किसी भी मामले में संविधान की रक्षा करे और यदि कोई समस्या खड़ी हो तो संविधान से ऊपर भी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा करे। राज्य और केन्द्र ने आपस में अधिकारों का जो विभाजन किया है वह सरकारों का आपसी विभाजन है। वह विभाजन वहीं तक न्याय संगत है जहाँ तक वह व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा में सक्रिय और सहायक है। यदि वह विभाजन ऐसी सुरक्षा के विरुध्द है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिये क्योकि न्याय विहीन व्यवस्था घातक होती है और व्यवस्था विहीन न्याय असफल। बंगाल सरकार का तर्क न्याय विहीन व्यवस्था के पक्ष में होने से प्रथम दृष्टि में अमान्य था। पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने इतने वर्ष इस मामूली बात में क्यों लगाये।

ठीक इसी समय छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का एक मामला सुप्रीम कोर्ट में रहा। सच्चाई यह है कि सम्पूर्ण भारत में छत्तीसगढ़ अकेला ऐसा प्रदेश है जिसकी सरकार पूरी ईमानदारी से नक्सलवाद का मुकाबला कर रही हैं। अन्यथा अन्य सरकारें तो मुकाबले का नाटक मात्र कर रहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार ने देश भर के मानवाधिकार वादियों को यहाँ आइना दिखा दिया। मेधा पाटकर, संदीप पांडे सहित कई मानवाधिकारी सांढ़ पूरे भारत में छुट्टा घूमते रहे किन्तु छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में उनका नकाब उतर गया। उस सरकार के दंतेवाड़ा गोलीकांड मामले में समीक्षा अवसर पर न्यायालय ने टिप्पणी कर दी कि नक्सलवाद राजनैतिक संघर्ष न होकर आर्थिक संघर्ष है जिसके लिये आर्थिक विकास का मार्ग भी पकड़ने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की सलाहकार इकाई न होकर समीक्षक इकाई है। न्यायपालिका को यह अधिकार नहीं कि वह लोकतंत्र की अन्य दो इकाइयों को सलाह दे कि वे नक्सलवाद से कैसे निपटें। नक्सलवाद की पहचान, कारण और समाधान की नीति बनाना विधायिका का काम है, नीति का कार्यान्वयन कार्यपालिका का और उस नीति से संविधान का उल्लंघन न हो यह समीक्षा करना न्यायपालिका का। जब न्यायपालिका को ही यह अधिकार प्राप्त नहीं तब न्यायालय के न्यायाधीशों की ऐसी टिप्पणी तो भ्रम भी पैदा करती है और हानिकर भी है। किसी न्यायाधीशों की व्यक्तिगत धारणा भी भिन्न हो सकती है और सोच भी, किन्तु न्यायाधीश को ऐसी धारणाएं कुर्सी पर बैठ कर व्यक्त करने का अधिकार नहीं। वहाँ बहस इस बात पर नहीं हो रही थी कि नक्सलवाद क्या है और उसका समाधान क्या है ? चर्चा का मुद्दा मात्र यह था कि क्या छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मारे गये लोग सामान्य नागरिक थे या नक्सलवादी। पता नहीं क्या सोचकर न्यायाधीशों ने ऐसी अनावश्यक और गलत टिप्पणी कर दी।

सच बात यह है कि नक्सलवाद के फैलाव का कारण कही भी विकास का अभाव नहीं है। नक्सलवाद की लड़ाई अनपढ़ और गरीब लोग नहीं लड़ रहे। इस लड़ाई को लड़ने वाले प्रमुख लोग जो पढ़े-लिखे विद्वान लोग हैं यह मानते हैं कि सत्ता परिवर्तन का यही एक उपयुक्त मार्ग है। अविकसित क्षेत्रों से तो संघर्ष का प्रारंभ मात्र है जिसे बढ़ते-बढ़ते विकसित क्षेत्रों तक जाना है। वे तो चाहते हैं कि इस बहाने इस पिछड़े क्षेत्र में बड़ी मात्रा में सरकारी धन आए जिसका बड़ा हिस्सा उनके आंदोलन के काम आए। न्यायाधीश महोदय नक्सलवाद आने के बाद जो बात कह रहे हैं वह बात या तो पहले कहनी चाहिये थी या बाद में, किन्तु ठीक युध्द के मैदान में इस तरह की अनावश्यक सलाह घातक हो सकती है।

मेरी अब भी मान्यता है कि नक्सलवाद का समाधान न ही बंदूक है, न ही विकास। नक्सलवाद का समाधान है स्थानीय स्वायत्तता। सरकार गांवों को अधिकतम स्वायत्तता दें और इसके बाद भी जो न माने उसे चाहे कानून से मारे या बिना कानून के यह सोचना हमारा विषय नहीं। हमारा विषय तो सिर्फ इतना ही है कि सरकार ग्राम सभाओं को मजबूत करें। मुझे खुशी है कि वे छत्तीसगढ़ सरकार ने ग्राम सभा सशक्तीकरण पर गंभीरता से विचार करना शुरू किया है। मुझे दुख है कि माननीय न्यायपालिका का ध्यान इस तीसरे समाधान की ओर नहीं गया।

अंत में मै कहना चाहता हूं कि न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षा में तैतीस प्रतिशत की हिस्सेदार है। वह अपनी गंभीरता को समझे तो लोकतंत्र में सहायक होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,769 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress