कहो कौन्तेय-६९

विपिन किशोर सिन्हा

(सात्यकि और भीमसेन का पराक्रम)

महासमर के चौदहवें दिन का सूरज भी नियत समय पर उदित हुआ। रणवाद्यों की गूंज से आकाश दहल गया। अपने रथ नन्दिघोष पर आरूढ़ हो मैंने सम्मुख युद्ध के लिए सन्नद्ध कौरवों की सेना का सिंहावलोकन किया। आचार्य द्रोण ने आज शकटव्यूह की रचना की थी। चौबीस योजन लंबे और पीछे दस योजन तक विस्तृत इस व्यूह के मुहाने पर स्वयं आचार्य तैनात थे। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार जयद्रथ की रक्षा के लिए भूरिश्रवा, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन और कृपाचार्य एक लाख अश्वारोही, साठ हजार रथी, चौदह हजार गजारोही और इक्कीस हजार पदारोही के साथ व्यूह के पार्श्व भाग में तैनात थे। श्रीकृष्ण के पांचजन्य फूंकने के साथ युद्ध आरंभ हुआ। मेरे सामने सर्वप्रथम दुर्मर्षण और दुशासन आए। दोनों ने पूरी शक्ति से मेरा मार्ग रोकने का प्रयास किया। दोनों की सेनाओं का संहार करके मैंने अपने तीक्ष्ण बाणों से उन्हें इतना पीड़ित किया कि वे रणभूमि छोड़ने के लिए विवश हो गए। अब मेरे सामने प्रातः स्मरणीय पूज्य आचार्य द्रोण उपस्थित थे। मैंने श्रीकृष्ण की सम्मति से दोनों करों को जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद की याचना की –

“गुरुवर! आज मैं आपसे कल्याण कामना की अपेक्षा करता हूं। आप मेरे लिए पिता सदृश हैं। आपने अश्वत्थामा और मुझमें कभी विभेद नहीं किया। जिस तरह अश्वत्थामा की रक्षा आप सदैव करते आए हैं, उसी तरह मेरी भी रक्षा आप करेंगे, मुझे विश्वास है। आज आपकी कृपा से मैं सिन्धुराज जयद्रथ का वध करना चाहता हूं। आपका सर्वप्रिय, पुत्र समान शिष्य अर्जुन, आपसे आग्रह करता है – उसकी प्रतिज्ञा की रक्षा करें।”

आचार्य पर मेरी प्रार्थना का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने मेरा अनुरोध मुस्कुरा कर ठुकरा दिया। मेरा स्वागत उन्होंने तीक्ष्ण बाणों से किया। हम दोनों एक-दूसरे पर बाण-वर्षा करने लगे। युद्ध निरन्तर बढ़ रहा था। श्रीकृष्ण ने धीमे से निर्देश दिया –

“हे पृथापुत्र! हमारे सामने एक बहुत बड़ा लक्ष्य है। आचार्य से युद्ध में समय नष्ट न करो। वे तुम्हें कई दिनों तक रोक रखने की सामर्थ्य रखते हैं। तुम इन्हें यहीं छोड़कर आगे बढ़ो।”

श्रीकृष्ण का परामर्श समयानुकूल था। बाण-वर्षा करते हुए मैंने आचार्य की प्रदक्षिणा की। उन्हें वाम भाग में छोड़ते हुए श्रीकृष्ण ने रथ को आगे बढ़ाया। विस्मित गुरुवर ने मुझे ललकारा –

“पार्थ! संग्राम में शत्रु को बिना परास्त किए आगे बढ़ जाना क्षत्रियोचित कर्म नहीं है। मैंने तुम्हें कभी ऐसी शिक्षा नहीं दी। मुझसे युद्ध करो, परास्त करो, फिर आगे बढ़ो।”

मैंने दोनों हाथ जोड़ विनम्रता से पुनः निवेदन किया –

“आचार्यश्री! आप मेरे शत्रु नहीं गुरु हैं। संसार में ऐसा कोई पुरुष नहीं जो आपको परास्त कर सके। अतः मैं आपकी प्रदक्षिणा कर आगे बढ़ रहा हूं। मुझे कार्यसिद्धि का आशीर्वाद दीजिए, गुरुवर!”

मैंने पीछे मुड़कर देखा, आचार्य मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे। मैंने सबसे बड़ा अवरोध पार कर लिया था। शत्रुवीरों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मैं अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा था। तभी महारथी जय, कृतवर्मा, काम्बोज नरेश, श्रुतायु और सुदक्षिण मेरे मार्ग में व्यवधान बनकर आए। घनघोर युद्ध हुआ। कृतवर्मा अचेत हो रणभूमि छोड़ने के लिए विवश हुआ और शेष महारथी वीरगति को प्राप्त हुए। कौरव सेना हाहाकार करती हुई पलायन करने लगी। मुझे तेजी से आगे बढ़ते देख दुर्योधन के माथे पर बल पड़ने लगे। उसने द्रोणाचार्य को खूब खरीखोटी सुनाई। पीछे आकर मुझे रोकने का उनसे आग्रह किया। लेकिन आचार्य डिगे नहीं। वे अग्रिम मोर्चे पर ही डटे रहे।

मैं द्रूतगति से कौरव सेना में घुसता जा रहा था। मैंने असंख्य वीरों का संहार किया। श्रीकृष्ण ने नन्दिघोष रथ को युद्धभूमि के हर कोने में दौड़ाया लेकिन जयद्रथ दृष्टिगत नहीं हुआ। अचानक व्यूह के सबसे पार्श्व भाग में कर्ण, भूरिश्रवा, कृपाचार्य, शल्य, अश्वत्थामा और वृषसेन एक साथ दिखाई पड़े। जयद्रथ इन छः महारथियों के पीछे दस्यु की भांति छिपा था। उसपर दृष्टि पड़ते ही हमने हर्ष के साथ भीषण गर्जना की।

जयद्रथ की रक्षा के लिए दुर्योधन सबसे आगे आया। मैंने उसके वक्षस्थल को लक्ष्य कर असंख्य बाण छोड़े लेकिन सबके सब उसके कवच से टकराकर भूमि पर गिर पड़े। श्रीकृष्ण ने मेरी ओर आश्चर्य से देखा। मैं समझ गया कि दुर्योधन उस दिन आचार्य द्रोण द्वारा प्रदत्त अभेद्य कवच से रक्षित था। उस कवच में तीनों लोकों की शक्ति समाई थी। उसे धारण करने की विधि या तो आचार्य को ज्ञात थी या उनकी कृपा से मुझे। मेरे अस्त्र दुर्योधन के कवच का छेदन नहीं कर सकते थे। अतः मैंने दूसरी विधि से दुर्योधन को पीड़ित करने का निश्चय किया – मैंने काल के समान कराल और तीक्ष्ण बाणों से उसके घोड़ों और दोनों पार्श्व रक्षकों को काल का ग्रास बनाया, उसके धनुष और हस्तत्राण को काट डाला। उसे रथहीन करके दो तीक्ष्ण बाणों से उसकी हथेलियों को इस तरह बींधा कि मेरे बाण उसके नखों के भीतर मांस को छेदते गए। वह न तो धनुष पकड़ सकता था और न गदा। दर्द से व्याकुल हो उसने रणभूमि छोड़ दी। लेकिन इतना समय जयद्रथ को मिल गया कि वह सुरक्षित स्थान पर भाग सके। वह पुनः मेरी दृष्टि से ओझल हो गया। शिकार पास आकर हाथ से निकल गया था।

श्रीकृष्ण ने पुनः रणभूमि में चारो ओर रथ दौड़ाया लेकिन जयद्रथ दृष्टिपथ में नहीं आया। वह भागकर बहुत दूर तक तो नहीं गया होगा, इसका आभास हमें था, अतः हम उसकी संभावित उपस्थिति की ओर बढ़ चले। कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन और भूरिश्रवा ने हमारी योजना भांप ली। उन्होंने हमें चारो ओर से घेरकर एकसाथ आक्रमण कर दिया।

यह वही मण्डली थी जिसने अभिमन्यु को घेरा था। मेरे रोम-रोम से चिंगारियां निकलने लगीं। विद्युतगति से मैंने इन महारथियों को तीक्ष्ण बाणों की वर्षा से घायल कर दिया। श्रीकृष्ण मेरे चपल युद्ध-कौशल पर मुग्ध थे। हर्ष और उत्साह से भरकर पूरी शक्ति से उन्होंने पांचजन्य फूंका। मैंने भी देवदत्त का उद्‌घोष किया।

शकटव्यूह में प्रवेश के पूर्व भीम और सात्यकि को महाराज युधिष्ठिर की रक्षा का दायित्व सौंपा था। ये दोनों महारथी बड़ी वीरता से युद्ध कर रहे थे। आचार्य द्रोण युधिष्ठिर को बन्दी बनाने का प्रयास कर रहे थे। दोनों वीरों ने उनकी योजना ध्वस्त कर दी। सात्यकि ने अभूतपूर्व पराक्रम प्रदर्शित करते हुए द्रोणाचार्य को पीछे हटने के लिए वाध्य कर दिया। भीमसेन ने महाबली राक्षस अलम्बुष से भयानक संग्राम किया। घटोत्कच ने उसका वध कर पिता के कार्य को सरल कर दिया। कौरव सेना भयभीत होकर पीछे भागने लगी। लेकिन महाराज युधिष्ठिर को चैन कहां? वे मेरे लिए चिन्तित हो रहे थे। पांचजन्य और देवदत्त की शंखध्वनि सुन उन्हें ऐसा लगा कि हम सहायता चाह रहे हों। उनके हृदय में अनिष्ट की आशंका ने घर बनाना आरंभ कर दिया। यह अत्यधिक स्नेह का परिणाम था। मनुष्य जिससे अधिक स्नेह करता है, उसके लिए सदैव शंकालु रहता है। उन्होंने सात्यकि और भीमसेन को अविलंब मेरे पास पहुंचने का निर्देश दिया।

धृष्टद्युम्न और द्रौपदी-पुत्रों को महाराज युधिष्ठिर की रक्षा में तैनात कर दोनों महावीर मेरी सहायता के लिए अलग-अलग दिशाओं से चल पड़े।

सात्यकि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर आचार्य द्रोण और कृतवर्मा आए। लेकिन आज सात्यकि का वेग रोकना कठिन ही नहीं असंभव था। उसने अप्रत्याशित ढ़ंग से कृतवर्मा और द्रोणाचार्य को परास्त कर कौरव सेना में घुसने का मार्ग बनाया। आगे बढ़ने पर दुशासन से सामना हुआ। उसने बाण-वर्षा और शक्ति-प्रहार से सात्यकि को प्रभावित करने का प्रयास किया। सात्यकि आज अजेय था। उसने तीन तीक्ष्ण बाणों से दुशासन की छाती छेद डाली, उसका धनुष काट डाला। एक प्राणघातक बाण चढ़ाकर उसकी इहलीला समाप्त करने ही वाला था कि भीम की प्रतिज्ञा उसके स्मृति-पटल पर साकार हो उठी। उसने अपने बाण रोक लिए और दुशासन को पलायन करने का अवसर प्रदान कर दिया।

आचार्य द्रोण का पासा उलटा ही पड़ रहा था। उनका शकटव्यूह छिन्नभिन्न हो चुका था। उनकी आंखों के सामने मैं और सात्यकि उनकी सेना के भीतर प्रवेश कर चुके थे। वे चाहकर भी हमें रोक नहीं पाए थे। उनका एक ही लक्ष्य था – महाराज युधिष्ठिर को जीवित बन्दी बनाना। मेरी और सात्यकि की अग्रिम मोर्चे से अनुपस्थिति ने उन्हें ऊर्जा प्रदान की। अपने छिन्नभिन्न सकटव्यूह की पुनर्रचना करने का प्रयास वे आरंभ कर ही रहे थे कि भीमसेन ने भीषण मारकाट मचा दी। वे द्रूतगति से कौरव सेना में घुसते जा रहे थे। आचार्य ने पूरी शक्ति से भीम को रोका। गुरुवर के बाणों का उत्तर भीमसेन ने अपनी गदा से दिया। अपने कालदण्ड के समान भयंकर गदा के प्रहार से सारथि, घोड़े और ध्वजा सहित उनके रथ को चूर-चूर कर दिया। आचार्य दूसरे रथ पर चढ़कर व्यूह के द्वार पर आए। महावीर भीम ने रथ का जुआ पकड़कर उसे दूर फेंक दिया। आचार्य कूदकर तीसरे रथ पर जा बैठे। भीम ने उसे भी घुमाकर फेंका। गुरुवर ने एक-एक कर आठ रथ बदले लेकिन भीम रथों का जुआ पकड़ फेंकते रहे। द्रोणाचार्य को शर-संधान का अवसर ही नहीं मिला। हारकर आचार्य ने भीमसेन को मार्ग देना ही उचित समझा। वीरवर भीम आंधी की तरह शत्रुओं का नाश कर गर्जना करते हुए आगे बढ़ चले। कृतवर्मा ने उन्हें रोकने का एक असफल प्रयास किया लेकिन आंधी में तिनके की क्या बिसात? दुर्योधन के चार भ्राता – विन्द, अनुविन्द, सुशर्मा और सुदर्शन पता नहीं क्या सोचकर भीम के मार्ग में आए। जयद्रथ की रक्षा में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

क्रमशः

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