राकेश कुमार आर्य


गीता का बारहवां अध्याय और विश्व समाज
यहां पर गीता के 12वें अध्याय के जिस श्लोक का अर्थ हमने ऊपर दिया है-उसमें ‘सर्वारम्भ परित्यागी’ शब्द आया है। इसके विषय में सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी बड़ी तार्किक बात कहते हैं :-”सर्वारम्भ त्यागी का अर्थ कुछ लोग यह करते हैं कि जो किसी नवीन कार्य का आरम्भ नहीं करता, पुरानी प्रथाओं परम्पराओं का ही जो अनुयायी है-वह मेरा प्रिय है। ऐसा अर्थ करने वाले पुरातन का दास बने रहना चाहते हैं, कहते हैं कि गीता ने सब नवीन आरम्भों नवीन विचारों का खण्डन किया है। इसका यह अर्थ नहीं है। इसका यह अर्थ है कि जो सब आरम्भों को, कार्यों को अपना किया न समझकर भगवान का किया समझता है। अपने को निमित्त मात्र ‘भव सव्यसाचिन’-निमित्र मात्र समझता है अपने अहंत्व को, अहंकार को हटाकर उसी भगवान को ही सब आरम्भों का मूल समझता है वह मेरा प्रिय है। गीता के हर स्थल को गीता के मूल विचार की पृष्ठभूमि में ही समझना चाहिए।
गीता की पृष्ठभूमि है-अहंकार का त्याग। अपने को फल से अलग समझना, निष्कामता इसी पृष्ठभूमि में ‘सर्वारम्भ परित्यागी’ कहा है। अहंकारशून्यता का भाव व्यक्ति को विनम्र बनाता है। अहंकारशून्य हृदय वाला व्यक्ति अपनी प्रशंसा सुनकर फूलकर कुप्पा नहीं होता। ऐसे क्षणों में अहंकारशून्य व्यक्ति यदि ऐसा अनुभव करता है कि मेरी प्रशंसा अधिक हो रही है-तो वह अपने आपको उस अधिक प्रशंसा के योग्य बनाने का प्रयास करता है, और यदि सोचता है कि प्रशंसा उचित अनुपात तक की जा रही है तो अपने आपको बेहतर बनाये रखने के लिए प्रयासरत रहता है।
कहने का अभिप्राय है कि गीता जड़ता की नहीं-बुद्घिशीलता, प्रगतिशीलता, निरन्तरता, प्रवाहमानता की समर्थक है। उसमें विज्ञानवाद है, रूढि़वाद नहीं है-वह सनातन है-प्रथाओं और परंपराओं की सड़ी गली व्यवस्था की द्योतक नहीं। इसी बात का उपदेश श्रीकृष्णजी अर्जुन को कर रहे हैं कि यदि तुझे भगवान का प्रिय बनना है तो ‘सर्वारम्भ परित्यागी’ बन।
हमारे यहां प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ में यज्ञादि के माध्यम से ‘श्रीगणेश’ की पूजा होती है। वास्तव में श्रीगणेश की पूजा का अभिप्राय किसी कार्य के शुभारम्भ करने से ही है। कहने का अभिप्राय है कि ‘श्रीगणेश’ पूजा करना अपने कार्यों को अहंकार को हटाकर ईश्वर को समर्पित कर देना है। श्रीगणेश की इस भाव से पूजा करना सनातनता है और उसे मिट्टी का बनाकर फिर उसको भोग लगाना आदि यह सड़ी गली व्यवस्था है, रूद्घिवाद है। जिसकी अनुमति गीता नहीं देती।
श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि अर्जुन! मेरा प्रिय भक्त जो होता है वह न तो हर्ष करता है, न द्वेष करता है और न दु:ख मानता है। वह आशाएं नहीं बांधता, (ख्याली पुलाव नहीं बनाता) वह ऐसा होता है कि भले बुरे दोनों का ही परित्याग कर चुका होता है। इस स्थिति को प्राप्त करना हर किसी के वश की बात नहीं होती। इस अवस्था तक जो लोग चले जाते हैं-वे संसार के विरले और निराले लोग होते हैं। हर स्थिति में समभाव बनाकर चलना और लोगों को गले लगाकर चलना भारतीय संस्कृति का अद्भुत और निराला गुण है, मूल्य है।
श्रीकृष्णजी यहां अपने भक्त में जितेन्द्रियता का दर्शन कर रहे हैं। वह उसे जितेन्द्रिय होने का उपदेश कर रहे हैं। क्योंकि हर्ष न करना, द्वेष न करना, दु:ख न मानना आदि ये उसी व्यक्ति के भीतर आते हैं जो जितेन्द्रिय होता है।
द्वेष से कोसों दूर हो करे नहीं कभी हर्ष।
आशाएं न बांधता होता उसका उत्कर्ष।।
श्रीकृष्णजी मान-अपमान, शील-उष्ण, सुख दु:ख में समान रहने वाले आसक्ति रहित शत्रु और मित्र को समभाव से देखने वाले को अपना प्रिय भक्त मानते हैं। इसका भी अर्थ यही है किउद्वेग रहित व्यक्ति जो किसी भी स्थिति परिस्थिति में अपना सन्तुलन नहीं खोता है-अविवेकी होकर पगलाता नहीं है, बौखलाता नहीं है-वह ईश्वर को प्रिय होता है।
हमारे यहां किसी की मृत्यु के उपरान्त उसे सम्मान देते हुए यही कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति ‘ईश्वर को प्यारे’ हो गये हैं। ‘ईश्वर के प्यारे’ होने की यह बात समाज को लोगों ने गीता के इसी प्रकरण से ली है। ईश्वर को वही लोग प्रिय होते हैं जो सत्कर्मी होते हैं, जिनका जीवन संयम, त्याग और तप की साक्षात प्रतिमा होता है। उन्हें ‘ईश्वर का प्यारा’ होने का सम्मान मिलता है।
अत: जब ‘ईश्वर का प्यारा’ होने की बात किसी व्यक्ति के विषय में उसकी मृत्यु के उपरान्त की जाती है तो उसका अभिप्राय यही होता है कि समाज के लोग उसके जीवन को सत्कर्मों का पुंज मानकर उसे सम्मानित करते हुए इस दिव्य उपाधि को प्रदान कर रहे होते हैं। मृत्यु में भी सम्मान देने और पाने की अनोखी और अनुपम परम्परा केवल भारत में ही है। जाने वाले को हर स्थिति में सम्मान देने का प्रयास लोग करते हैं। किसी के लिए कहते हैं कि उनका ‘शरीर पूरा हो गया’, किसी को कहते हैं कि वह ‘स्वर्गवासी’ हो गये। किसी के लिए कहते हैं कि वह ‘ऊपर चले गये’-इत्यादि।
श्रीकृष्णजी का उपदेश है कि अर्जुन! जो व्यक्ति निन्दा और स्तुति को सदा एक समान समझता है-निन्दा से बौखलाता नहीं है और स्तुति से फूलकर कुप्पा नहीं होता है, जो मितभाषी है-नपातुला सन्तुलित और मर्यादित बोलने का अभ्यासी है, जो कुछ मिल जाए-उसी से सदा सन्तुष्ट रहता है और आनन्द मनाता है जिसका कोई एक नियत ठिकाना नहीं-निवास स्थान नहीं, जिसकी बुद्घि स्थिर है जो भक्तिमान है, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है।
इस प्रकार के उपदेश के साथ गीता का 12वां अध्याय समाप्त हो जाता है।
जीवन की सार्थकता सगुण से निकलकर निर्गुण में प्रविष्ट हो जाने में है। जिसमें लोग खो जाना कहते हैं- वही तो पा जाने की स्पष्ट पहचान है। जब तक खोओगे नहीं, डूबोगे नहीं-भगवान के श्रीचरणों में समर्पित करने के लिए अपने आपको भूलोगे नहीं, तब तक अभीष्ट को नहीं पा सकोगे। ईश्वर का प्रेम पाने के लिए या उसका प्यारा होने के लिए सुधि खोनी पड़ेगी। जितने भर भी इस संसार के आविष्कारक वैज्ञानिक हुए हैं उन सबने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपने आपको खपाया है, मिटाया है, मिट्टी में मिलाया है। वे किसी गहरी झील में डूब गये और उतर गये गहराई में, ज्ञान की तली में जा बैठे और समय आने पर वही ‘मुकद्दर के सिकन्दर’ सिद्घ हुए। जिन्हें संसार के लोग डूबा हुआ मान रहे थे-वही जब बाहर आये तो अपने हाथों में बड़े भारी मूल्य के हीरे लिए हुए थे। बाहर आकर उन्होंने बताया कि उन्हें डूबकर अर्थात अपने इष्ट की उपासना को करते-करते उसके प्रति समर्पित होने की भक्ति की स्थिति में जो कुछ आनन्द मिला-वह वर्णनातीत है, शब्दातीत है। यह उदाहरण हमें बताता है कि हमें आनन्द सगुण से निकलकर निर्गुण में ही जाकर मिलेगा। हमारे यहां भक्ति की यही प्रक्रिया है कि स्थूल से सूक्ष्म की ओर चला जाए।