नाबालिग अपराधी आए वयस्क की श्रेणी में

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प्रमोद भार्गव

आखिरकार जन दबाव और आक्रोष के चलते बहुचर्चित किशोर न्याय विधेयक 2015 लोकसभा के बाद राज्यसभा से भी बिना किसी गंभीर बहस-मुबाहिसा के juvenileपारित हो गया। एक गंभीर विधेयक को आनन-फानन में पारित हो जाना संतोषजनक स्थिति नहीं है। मई में लोकसभा से पारित होने के बाद इस विधेयक को कई मर्तबा चर्चा के लिए सूचीबद्ध किया गया था,लेकिन संसद में कांग्रेस द्वारा लगातार हंगामा खड़ा करते रहने के कारण विधेयक लंबित बना रहा। अब एकाएक विधेयक के पारित होने से असहमति के स्वर उभर रहे हैं। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा बाल एवं किशोर अधिकार सरंक्षण प्रस्ताव पारित किया गया था। जिसमें बच्चे को वयस्क मानने की उम्र 18 साल रखी गई हैं। इस प्रस्ताव पर 190 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं,जिनमें भारत भी शामिल है। किंतु भारतीय संसद को यह विधेयक इसलिए पारित करना पड़ा,क्योंकि 2014 में नाबालिगों के खिलाफ देशभर में कुल 38,565 मामले दर्ज हुए हैं। इनमें 56 फीसदी मामले ऐसे किशोरों के विरूद्ध हैं,जिनके पालक की मासिक आय 25000 रुपए से नीचे है। 2012 में जब निर्भया कांड की घटना घटी थी,तब नाबालिगों के विरूद्ध 31,973 मामले दर्ज किए गए थे।

जघन्य अपराध में शामिल 16 से 18 वर्ष के किशोरों के साथ वयस्कों जैसा बर्ताव हो,इस बाबत विधेयक पारित हो चुका है और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की औपचारिकता के बाद यह कानूनी शक्ल अख्तियार कर लेगा। दरअसल देश में घटित होने वाले संगीन अपराधों में किशोरों की संलिप्तता निरंतर बढ़ रही है। निर्भया कांड के बाद दिल्ली एनसीआर में 2012 की तुलना में 62 फीसदी मामले बढ़े हैं। इनमें अधिकतम किशोर अपराधी संलिप्त हैं। ऐसे में जरूरी लग रहा था कि किशोर को नाबालिग अपराधी के नजरिए से देखा जाए अथवा बालिग के ? यह जुम्मेदारी विधेयक के प्रारूप के अनुसार किशोर न्याय मंडल संभालेगा। मंडल ऐसी स्थिति में किशोर की अपराध के वक्त मनोदशा की पड़ताल करके यह निर्णय लेगा कि किशोर अपराधी को किस श्रेणी में रखा जाए। हालांकि यह पड़ताल बेहद सूक्ष्म है। इसे गंभीर एवं सतत अध्ययनशील मनोवैज्ञानिक ही अंजाम दे सकते हैं। ऐसे में हरेक किशोर न्याय मंडल में मनोवैज्ञानिक को शामिल करना मुश्किलहोगा। क्योंकि हमारे देश में इस विषयके विशेषज्ञों की बड़ी कमी है।

माहिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने ‘किशोर आपराधिक न्याय‘ ;देखभाल एवं बाल सरंक्षण कानून 2000 के स्थान पर नया कानून ‘किशोर न्याय विधेयक-2014‘ बनाया है,इसके मुताबिक किशोर अपराधियों की वयस्क होने की उम्र 18 वर्ष से घटाकर 16 कर दी गई है। मसलन अब उन पर वयस्कों पर लगने वाली भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की उन धाराओं के तहत मामला दर्ज होगा, जो वयस्क जघन्य अपराधियों पर दर्ज होते हैं। लेकिन मुकदमा चलाने का अंतिम फैसला किशोर न्याय मंडल (जुवेनाईल र्जिस्टस बोर्ड) लेगा। बावजूद ऐसे मामलों में किशोर अपराधियांे को उम्रकैद या फांसी की सजा देने का प्रावधान प्रस्तावित संशोधित कानून के मसौदे में नहीं है। इस कानून के मुताबिक किशोर अपराधियों को हत्या एवं बलात्कार जैसे जघन्य मामलों में न्यूनतम सात साल और अधिकतम दस साल की सजा प्रस्तावित है।

इस कानून में संशोधन बहुचर्चित 23 वर्षीय फिजियोथैपिस्ट छात्रा से 16 दिसंबर 2012 दूराचार और हत्या की पृष्ठभूमि से जुड़ा है। दरअसल इस सामूहिक बर्बरता में एक ऐसा नाबालिग जघन्य अभियुक्त भी शामिल था,जिसकी उम्र 17 साल थी। इस कारण उसे इस जघन्य अपराध से जुड़े होने के बावजूद,अन्य आरोपियों की तरह न्यायालय मौत की सजा नहीं दे पाई। हमारे वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार 18 साल तक की उम्र के किशोरों को नाबालिग माना जाता है। नतीजतन नाबालिग मुजरिम के खिलाफ अलग से मुकदमा चला और उसे कानूनी मजबूरी के चलते तीन साल के लिए सुधार-ग्ह में भेज दिया गया। जिसकी समय-सीमा पूरी होने के बाद उसे मुक्ति मिल गई और उसकी किसी भी प्रकार से स्वतंत्रता बाधित करने से शीर्ष न्यायालय ने हाथ खड़े कर दिए। क्योंकि अदालतें भी निर्धारित कानून का उल्लंघन नहीं कर सकती हैं।

दरअसल किशोरों को सुधार गृह भेजने की व्यवस्था के पीछे कानून निर्माताओं की मंशा थी कि किशोर अपराधियों में सुधार की ज्यादा उम्मीद रहती है। कठोर दंड देने से उनका भविष्य बर्बाद हो सकता है और वे ज्यादा खुंखार अपराधी बन सकते हैं। इसलिए उन्हें सुधार का अवसर मिलना चाहिए। वैसे भी भारतीय न्याय व्यवस्था का जोर अपराधी को दंडित करने की बजाय उसे सुधारने पर होता है। इसी मंशा के चलते किशोर न्याय अधिनियम में अपराधी की मनोदशा भांपने की कोशिश पर जोर दिया गया है। यदि अपराध के समय किशोर की मानसिकता नाबालिग जैसी पेश आती है तो उस पर मुकदमा किशोर न्यायालय में चलेगा और यदि मनोदशा वयस्क जैसी हुई तो मामला भारतीय दंड संहिता के तहत चलेगा। हालांकि ऐसे भी अनेक मामले हैं,जिनमें जघन्य अपराधी भी नाबालिग होने का लाभ लेकर कठोर सजा से बच निकले हैं।

इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखने के समय मेनका गांधी ने दावा किया था कि सभी यौन अपराधियों में से 50 फीसदी अपराधों के दोशी 16 साल या इसी उम्र के आसपास के होते हैं। अधिकतर आरोपी किशोर न्याय अधिनियम के बारे में जानते हैं। लिहाजा उसका दुरूपयोग करते हैं। इसलिए यदि हम उन्हें साजीषन हत्या और दुश्कर्म के लिए वयस्क आरोपियों की तरह सजा देने लग जाएंगे तो उनमें कानून का डर पैदा होगा‘। वैसे भी देश में किशोर अपराध के जितने मामले दर्ज होते हैं उनमें से 64 फीसदी में आरोपी 16 से 18 वर्ष उम्र के किशोर ही होते हैं। हर साल देश में किशोरों के विरूद्ध करीब 38 हजार मामले दर्ज हो रहे हैं। उनमें से 22 हजार मामलों में आरोपी 16 से 18 वर्ष के हैं।

हालांकि दुनिया भर में बालिग और नाबालिगों के लिए अपराध दंड प्रक्रिया संहिता अलग-अलग हंै। किंतु अनेक विकसित देशों में अपराध की प्रकृति को घ्यान में रखते हुए,किशोर न्याय कानून वजूद में लाए गए हैं। नाबालिग यदि हत्या और बलात्कर जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं तो उनके साथ उम्र के आधार पर कोई उदारता नहीं बरती जाती है। कई देशों में नाबालिग की उम्र भी 18 साल से नीचे है। मेनका गांधी भले ही यह दावा कर रही हैं कि ज्यदातर आरोपी किशोर न्याय आधिनियम के बारे में समझ रखते हैं,किंतु यह दावा करना उचित नहीं है। दरअसल बाल अपराधियों से विशेष व्यवहार के पीछे सामाजिक दर्शन की लंबी परंपरा है। दुनिया के सभी सामाजिक दर्षन मानते हैं कि बालकों को अपराध की दहलीज पर पहुंचाने में एक हद तक समाज की भूमिका अंतर्निहित रहती है। आधुनिकता,शहरीकरण,उद्योग,बड़े बांध,राजमार्ग व राष्ट्रीय उद्यानों के लिए किया गया विस्थापन भी बाल अपराधियों की संख्या बढ़ा रहा है। कुछ समय पहले कर्नाटक विधानसभा समिति कि आई रिपोर्ट में दुश्कर्म और छेड़खानी की बढ़ी घटनाओं के लिए मोबाइल फोन को जिम्मेबार माना गया है। इससे निजात के लिए समिति ने स्कूल व काॅलेजों में इस डिवाइस पर पांबदी लगाने की सिफारिष की है। इस समिति की अध्यक्ष महिला विधायक शकुनतला शेट्टी हैं। हालांकि ऐसी रिपोर्टों पर हमारे  देश में अमल संभव नहीं है,सो इस रिपोर्ट का भी यही हश्र हुआ। जाहिर है,विषमता आधारित विकास और संचार तकनीक यौनिक अपरोधों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इस संदर्भ में गंभीरता से सोचने की जरूरत इसलिए भी है,क्योंकि सरकारी आंकड़ांे के मुताबिक लगभाग 95 प्रतिशत बाल अपराधी गरीब और वंचित तबकों से हैं। इस लिहाज से ऐसे कानून के निर्माण के समय भावुकता से काम लेने या भावुक आंदोलनों के दबाब में आने की जरूरत नहीं है।

सरकारी आंकड़े भले ही गरीब तबकों से आने वाले बाल अपराधियों की संख्या 95 फीसदी बताते हों,लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आर्थिक रूप से संपन्न या उच्च शिक्षित तबकों से आने वाले महज पांच फीसदी ही बाल अपराधी हैं। सच्चाई यह है कि इस वर्ग में यौन अपराध बड़ी संख्या में घटित हो रहे हैं। क्योंकि इस तबके के बच्चों के माता-पिता बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहते हैं। इन्हें पोष्टिक आहार भी खूब मिलता है। घर की आर्थिक संपन्नता और खुला माहौल भी इन बच्चों को जल्दी वयस्क बनाने का काम करता है। ये बच्चे छोटी उम्र में ही अश्लील साहित्य और फिल्में देखने लग जाते हैं,क्योंकि इनके पास उच्च गुणवत्ता के मोबाइल फोन सहज सुलभ रहते हैं। यही कारण है कि इस तबके की किशोरियों में गर्भ धारण के मामले बढ़ रहे हैं। इसी उम्र से जुड़े अविवाहित मातृत्व के मामले भी निरंतर सामने आ रहे हैं। बड़ी संख्या में ये मामले कानून के दायरे में इसलिए नहीं आ पाते, क्योंकि ज्यादातर शारीरिक संबंध रजामंदी से बनते हैं और संबंध बनाने के दौरान गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल कर लिया जाता है। बहरहाल सरकार और संसद ने बिना बहस के जल्दबाजी में विधेयक पारित करने का जो निर्णय लिया है,उसकी सार्थकता फिलहाल भविष्यके गर्भ में है।

 

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