डा. राधेश्याम द्विवेदी
कल्प-वृक्ष का अर्थ पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो कल्प-वृक्ष माना जाता है। यह बहुत बड़ा दानी वृक्ष है। यह एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है।
दुर्वाषा ऋषि का शाप:-एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्रमिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’
शाप मुक्ति का उपाय:- इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले—‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।
समुद्र मंथन कथा:-इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- ‘देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।’ यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।
चौदह रत्नों में:-समुद्र मंथन की मिथकीय घटना के बाद जो चौदह रत्नों : श्री, मणि, रम्भा, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज,धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरु, धन्वन्तरि, विष और वाज।की प्राप्ति हुई हैं।
चार दिव्य वृक्ष में:-मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े ज़ोर की आवाज़ उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा- ‘आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।’ ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान- ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
10 चमत्कारिक वस्तुओं में:- प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थीं जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते हैं कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं। आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में। हो सकता है कि आप ढूंढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।
कल्पवृक्ष की मान्यता:- वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलयकाल में भी जिंदा रहता है।पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।
हिन्दु ग्रंथो एवं पुराणो की एक कथानुसार जब देवताओं एवं दानवों के बीच शेषनाग को लेकर समुद्र का मंथन किया गया था। तब समुद्र मंथन के दौरान अनेको प्रकार के ऐसे सजीव एवं निर्जीव सामान निकले। इस मंथन में सबसे अधिक चर्चित में कामधेनू गाय एवं कल्पवृक्ष का जिक्र होता है। कल्पवृक्ष को कल्पतरु भी कहा जाता है। मानवीय एवं संस्कारिक जीवन में इस दिव्य पेड़ मिथकीय प्राणी किन्नारा या किन्नारी भी कहा गया है। इस पेड़ को स्वर्ग में अप्सरा और देवता द्वारा संरक्षित किया गया है। वैसे वैसे कल्पवृक्ष को लेकर संस्कृत साहित्य में कई किस्से – कहानियां उल्लेखीत की गई है। एक अन्य कथानुसार ऋषि दुर्वासा ने भी कल्प वृक्ष के नीचे जप एवं तप किया था। कल्पवृक्ष के देवताओं के राजा इंद्र के यहां पर होने के पीछे की कहानी भी समुद्र मंथन से जुड़ी है। बताया जाता है कि मंथन के बाद देवराज इन्द्र इस पेड़ को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। वैसे कल्पवृक्ष को संस्कृत में मनसारा भी कहा जाता है जिसका एक शाही प्रतीक के रूप में उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष को बेशकीमती सोना और कीमती पत्थरों को प्रदान करने वाला वृक्ष भी कहते है। कल्पवृक्ष को संरक्षित पेड़ के रूप में गिना जाता है। उत्तराचंल में इस पेड़ के चारों ओर एक तार जाल स्थापित करके के अलावा इसकी सुरक्षा की जवाबदेही सशस्त्र बलों के पास है। वैसे कहा तो यहां तक जाता है कि कल्पवृक्ष का पेड़ अद्वितीय गुण धारक है। यह अपने आप में एक एकल पत्ती कभी नहीं हारता, यह सदाबहार है और सुप्रीम देवत्व विष्णु के लिए जगत गुरू आदि शंकराचार्य के गहरे बैठा भक्ति निकलती होने के लिए कहा है. कल्पवृक्ष कई आध्यात्मिक, धार्मिक और पर्यावरणीय मूल्यों में शामिल है। यह पृथ्वी पर एक दिव्य पेड़ के रूप में जाना जाता है। हिमालय वाहिनी के लिए सभी को एक मिशन की तरह तीर्थयात्रियों में कल्पवृक्ष का पौधा लगाने के लिए जन आंदोलन का आयोजन होता है, मिशन हरिद्वार से शुरू कर दिया। दक्ष द्वीप कनखल में दुनिया का पहला कल्पवृक्ष को रोपित किया गया। वैसे आमतौर पर कल्पवृक्ष का रोपण नहीं होता लेकिन अब हरिद्वार तीर्थ द्वारा इसके रोपण का कार्य पूरा किया जा रहा है। इस मिशन में श्री विजय पाल बघेल के कन्वेयर यह इच्छा अधिक से अधिक पौधे रोपण, एक पवित्र वृक्ष के रूप में दुनिया भर के आध्यात्मिक और लुप्तप्राय है।
प्राचिन कल्पवृक्ष होने की पुष्टि:- कल्पवृक्ष के इतिहास में 8 सदी में पावन मंदिर, जावा, इंडोनेशिया में कल्पवृक्ष जिसे कल्पतरु कल्प पदुरमा, और कल्प पदपा के रूप में जाना जाता है का जिक्र मिलता है। कहा तो यहां तक जाता है कि भारत में प्राचिन कल्पवृक्ष सिर्फ दो स्थानो पर ही है। उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी धाम एवं ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ धाम में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रोपित किया गया हुआ है।
एक पौराणिक के अनुसार अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाला यह दिव्य पेड़ नेशनल हाइवे 69 पर भोपाल – नागपुर के बीच होशंगाबाद जिले के केसला थाना क्षेत्र में मौजूद है। थाना परिसर क्षेत्र के इस विचित्र पेड़ के कल्पवृक्ष होने का पूरा मामला उस समय प्रकाश में आया जब वन विभाग की रिर्सच टीम यहां पर आई और उसने इसके कल्पवृक्ष होने की पुष्टि की। सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला यह कल्पवृक्ष का पूरा पौराणिक इतिहास का पुलिस केसला और वहां पर मौजूद स्टाफ को भले ही न हो लेकिन जब भी कोई जानकार व्यक्ति यहां पर आता है तो पुलिस कल्पवृक्ष को लेकर पुराणो की कथाओं को ध्यान पूर्वक सुनना पसंद करते है। केसला (होशंगाबाद): नर्मदाचंल एंव ताप्तीचंल के बीच स्थित एक छोटे से गांव में वृक्ष को कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है।
कहा जाता है कि कल्पवृक्ष की तरह अजमेर(राजस्थान) में दो श्रद्धेय (पुरुष और महिला) पेड़ है कि 800 साल से अधिक पुराने हैं। वैसे अब इन्हे भी कल्पवृक्ष के रूप में जाना जाता है, इन पेड़ों में अमावस्या के एक दिन तथा श्रवण मास के हिंदू महीने में पूजा की जाती है। पद्म पुराण के अनुसार, इस पेड़ को परीजात का पेड़ भी कहा जाता है। प्राचीन शहतूत के पेड़ को कल्पवृक्ष के रूप में स्थानीय लोगो द्वारा जाना जाता है।
उत्तर प्रदेश के बस्ती में होने की पुष्टि:- भारत के नक्शे पर उत्तर प्रदेश के बस्ती के मुण्डेरवा कस्बे के चीनी मिल परिसर में स्थित पेड़ की जांच के बाद राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ (एनबीआरआई) ने इसे कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। विजय सागर सेवा संस्थान ने मिल परिसर के इस वृक्ष को कल्पवृक्ष बताते हुए सांसद हरीश द्विवेदी से जांच कराने की मांग की थी। इस पर सांसद ने एनबीआरआई को जांच के लिए पत्र लिखा। एक जून को आए दो वैज्ञानिकों ने जांच की और नमूना लेकर गए। जांच के बाद कार्यकारी निदेशक डीके उप्रेती ने बताया कि यह वृक्ष करीब साठ वर्ष पुराना है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘एडेन सोनिया डिजिडाटा’ है। मूल रूप से यह अफ्रीकी महाद्वीप के रेगिस्तानी क्षेत्र में पाया जाता है। भारत में प्राकृतिक रूप से यह वृक्ष कहीं नहीं पाया जाता। इसे तत्कालीन चीनी मिल के चीफ केमिस्ट ने यहां लगाया था।
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कल्पवृक्ष हमारे मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में स्थित पवित्र नगरी मां नर्मदा उद्गम अमरकंटक तहसील पुष्पराजगढ़ के दमेहड़ी पंचायत के नर्मदा तट पर स्थित है वृक्ष के संरक्षण के लिए स्वयं मध्य प्रदेश के मुखिया रह चुके माननीय श्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा ने राशि घोषित की गई थी किंतु नर्मदा नदी के बहाव के कारण वह क्षतिग्रस्त हो गया आज सरकार इस पर कोई ध्यान नहीं दे रही है आपसे अनुरोध है कि आप यहां एक बार आए और इस कल्पवृक्ष के दर्शन करें एवं इसके संरक्षण का उपाय करें आपकी टीम जब भी यह कल्पवृक्ष के दर्शन के लिए आए मुझे कांटेक्ट कर सकते हैं मेरा मोबाइल नंबर है 62614 -76485