कहो कौन्तेय-५९

विपिन किशोर सिन्हा

(महासमर की तैयारी)

हमारे संधि-प्रस्ताव दुर्योधन के अहंकार और धृतराष्ट्र के अनिर्णय की भेंट चढ़ चुके थे। हृदय पर पत्थर रखकर हमने मात्र पांच ग्रामों के बदले हस्तिनापुर को शान्ति देने का प्रस्ताव रखा था। दुर्योधन ने वह भी ठुकरा दिया। धृतराष्ट्र असहाय थे, पितामह मौन। सत्य और न्याय के लिए हस्तिनापुर की राजसभा में क्रान्ति का बिगुल फूंकने के लिए कोई सामने नहीं आया। सभी ने दुर्योधन की दासता स्वीकार कर ली थी। कौरवों की अहमन्यता की रेत में समझौते की संभावनाएं सदा के लिए सूख गईं। तप्त मरुस्थल में विनाश की आंधियों की आहट अब स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। युद्ध का उद्‌घोष कर श्रीकृष्ण लौट आए थे। हम पांचो भ्राताओं और द्रौपदी को माता कुन्ती के संदेश उन्होंने विस्तार से सुनाए। हमने धरती, आकाश और श्रीकृष्ण को साक्षी मान द्रौपदी के अपमान का गिन-गिनकर बदला लेने का संकल्प लिया। माता के संदेश के बाद मस्तिष्क से अनिर्णय के बादल सदा के लिए छंट गए थे। पांचो भ्राताओं की पांच दाहिनी भुजाएं एक साथ आकाश में लहराईं, पांच मुखों ने एकसाथ उद्‌घोष किया –

“महासमर, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं।”

“तथास्तु! विजयी भव।” श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा।

आर्यावर्त के सबसे विनाशकारी संग्राम का निर्णय ले लिया गया। न भूतो न भविष्यति। दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारियां होने लगीं। विश्व इतिहास के पन्ने विध्वंशक हवाओं में फड़फड़ाने लगे। हमारे पुरोहित धौम्य ऋषि, यादव पुरोहित गर्ग मुनि, पांचाल के विद्वान पुरोहित ऋषिवर याज-उपयाज ने एक बैठक कर महासंग्राम की तिथि निश्चित की – मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि। धृतराष्ट्र को सूचना भेज दी गई। हमने सात अक्षौहिणी सेना के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपना पड़ाव डाल दिया। कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना भी पितामह भीष्म के नेतृत्व में कुरुक्षेत्र पहुंच युद्धघोष करने लगी। युद्ध के नियम निश्चित करने हेतु दोनों पक्षों की एक बैठक भी बुलाई गई। कौरवों के प्रनिधिमंडल में पितामह, दुर्योधन और कर्ण सम्मिलित थे। हमारी ओर से स्वयं श्रीकृष्ण, सात्यकि, मत्स्यराज विराट, महाराज द्रुपद और हमारे सेनापति धृष्टद्युम्न, महाराज युधिष्ठिर का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। सर्वसम्मति से युद्ध के नियम निश्चित कर दिए गए –

– प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय के साथ आरंभ होगा।

– सूर्यास्त के साथ उस दिन के युद्ध की समाप्ति भी होगी।

– रथी, रथी के साथ युद्ध करेगा।

– गजारोही, गजारोही के साथ मुकाबला करेगा।

– अश्वारोही सिर्फ अश्वारोही से ही भिड़ेगा।

– पैदल सेना, पैदल सेना से ही युद्ध करेगी।

– जो जिसके योग्य हो, जिसके साथ युद्ध करने की उसकी इच्छा हो, वह उसी के साथ युद्ध करेगा।

– असावधान विपक्षी पर प्रहार निषिद्ध होगा।

– दो योद्धाओं के परस्पर युद्ध में कोई तीसरा योद्धा अस्त्र नहीं छोड़ेगा।

– युद्ध में जिसके अस्त्र-शस्त्र और कवच नष्ट हो गए हों – ऐसे निहत्थे का वध पूर्ण रूप से निषिद्ध होगा।

– रथों के सारथि, श्रमिक, भेरी और शंख बजानेवालों पर किसी तरह का प्रहार नहीं किया जाएगा।

 

अन्ततः कक्ष-लक्ष योद्धाओं को जिसकी प्रतीक्षा थी, मार्गशीर्ष की कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि आ ही गई। सब समय की प्रतीक्षा करते हैं, समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। ब्रह्म मुहूर्त्त में निद्रा का त्याग कर स्नान, पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत हो, मैंने शत्रुओं के नाश और अपना मनोरथ सिद्ध करने हेतु दुर्गा-स्तुति की। देवी मेरी भक्ति पर प्रसन्न हुईं। मेरे और श्रीकृष्ण के सामने ही आकाश में प्रकट हुईं। मधुर स्वर में मुझे आशीर्वाद दिया –

“हे पाण्डुनन्दन! तुम धर्म के पक्षधर हो। सत्य और न्याय के लिए युद्ध हेतु प्रस्थान करने वाले हो। तुम्हें मेरा आशीर्वाद प्राप्त हो। कुछ ही दिनों में अपने समस्त शत्रुओं का संहार कर तुम विजय प्राप्त करोगे। तुम साक्षात नर हो और श्रीकृष्ण के रूप में नारायण तुम्हारे सहायक हैं। युद्ध का कोई नियम, उपनियम श्रीकृष्ण के वचनों से उपर नहीं होगा। उनके निर्देशों का पालन करते हुए युद्ध करो। तुम्हारा कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता। यहां उपस्थित शत्रुओं की तो बात ही क्या है, तुम युद्ध में बज्रधारी इन्द्र के लिए भी अजेय हो।”

युद्ध आरंभ होने के पूर्व हम सभी भ्राताओं ने श्रीकृष्ण की अग्रपूजा का निर्णय लिया। अपने आग्रह से उन्हें अवगत कराया और उनकी स्वीकृति भी प्राप्त कर ली। शिविर में पूर्वाभिमुख रखे एक आकर्षक स्वर्णिम सिंहासन पर उन्हें बैठा, उनका पाद-प्रक्षालन कर, उनकी विधिवत पूजा की। हमने बारी-बारी से उनके कुंकुम मंडित श्रीचरणों पर मस्तक टेककर आशीर्वाद लिए।

“विजयी भव, अभिषिक्त भव, कीर्तिमान भव।” मुरली के स्वर की भांति श्रीकृष्ण का स्वर वातावरण में रस घोल गया।

दुर्योधन ने पितामह भीष्म को अपना सेनापति नियुक्त किया। हमारे सेनापति थे – यज्ञवेदी से उत्पन्न, द्रौपदी के भ्राता धृष्टद्युम्न। उनका विधिवत अभिषेक कर, उन्हें श्वेत पुष्पों की माला पहनाई गई। श्रीकृष्ण और धृष्टद्युम्न को आगे रखकर हम सभी उनके पीछे-पीछे शिविर से बाहर आए। मेरे रथ नन्दिघोष को विशेष रूप से सजाया गया था। ध्वज दण्ड पर स्थित कपिध्वज नदी की ओर से आते हुए वायु के झोंकों से लहरा रहा था। रथ के पार्श्व भाग में विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित थे। हमारे पीछे सुनियोजित व्यूह रचना से सज्जित सात अक्षौहिणी सेना का समुद्र गंभीर गर्जना कर रहा था।

हमारे सामने उसी व्यूह रचना में कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना का महासमर लहरा रहा था। उस व्यूह रचना के मुख्य द्वार पर श्वेत केश और श्वेत दाढ़ी में श्वेत वस्त्रधारी पितामह भीष्म, श्वेत अश्वों से जुते रथ पर सवार थे। उनकी दाईं ओर रथियों के अग्रस्थान पर गुरुवर आचार्य द्रोण और कृपाचार्य दृष्टिगत हो रहे थे। पितामह की बाईं ओर अश्वत्थामा, भूरिश्रवा और विकर्ण मोर्चा संभाले थे। भ्राताओं के साथ दुर्योधन दूसरी पंक्ति में दिखाई दे रहा था। कर्ण युद्धभूमि में उपस्थित नहीं था। उसने पितामह के नेतृत्व में, युद्ध न करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी।

पितामह ने पूरी शक्ति से उच्च स्वर में शंखनाद किया। फिर क्या था – शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और नरसिंगे आदि रणवाद्य एक साथ बज उठे। श्रीकृष्ण के पांचजन्य, मेरे देवदत्त, भीम के पौन्ड्र, युधिष्ठिर के अनन्तविजय, नकुल के सुघोष, तथा सहदेव के मणिपुष्पक शंखों की मेघ जैसी प्रचण्ड ध्वनि से, ऐसा लगा जैसे आकाश फट पड़ेगा। युद्ध आरंभ होने ही वाला था कि मैंने इशारे से पितामह और धृष्टद्युम्न, दोनों को रोका। युद्ध के अभिलाषी शत्रु पक्ष के समस्त योद्धाओं को मैं एकबार जी भरकर देखना चाह रहा था। श्रीकृष्ण ने मेरा रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा किया।

मैंने एक विहंगम दृष्टि शत्रु पक्ष के योद्धाओं पर डाली। इनमें से अधिकांश मेरे ही बाणों द्वारा मृत्यु को प्राप्त करने वाले थे। मेरी आंखें पितामह के मुखमण्डल पर अटक गईं। अतीत कि मधुर स्मृतियों में मेरा मन खो गया।

क्रमशः

 

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