वीरेन्द्र सिंह परिहार
देश विभाजन के वक्त पाकिस्तान से जम्मु कश्मीर में आए 7 लाख हिन्दू शरणार्थी जो अब 50 लाख से ऊपर हो चुके है, सन् 1947 से लेकर अभी तक अमानवीय परिस्थितियों में जीने को बाध्य हैं। उन्हें देश की नागरिकता तो प्राप्त है लेकिन जम्मू कश्मीर की नागरिकता प्राप्त नहीं है। स्थिति यह है कि वह शरणार्थी कैम्पों में रहने की बाध्य हैं। कुल मिलाकर उनके पुर्नवास की कोई ठोस पहल नही की गई। अब जब सरकार ने इन शरणार्थियों को पहचान पत्र देने की फैसला किया है, क्योंकि उनके पास अपनी पहचान को साबित करने के लिये कोई प्रमाण-’पत्र या दस्ताबेज नही है। लेकिन सरकार के इस कदम का वहां के अलगाववादी एवं साम्प्रदायिक तत्व पूरी ताकत से विरोध कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह सहज ही समझा जा सकता है कि जब इन शरणार्थियों को पहचान-पत्र देने पर इतना बवाल मचाया जा रहा है, तो नागरिकता देने पर परिणाम का अंदाजा लगाया जा सकता है। अलगाववादी ओर मुस्लिम साम्प्रदायिकता से भरपूर इन तत्वों का कहना है कि कश्मीर घाटी मे मुस्लिम स्वरूप बदलाव नही आने दिया जायेगा। इससे यह समझा जा सकता है कि जिसे वहां कश्मीरियत कहा जाता है, वह वस्तुतः साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम है। यह इससे भी सिद्ध है कि वहां म्यामांर से आने वाले रोहिग्या मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, और वह जम्मू तथा आस-पास के इलाकों में बस भी रहे है, पर कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को इसमें कोई एतराज नही है। इसका आशय है कि जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह से इस्लामिस्तान बनाने की तैयारी चल रही है। तभी तो घाटी से निष्कासित तीन लाख हिन्दुओं की वापसी एक जटिल पहेली बन गई है। स्थिति यह है कि बांग्लादेश में जहाँ 1947 में 24 प्रतिशत हिन्दु थे वहां मात्र 8 प्रतिशत हिन्दु बचे हैं। इसी तरह पाकिस्तान में 10 प्रतिशत की जगह सम्भवतः 1 प्रतिशत भी नहीं बचे हैं। आए दिन इन दोनो ही देशों में हिन्दुओं के साथ कैसा व्यवहार होता है यह सुनने को मिलता ही रहता है कि आए दिन उनके मंदिर तोड़े और जलाए जाते हैं, घरों को आग के हवाले कर दिया जाता है। राह चलते हिन्दुओं का अपहरण हो जाता है, घरों से जवान लड़कियों को उठा लिया जाता है। फलतः उनके पास भारत की ओर भागने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता। पर यह तो दूसरे देशों की बात है, स्वतः भारत में खास तौर पर कश्मीर में हिन्दुओं के साथ घोर अत्याचार हुआ है, कश्मीर घाटी एक तरह से हिन्दु विहीन हो गई है। सिर्फ कश्मीर घाटी में नहीं देश के उन हिस्सों में जहाँ भी हिन्दु अल्पसंख्यक हो गये है-तरह-तरह के अत्याचारों के शिकार हो रहे हैं। कुछ महीने पूर्व उत्तरप्रदेश के कैराना और दूसरी जगहों में हिन्दुओं को अपना घर-व्यवसाय छोड़कर पलायन करना पड़ा-यह सभी को पता चल चुका है। पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में जहाँ बंाग्लादेशियों की घुसपैठ के चलते हिन्दु अल्पमत् में आ गए हैं वहां हिन्दुओं पर अत्याचार की घटनाए आये दिन सुनने को मिलती ही रहती है जिसका नतीजा यह है वहां के हिदू अपनी जमीन जायदाद औने-पौने दामों मे बेचकर भागने को बाध्य है। बिडम्बना यह कि पश्चिम बंगाल मे मुस्लिम जनसंख्या 27 प्रतिशत हो चुकी है। जिनके वोट बैंक के चलते ममता सरकार का रवैया पूरी तरह मुस्लिम पक्षधरता का है। गत जनवरी माह में मालदा में और अभी हाल में कलकत्ता से 20 किमी. दूरी मात्र में जो हुआ वह रोगटे खड़े कर देने वाला है।
जैसा ऊपर बताया गया है कि जम्मू-कश्मीर मे पाकिस्तान से आए ये हिंदू शरणार्थी लोकसभा में चुनाव में तो बोट डाल सकतें है पर विधानसभा चुनाव में मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते। विधानसभा तो दूर की बात है वह पंचायत चुनाव में भी मताधिकार के पात्र नहीं हैं। ये राज्य में कोई सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, इनके बच्चे प्रोफेशनल स्कूल में नहीं पढ सकते, नौकरी पाना तो दूर की बात है। एसी स्थिति में जब इन निरीह हिन्दुओं को सरकार ‘पहचान-पत्र’ देने का निर्णय लेती है तो इतना ’’हाय तौबा’’ मचाया जा रहा है। दूसरी तरफ जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था तो लाखों तिब्बती शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में आए और उन्हें तत्काल वहां की नागरिकता भी दे दी गई इसी तरह से चीन के सिक्यांग प्रान्त से आए हजारो मुस्लिम शरणथियो को भी वहां नागरिकता प्रदान कर दी गई। जिन रोहिग्या मुस्लिमानो को वहां हाल में बसाया जा रहा है,उन्हें भी शीघ्र वहां की नागरिकता से नवाज दिया जायेगा-यह पूरी तरह प्रत्याशित है। लेकिन 47 से पहले जो हिदूं इस देश के ही नागरिक थे ,उनके साथ ऐसा भेद-भाव! एक सच्चाई यह भी है कि सिर्फ पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की ही यह दुर्दशा नहीं है बल्कि 1947 में पाकिस्तानी कबाइलियों के आक्रमण के समय पाक अधिकृत कश्मीर से आए 10 लाख हिन्दुओं की भी हालत कमोवेश ऐसी ही है। जब कि देश का सर्वोच्च न्यायालय रिट पिटीशन न. 7698/1982 के संदर्भ में 20.02.1987 को यह निर्णय दे चुका है कि जम्मू-कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम तथा ग्राम पंचायत अधिनियम में जम्मू-कश्मीर सरकार को बदलाव करते हुए आये शरणार्थियों का नाम निर्वाचक नामावली में लिखा जाना चाहिए। लेकिन इतने सालों बाद इस दिशा में कुछ नही किया गया।
दिनाॅक 9.5.2007 को केन्द्र सरकार द्वारा गठित बाधवा समिति यह अनुशंसा कर चुकी है कि इन शरणार्थियों को स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र दिया जाना चाहिए, इनकी बुनियादी सुविधाओं के लिए फण्ड उपलब्ध कराया जायें, एस.सी., एस.टी. तबके के लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जायें, बी.पी.एल. योजना का लाभ दिया जायें। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान से आए शरणार्थियों में 75 प्रतिशत एस.सी. तब के हैं। पर इनके लिए देश का कानून लागू नहीं है। भयावह स्थिति यह कि इस मुद्दे पर मुस्लिम वोट बैंक के चलते तथाकथित धर्मनिर्पेक्षतावादियों ने कभी धोखे से भी जुबा नहीं खोली। अब जब बाधवा कमेटी की अनुशंसा को सरकार लागू करने जा रही है तो कश्मीरियत के नाम पर साम्प्रदायिकता का विष घोला जा रहा है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार सिर्फ इन्हें पहचान पत्र ही नहीं प्रदान करेगी, बल्कि जम्मू-कश्मीर के ये साधिकार नागरिक बन सके इस दिशा में भी कदम उठाएगी। इतना ही नहीं कश्मीर-घाटी के लाखों हिन्दू शरणार्थी जो दिल्ली और दूसरी जगहों में शरणार्थी जीवन जीने को बाध्य हैं-उनकी वापिसी के लिए प्रभावी कदम उठाएगी। लोगों को यह भी पता होगा कि अभी कुछ वर्षों पूर्व जब अमरनाथ यात्रा के लिए समय बढाया गया था, तो उसमें कितना हंगामा खड़ा किया गया था। यहाॅ तक आरोप लगाया गया था कि इस तरह से हिन्दू जनसंख्या रहने के कारण तत्काल इस दिशा में प्रभावी कदम भले न उठाए जा सके, पर आनेवाले दिनों में ऐसे तत्वों को यह समझ में आ जाना चाहिए कि कश्मीरियत या किसी किस्म की क्षेत्रीय पहचान भारतीयता यानी राष्ट्रवाद के ढाॅचे में ही संभव है।