गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-3

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वैदिक गीता-सार सत्य : मानव जीवन की ऊहापोह
हमारा सारा जीवन इस ऊहापोह में व्यतीत हो जाता है कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? मेरे लिए क्या उचित है? और क्या अनुचित है? महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के समक्ष भी यही प्रश्न आ उपस्थित हुआ था। तब उसे कृष्णजी ने कत्र्तव्य-अकत्र्तव्य का और उचित-अनुचित का बोध कराया। कृष्ण जी के द्वारा जो कुछ भी उस समय कहा गया था उसका निचोड़ यही था कि जीवन में सफलता की प्राप्ति के लिए सभी को निष्कामता का, निस्संगता का, फलासक्ति त्याग, भगवददर्पणता को अपनाना चाहिए। अपने इस सिद्घान्त की रक्षा करने के लिए कृष्णजी को गीता में पारमार्थिक सिद्घान्तों का भी आश्रय लेना पड़ा है। जिसे समयानुकूल, विषयानुकूल और प्रकृति के अनुकूल ही कहा जा सकता है।

युद्ध से पूर्व अर्जुन की स्थिति को विनोबा भावे ने बड़े अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है। वह कहते हैं कि-”अर्जुन की स्थिति ठीक ऐसी थी जैसी स्थिति उस न्यायाधीश की होती है जो सैकड़ों अपराधियों को रोज फांसी की सजा देता है, परन्तु दुर्भाग्य से कभी उसका अपना लडक़ा खून का अपराध कर बैठा, तब वह बुद्घिवाद बघारने लगा, कहने लगा कि फांसी की सजा बड़ी अमानुषी है, इससे अपराधी का सुधार नहीं होता, यह दण्ड मानवता पर एक कलंक है। परन्तु यह प्रज्ञावाद उसे तभी स्मरण आता है-जब उसका अपना लडक़ा अपराधी बनकर उसके सामने खड़ा हो। तब उस पर मोह का पर्दा पड़ जाता है। अर्जुन भी रक्तपात करने से कभी हिचकिचाया नहीं, परन्तु जब अपने ही लोगों पर हाथ उठाने की स्थिति आयी, तब उस पर मोह छा गया। उसके अन्तरात्मा में संघर्ष अन्तद्र्वन्द्व उठ खड़ा और वह अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए बड़ी ऊंची-ऊंची बातें करने लगा। कृष्ण से उपदेश लेने के स्थान पर उसी को उपदेश देने लगा।”
हम इस लेखमाला में प्रयास करेंगे कि गीता के वेदानुकूल और समयानुकूल प्रसंगों, सन्दर्भों और संवादों को लेते हुए जो बातें प्रसंग वश कही गयी हों और जो वेदानुकूल हों, अपने योगीराज श्रीकृष्ण जी महाराज के मुंह से उन्हीं वचनों को सुनवाया जाए। समय और परिस्थितियों के जो अनुकूल ना हो परन्तु जो वेद संगत होने से मानव मात्र के लिए आज भी उपयोगी हो सकती है, और किसी हताश, निराश और उदास ‘अर्जुन’ को युद्ध क्षेत्र से पलायन न कर युद्धक्षेत्र में रूकने और अपना क्षात्रधर्म निर्वाह करने के लिए प्रेरित करे, उसे बताया जाए, और जो बातें वेद विरूद्घ धारणाओं को प्रबल करने या प्रचारित करने के दृष्टिकोण से ली गयी हों-उन्हें निकाल दिया जाए या उचित स्थान पर स्पष्ट कर दिया जाए। इससे गीताकार का उद्देश्य भी सफल होगा और समाज का भी भला होगा।
वैसे इस विषय में श्रीमंगलानन्दपुरी संन्यासी जी की ”सत्तर श्लोकी मूल प्राचीन दुर्लभ श्रीमदभगवदगीता” हमारे लिए एक मार्गदर्शक ग्रन्थ हो सकता है। जिसमें उचित से उचित श्लोकों को ही रखा गया है, और जिसे पढक़र ऐसा लगता है कि मूल रूप में गीता का सारा विषय इतने ही श्लोकों में सिमट गया होगा। उस सत्तर श्लोकी गीता को भी आज समझने की आवश्यकता है।
श्री मंगलानन्दपुरी जी महाराज ने सारी गीता को सत्तर श्लोकों में ही पूर्ण हुआ माना है। जिसे पूर्ण करने में 10-15 मिनट लगते हैं, हमें भी इतना ही समय लगना उचित जान पड़ता है।
हम चाहेंगे कि अपने पाठकों को गीता के श्लोकों के भावार्थ के साथ-साथ वेद के ऐसे मन्त्रों का भावार्थ भी यथास्थान रसास्वादन करने को मिलता रहे-जहां वे आवश्यक है। हमने इस लेखमाला में गीता के मूल श्लोकों को जानबूझकर नहीं दिया है। हमने विषय को सरल करते हुए पाठकों के समझ गीता के श्लोकों के भावार्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। भावार्थ के स्पष्ट होने से गीता का भावार्थ तो स्पष्ट हो ही जाएगा, साथ ही आज के परिप्रेक्ष्य में गीता उपयोगिता भी स्पष्ट हो जाएगी।
प्रचलित गीता के कुल 18 अध्याय हैं। इस खण्ड में हमने प्रथम छह अध्यायों को लिया है, जो कि कर्मयोग पर आधारित है। हमारा उद्देश्य है कि गीता का वैदिक सार सत्य लोगों के सामने आये, हम किसी की अनावश्यक आलोचना करने और अपनी वाहवाही कराने के उद्देश्य से यह लेखमाला नहीं चला रहे हैं। भारत, भारतीय संस्कृति और भारतीय धर्म का वैदिक सत्य स्वरूप लोगों के सामने आये और हमारी गीता का वैदिक सत्य सार इस समय सम्पूर्ण विश्व राष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाला हो, यही हमारा उद्देश्य है।
बाली द्वीप में गीता
बंाकीपुर के साप्ताहिक ‘पाटलिपुत्र’ श्रावण 2 शनिवार संवत 1971 विक्रमी में मूल गीता के 70 श्लोकों के विषय में छपा था। ‘मार्डन रिव्यू’ कलकत्ता में पृष्ठ 32 से 38 तक जुलाई 1914 में डा. नरहर गोपाल सर देसाई जी ने कुछ लिखा उसका सार हम यहां उल्लेखित कर रहे हैं।
”बाली नामक एक छोटा सा द्वीप जावाद्वीप के पास है। जावा टापू में हिन्दू बस्ती थी। राज्य भी हिन्दुओं का था, जिसे सन 1478 ई. में अरब वालों ने नष्ट कर दिया था। (स्पष्ट है कि 1478 ई. तक जावा एक हिन्दू द्वीप था) वहां के हिन्दुओं को (1478 ई. में) मुसलमान बना लिया गया जिनमें मुसलमान होने के उपरान्त अब तक भी हिन्दुत्व के संस्कार पाये जाते हैं। जावा में कुछ बौद्घ भी हैं पर अब हिन्दू नहीं हैं। यह अति प्राचीन देश है। वाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन यवद्वीप के नाम से आया है। जावा द्वीप हिन्दू सभ्यता का केन्द्र था और बड़े-बड़े विद्वान, शूरवीर वहां पहुंचते थे। फलस्वरूप बौद्घ लोग भी पहुंचे और भारत से ब्राह्मण लोग संस्कृत की पुस्तकें लेकर वहां पहुंचे थे।”
डा. देसाई कहते हैं-”मैं येनाग देश में नौकरी पर था। वहां एकपुस्तक पढ़ते हुए अनामास मेरी दृष्टि एक शब्द बाली द्वीप में हिन्दू रामायण तथा हिन्दुओं के 4 वर्ण पर पड़ी।” तब डा. देसाई के अन्तर्मन में बाली द्वीप की जानकारी लेने की इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने जानकारी की तो पता चला कि जावाद्वीप के पास यह बाली टापू है। फलस्वरूव 1912 में डा. देसाई किसी प्रकार बाली टापू के सुर्बजा में जा पहुंचे।
सुर्बजा में रहते डा. देसाई में वहां के हिन्दुओं के विषय में जानना चाहा। परंतु कुछ भी पता नहीं चलता था। अन्त में एक भारतीय मुसलमान से उनका परिचय हुआ। यह बोहरा जाति का था और बाली द्वीप की राजधानी बूलेलोग में रहता था। उसने डा.देसाई को बतलाया कि बाली में पढ़े लिखे ब्राह्मण लोग हैं, जो पण्डा कहलाते हैं। उस द्वीप के एक बंदरगाह अर्थात करंग आसेम में एक हिन्दू राजा भी रहता है। इतनी जानकारी होते ही समुद्री जहाज से चलकर डा. देसाई अगले दो दिन में करंग आसेम पहुंच गये।
क्रमश:

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