कश्मीरी छात्रों का जेएनयू में उत्पात

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jnnuकश्मीर को लेकर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में कश्मीरी अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों ने संसद पर हमले के दोषी रहे अफजल गुरू की तीसरी बरसी के अवसर पर जिस प्रकार भारत विरोधी नारे लगाये हैं, उन्हें लेकर सचमुच चिंता करने की आवश्यकता है। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रविरोधी हो उठना किसी भी देशप्रेमी के लिए असहनीय है। पूरे कैंपस को ही राष्ट्रविरोधी नारे लगा रहे इन विद्यार्थियों ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। जिससे विश्वविद्यालय कैंपस में पूर्णत: अराजकता की स्थिति ही उत्पन्न हो गयी थी।

जब देश में नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता को इस देश का राजधर्म बनाने का घृणास्पद प्रयास किया जा रहा था, तो जो लोग उस समय इस राष्ट्रविरोधी कार्य में लगे थे, यह घटना उसी प्रयास की एक फलश्रुति है। नेहरूवादी और गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता की विषेषता ही यह है कि दोहरे मानदण्ड अपनाओ। कमलेश तिवारी के लिए आप भाषण और अभिव्यक्ति को एक अभिशाप बतायें और ‘कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जंग-भारत की बर्बादी तक रहेगी जंग’ कहने वालों के प्रति आपके विचारों में परिवर्तन आ जाए। इस प्रकार की दोहरी मानसिकता के कारण कश्मीर को हमने अपने आपसे दूर ही किया है। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को विस्थापित कराके हमने कश्मीर को आतंकियों की शरणस्थली बना दिया है। सारा देश मोदी सरकार से यह अपेक्षा करता रहा है कि कश्मीर से पलायन कर गये हिंदू परिवारों का पुनर्वास और उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराने में मोदी सरकार निश्चय ही कोई ठोस नीति अपनाएगी।

नेहरू के समय में ही यदि देश में राष्ट्रविरोधी कार्य करने वालों के विरूद्घ कठोर नीति बना ली जाती और देश के विरूद्घ कुछ भी बोलने वालों को या देश के विरूद्घ खुली जंग की घोषणा करने वालों का कठोरता से दमन करने की घोषणा कर दी जाती तो आज यह देश सचमुच ‘विश्वगुरू’ बन गया होता। कारण कि हमने पिछले 68 वर्ष में नही अपितु 1906 में मुस्लिम लीग के जन्मकाल से ही राष्ट्रघाती साम्प्रदायिकता को रोकने में जितनी ऊर्जा का अपव्यय किया है उसी ऊर्जा को यदि सही दिशा में लगा दिया जाता तो देश को उससे बहुत लाभ मिलता।

देश की स्वतंत्रता से पूर्व ही वीर सावरकर ने देशभक्ति के प्रदर्शन का केवल एक मानदण्ड स्थापित किया था कि इस देश को अपनी पुण्यभूमि और पितृभूमि मानो और देशभक्त बनकर अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं का पालन करते रहो। पंडित नेहरू ने वीर सावरकर की इस बात को साम्प्रदायिकता माना। जबकि उनसे अपेक्षा थी कि सावरकर की इस नीति को राष्ट्र की नीति घोषित कर भारत में पंथनिरपेक्ष शासन और शासन व्यवस्था को राष्ट्रधर्म घोषित किया जाता। परंतु हमने ऐसा किया नही, फलस्वरूप राजनीति कभी राष्ट्रनीति  नही बन पायी, वह ‘खाजनीति’ अवश्य बन गयी। आज खाज की इसी बीमारी से देश लहूलुहान है। कश्मीर के छात्रों ने जे.एन.यू. में उपद्रव करके पुन: देश के सामने और देश की सरकार के सामने एक बड़ा ‘प्रश्नचिह्न’ बनाया है और उसके पौरूष को चुनौती दी है कि यदि साहस है तो बनाओ आतंकवाद के विरूद्घ एक कठोरनीति?

हमारे  राजनीतिक दलों में से अधिकांश ऐसे हैं जो भारत के और कश्मीर के इतिहास में हिंदू गौरव को उकेरने और उसे स्थापित करने के या तो विरोधी हैं, या फिर उस ओर से पूर्णत: आंखें बंद करके चलते रहने को ही अपने लिए उचित मानते हैं। इसका परिणाम यह आया है कि देश में कश्मीर के इतिहास को मुस्लिम बादशाहों-फकीरों सूफियों का प्रदेश बनाने वालों की नीतियां सफल होती जा रही हैं। जिससे एक भ्रांति निर्मित हो गयी है, या होती जा रही है कि कश्मीर तो प्राचीनकाल से ही हिंदुओं का नही है। भारत महान लोगों का देश है-पर इसका दुर्भाग्य यह है कि इसे आजादी के तुरंत पश्चात महान शासक नही मिले। इसे जो लोग शासक के रूप में मिले वे ऐसे थे जो अपने आपको हिंदू कहने में ही लज्जा का अनुभव करते थे और जो सोचते थे कि आर्य-हिन्दू इतिहास को जितना मिटाया जा सके उतना ही ठीक है। उनके इस प्रकार के प्रयासों के परिणाम स्वरूप देश में बीते वर्षों में ईसाईयत का बड़ी तेजी से प्रचार हुआ है। अंग्रेज परस्त लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और अंग्रेजी भाषा हम पर अंग्रेजों से भी बुरे ढंग से शासन कर रही है। यह भाषा हमें अपनी जड़ों से काटती जा रही है और हमें अपने धर्म संस्कृति एवं इतिहास को गाली देना सिखा रही है। फलस्वरूप बड़ी तेजी से ईसाई मिशनरीज देश में सक्रिय हो रही हैं। ये ईसाई मिशनरीज धड़ाधड़ धर्मांतरण कर हिंदू विनाश में लगी हैं। इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते देश में चुपचाप भविष्य की एक महान आपदा का निर्माण कर रही हंै। यदि हम नही संभले तो वह दिन दूर नही जब गांधी नेहरू के मानस पुत्र ही गांधी नेहरू को इस बात के लिए कोसेंगे कि उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष ही क्यों किया था-यदि अंग्रेज रहते तो देश का और भी शीघ्रता से विकास हो गया होता। तब देश की स्वतंत्रता का यह इतिहास जो कि हमें पढ़ाया जा रहा है भी त्याज्य कर दिया जाएगा और उसके साथ ही गांधी-नेहरू की अंत्येष्टि भी कर दी जाएगी। ऐसी कल्पनाओं से भी डर लगता है-परंतु क्या करें-जो दिख रहा है-उसे लिखना भी तो लेखनी धर्म ही है।

जे.एन.यू. में जो शिक्षा दी जा रही है वह गांधी-नेहरू के भारत की शिक्षा है। जिसमें भारत निर्माण का अभिप्राय ही यह है कि जहां जहां भारतीय राष्ट्रवाद की बातें हैं या भारतीय धर्म, संस्कृति और इतिहास को उठाने वाली या उन्हें मानवीय विरासत के रूप में स्थापित कराने वाली बातें हैं, उन्हें छोड़ दो। आज की राजनीति का घिनौना स्वरूप तो देखिए कि जब मोदी शांति के साथ ‘सबको साथ और सबका साथ’ लेकर चलने की नीति पर कार्य कर रहे हैं तब कुछ राजनीतिज्ञ ही उन्हें असफल करने की ऐसी नीतियों का कपट जाल बुन रहे हैं कि उनका ध्यान भंग हो जाए और बौखलाकर वह कोई ऐसा निर्णय ले जायें जो विपक्ष को गोधरा जैसा कोई हथियार उपलब्ध करा दे। हमारा मानना है कि जे.एन.यू. की घटना को इस दृष्टिकोण से भी देखने की आवश्यकता है। यदि ऐसा नही है तो देश के सभी राजनीतिक दलों को एक साथ एक स्वर से आतंकवादी मानसिकता और राष्ट्र विरोधी शक्तियों के विरूद्घ एक कारगर राष्ट्रीय नीति का निर्माण करने के लिए आगे आना चाहिए। हमें स्मरण रखना चाहिए कि यदि हिंदू की शांत मानसिकता को इस देश का राजनीतिक संस्कार बना दिया जाए तो यह देश शीघ्र ही ‘विश्वगुरू’ बन जाएगा। यह हिंदू ही है जो देश की राजनीतिक शक्ति को केवल सकारात्मक दिशा में व्यय करने के लिए उचित परिवेश बनाता है। बिलकुल वैसे ही जैसे कि जापान के लोगों ने वहां की सरकार को विकास के लिए शांति के साथ काम करने दिया है जिसके कारण जापान विश्व में एक दृढ़ इच्छा शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकता है। जबकि इस्लामिक देशों में हम केवल कलह और मारकाट देखते हैं, जिससे कोई भी इस्लामिक देश विश्वशक्ति नही बन पाया है। भारत विश्वशक्ति बन सकता है यदि हिन्दू संस्कारों को राजधर्म बना लिया जाए और नही भी बन सकता है यदि इस्लामिक आतंकवाद से यहां की सरकारें दोहरी नीतियों के साथ निपटाने का प्रयास करती रहीं।

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  1. राकेश कुमार आर्य जी द्वारा लिखा आलेख, “कश्मीरी छात्रों का जेएनयू में उत्पात” को सरसरी नज़र से देखने भर से मैं इतना भावुक हो चुका हूँ कि अस्थिर मन निबंध को एकाग्रचित्त पढ़ नहीं पा रहा हूँ| जेएनयू में हुई घटना में कश्मीरी छात्रों के जुड़ाव को पहले से न जानते हुए मैंने निबंध के शीर्षक से केवल “जेएनयू” और “छात्रों” शब्दों को गूगल करते assam123 dot com पर “जेएनयू छात्र संघ के समर्थन में कूदी चालीस यूनिवर्सिटियां” में प्रस्तुत समाचार “…फेडरेशन सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी टीचर्स असोसियेशन अध्यक्ष नंदिता नारायण ने कहा है कि चालीस सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, जिनमें हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी भी शामिल है, जेएनयू छात्रों के समर्थन में आ गए हैं|” में राष्ट्रद्रोह की झलक मुझे विस्मित किये हुए है| जबकि मीडिया इस घटना में राष्ट्रवादी वर्ग को दोषी ठहरा प्रकट रूप से प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय सरकार की भर्त्सना कर रहा है, लेखक द्वारा यह महत्वपूर्ण प्रासंगिक निबंध स्थिति पर नियंत्रण लाने हेतु मोदी-शासन में अधिकारी-तंत्र के लिए नीतिगत दिशा निर्देश करने में सहायक हो सकता है|

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