कश्मीर में गुमराह आतंकियों का आत्म-समर्पण : इरशाद माजिद खान

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प्रमोद भार्गव

जम्मू-कश्मीर में आतंकी पहलू बदलने के संकेत अच्छी खबर है। आतंकियों के मारे जाने और बहादुर सैनिकों के शहीद होने की खबरें तो पिछले ढाई दशक से रोज सुर्खियों में रही हैं। लेकिन बीते दिनों 20 वर्षीय गुमराह आतंकवादी इरशाद माजिद खान का आत्म-समर्पण घाटी में ऐसा संकेत है, जो भटके हुए युवकों को सही राह पर लाने की उज्जवल प्रेरणा बन सकती है। इस दृष्टि से दक्षिण कश्मीर में मानवता को बढ़ावा देने में जुटे मेजर जनरल वीएस राजू ने भी यह कहकर सकारात्मक संकेत दिया है कि ‘यदि भटके हुए युवक समर्पण करके मुख्यधारा में लौटते हैं तो उन्हें अपना कैरियर संवारने और प्रतिभा निखारने का पूरा अवसर दिया जाएगा। साथ ही आतंकी संगठन से जुड़ने के बाद यदि उन्होंने जो भी छोटे-मोटे अपराध किए हैं, उनके प्रति उदारता बरतते हुए नरम रुख अपनाया जाएगा।‘ सेना द्वारा इस तरह का संकेत देना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि केंद्र सरकार और सेना की कड़ाई के चलते पिछले तीन सालों में 190 आतंकवादी मारे गए हैं। इनमें से 110 पाकिस्तानी थे और 80 कश्मीर के युवक थे। बहरहाल यदि कश्मीर के भटके युवक इरशाद की पहल को प्रेरणास्रोत मानते हुए घर वापसी करते हैं तो पाक से निर्यात आतंक का खात्मा तय है।

इरशाद काॅलेज में फुटबाॅल का अच्छा खिलाड़ी था। किंतु कश्मीर के बिगड़े माहौल धर्म की अफीम चटा देने के कारण वह बहक गया और लष्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया। उसके आतंकवादी बनने की खबर मिलते ही मां-बाप जिस बेहाल स्थिति को प्राप्त हुए उससे इरशाद का हृदय पिघल गया और वह घर लौट आया। वैसे तो सोशल मीडिया अफवाह फैलाने में अहम् भूमिका निर्वाह करता है, किंतु जब इरशाद की मां की पीड़ा समाचार चैनलों और सोशल मीडिया पर जाहिर हुई तो मां के वात्सल्य के आगे दिमाग में बैठाया गया आतंकी वैमन्स्यता का पाठ तार-तार हो गया। नतीजतन इरशाद ने सेना के शिविर में पहुंचकर आत्म-समर्पण कर दिया। इस बदलाव से इस सोच को ताकत मिली है कि कश्मीर की घाटी में स्थाई शांति की पगडंडी उभर रही है। हालांकि इस समर्पण के बाद लष्कर-ए-तैयबा ने अपनी प्रतिक्रिया में हिा है कि इरशाद की मां की वेदना को ख्याल में रखते हुए इरशाद को घर वापसी की छूट दी गई है। हालांकि तैयबा के इस तरह नरम दिल हो जाने पर भी कई तरह की शंकाएं उभर रही हैं। क्योंकि किसी आतंकी के घर वापसी के संकेत मिलने पर अकसर आतंकी सरगना, उन्हें मौत की सजा दे देते हैं। इस सब के बावजूद गौरतलब है, यदि घाटी की मांएं अपनी भटकी संतानों को अपने अंतर की पीड़ा इरशाद की मां की तरह जताने लग जाएं तो घाटी के युवक आतंकी बनने से बचे रहेंगे।

 

दरअसल कश्मीरी युवक जिस तरह से आतंकी बनाए जा रहे हैं, यह  पाक का नापाक मंसूबा है। पाक की अवाम में यह मंसूबा पल रहा है कि ‘हंस के लिया पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिंदुस्तान।‘ इस मकसदपूर्ती के लिए मुस्लिम कौम के उन गरीब और लाचार युवाओं को इस्लाम के बहाने आतंकवादी बनाने का काम किया, जो अपने परिवार की आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए आर्थिक सुरक्षा चाहते थे। पाक सेना के भेष में यही आतंकी अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा को पार कर भारत-पाक सीमा पर छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। कारगिल युद्ध में भी इन छद्म बहरुपियों की मुख्य भूमिका थी। इस सच्चाई से पर्दा खुद पाक के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एवं पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के सेवानिवृत्त अधिकारी शाहिद अजीज ने ‘द नेशनल डेली अखबार‘ में उठाते हुए कहा था कि ‘कारगिल की तरह हमने कोई सबक नहीं लिया है। हकीकत यह है कि हमारे गलत और जिद्दी कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं।‘ कमोबेष आतंकवादी और अलगाववादियों की शह के चलते यही हश्र कश्मीर के युवा भोग रहे हैं। पाक की इसी दुर्वाभावना का परिणाम था कि जब 10 लाख का खंुखार इनामी बुरहान वानी भारतीय सेना के हाथों मारा गया, तो उसे शहीद बताने के बावत जो प्रदर्शन हुए थे, उनमें करीब 100 कश्मीरी युवक मारे गए थे।

कंेद्र सरकार और सेना का जो रुख इरशाद के परिप्रेक्ष्य में सामने आया है, उससे साफ है कि इन भटके युवाओं को राह पर लाने के के लिए केंद्र सरकार और सेना के साथ भाजपा भी चिंतित है। इस नाते भाजपा के महासचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने कश्मीर में उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने भटके युवाओं में मानसिक बदलाव की दृष्टि से कुछ समय पहले पटनीटाॅप में युवा विचारकों का एक सम्मेलन आयोजित किया था। इसे सरकारी कार्यक्रमों से इतर एक अनौपचारिक वैचारिक कोशिश माना गया था। बावजूद सबसे बड़ा संकट सीमा पार से अलगाववादियों को मिल रहा बेखौफ प्रोत्साहन है।    दरअसल राजनीतिक प्रक्रिया और वैचारिक गोश्ठियों में यह हकीकत भी सामने लाने की जरूरत है कि जो अलगाववादी अलगाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के बीबी-बच्चे कश्मीर की सरजमीं पर रहते ही नहीं हैं। इनके दिल्ली में घर हैं और इनके बच्चे देश के नामी स्कूलों में या तो पढ़ रहे हैं, या फिर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। इस लिहाज से सवाल उठता है कि जब उनका कथित संघर्ष कश्मीर की भलाई के लिए हैं तो फिर वे इस लड़ाई से अपने बीबी-बच्चों को क्यों दूर रखे हुए हैं ? यह सवाल हाथ में पत्थर लेने वाले युवा अलगाववादियों से पुछ सकते हैं ? घाटी में संचार सुविधाओं पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। अलगाववाद से जुड़ी जो सोशल साइटें हैं, युवाओं में भटकाव पैदा कर रही हैं। हालांकि इस मामले में सोशल मीडिया के परिणाम सकारात्मक निकले हैं।

 

दरअसल अटलबिहारी वाजपेयी कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत जैसे मानवतावादी हितों के संदर्भ में कश्मीर का सामाधान चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान के दखल के चलते परिणाम षून्य रहा। इसके उलट आगरा से जब परवेज मुषर्रफ पाकिस्तान पहुंचे तो कारगिल में युद्ध की भूमिका रच दी। अटलजी की नीति दो टूक और स्पष्ट नहीं थी। डाॅ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी इसी ढुलमुल नीति को अमल में लाने की कोशिश होती रही। वास्तव में जरूरत तो यह है कि कश्मीर के आतंकी फन को कुचलने और कश्मीर में शांति बहाली के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने जो पहल की है, वह आगे भी चलती रहे। आतंकियों के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाया जाए, किंतु जो आत्म-समर्पण के लिए आगे आएं, उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उदार रुख अपनाया जाए।

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