कृषि-ओद्यौगिक विकास का आधार बनेगी केन-बेतवा नदी परियोजना

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संदर्भ- केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना को मिली धनराशि

प्रमोद भार्गव

                केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना को भारत सरकार से स्वीकृति मिलने के बाद इसकी सभी बाधाएं दूर हो गई हैं। नतीजतन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली केंद्रीय मंत्रीमण्डल की बैठक में इस परियोजना को जमीन पर उतारने के लिए 44,605 करोड़ रुपए की राशि देने का प्रावधान कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने नदी जोड़ो अभियान की जो परिकल्पना की थी, उसे  नरेंद्र मोदी ने साकार कर दिया है। मोदी की मौजदूगी में मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने देश की पहली अंतरराज्यीय नदी जोड़ों परियोजना के तहत केन और बेतवा नदियों को जोड़ने वाले समझौता-पत्र पर पहले ही हस्ताक्षर कर दिए हैं। यह मंजूरी जल शक्ति अभियान ‘कैच द रन’ के तहत अमल में लाई जाएगी। साफ है, इस परियोजना से कृषि तो फले-फूलेगी ही, कृषि आधारित उद्योग भी पनपेंगे और लाखों लोगों को रोजगार उपलब्ध होगा।

बाढ़ और सूखे से परेशान देश में नदियों के संगम की परियोजना मूर्त रूप लेने जा रही है, यह देशवासियों के लिए प्रसन्नता की बात है। 5500 अरब रुपए की इस परियोजना को जोड़ने का अभियान सफल होता है तो भविष्य में 60 अन्य नदियों के मिलन का रास्ता खुल जाएगा। दरअसल बढ़ते वैश्विक तापमान, जलवायु परिवर्तन और बदलते वर्षा चक्र के चलते जरूरी हो गया है कि नदियों के बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जाए और फिर उसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में नहरों के जरिए भेजा जाए। ऐसा संभव हो जाता है तो पेयजल की समस्या का निदान तो होगा ही, सिंचाई के लिए भी किसानों को पर्याप्त जल मिलने लग जाएगा। वैसे भी भारत में विश्व की कुल आबादी के करीब 18 प्रतिशत लोग रहते हैं और उपयोगी जल की उपलब्धता महज 4 प्रतिशत है। हालांकि पर्यावरणविद् इस परियोजना का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि नदियों को जोड़ने से इनकी अविरलता खत्म होगी, नतीजतन नदियों के विलुप्त होने का संकट बड़ा जाएगा।

कृत्रिम रूप से जीवनदायी नर्मदा और मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदियों को जोड़ने का काम मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान पहले ही कर चुके हैं। चूंकि ये दोनों नदियां मध्य-प्रदेश में बहती थीं, इसलिए इन्हें जोड़ा जाना संभव हो गया था। केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की तैयारी में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारें बहुत पहले से जुटी थीं। इस परियोजना को वर्ष 2005 में मंजूरी भी मिल गई थी, लेकिन पानी के बंटवारे को लेकर विवाद बना हुआ था। उप्र को रबी फसल के लिए 547 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) और खरीद फसल के लिए 1153 एमसीएम पानी देना तय हुआ था। मुख्य विवाद रबी फसल के लिए पानी देने को लेकर था। अप्रैल 2018 में उप्र ने इस फसल के लिए 700 एमसीएम पानी की मांग रखी, जो बाद में 788 एमसीएम तक पहुंच गई। इस पर सहमति बनती इससे पहले उप्र ने जुलाई 2019 में पानी की मांग बढ़ाकर 930 एमसीएम कर दी। मप्र इतना पानी देने को तैयार नहीं हुआ, लिहाजा विवाद बना रहा। किंतु अब केंद्र और दोनों प्रदेशों की सरकारें भारतीय जनता पार्टी की होने के चलते 35,111 करोड़ रुपए की इस परियोजना को मंजूरी मिल गई है। परियोजना में पांच-पांच फीसदी राशि राज्य सरकारें खर्च करेंगी और 90 प्रतिशत की बड़ी राशि केंद्र सरकार देगी।

                केन नदी जबलपुर के पास कैमूर की पहाड़ियों से निकलकर 427 किमी उत्तर की और बहने के बाद बांदा जिले में यमुना नदी में जाकर गिरती है। वहीं बेतवा नदी मध्य-प्रदेश के रायसेन जिले से निकलकर 576 किमी बहने के बाद उत्तर-प्रदेश के हमीरपुर में यमुना में मिलती है। केन-बेतवा नदी जोड़ो योजना की राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण (एनडब्ल्यूडीएद्ध की रिपोर्ट के अनुसार डोढ़न गांव के निकट 9000 हेक्टेयर क्षेत्र में एक बांध बनाया जाएगा। इसके डूब क्षेत्र में छतरपुर जिले के बारह गांव आएंगे। इनमें पांच गांव आंशिक रूप से और सात गांव पूर्ण रूप से डूब में आएंगे। कुल 7000 लोग प्रभावित होंगे। इन्हें विस्थापित करने में इसलिए समस्या नहीं आएगी, क्योंकि ये ग्राम जिन क्षेत्रों में आबाद हैं, वे पहले से ही वन-सरंक्षण अधिनियम के तहत अधिसूचित हैं। इस कारण रहवासियों को भूमि-स्वामी होने के बावजूद जमीन पर खेती से लेकर खरीद-बिक्री में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए ग्रामीण यह इलाका मुआवजा लेकर आसानी से छोड़ देंगे। ऐसा दावा प्राधिकरण की रिपोर्ट में किया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि इन ग्रामों में कमजोर आय वर्ग और अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। इन लाचारों को समर्थों की अपेक्षा विस्थापित करना आसान होता है।

 इस परियोजना के बहुआयामी होने के दावे किए जा रहे हैं। बांध के नीचे दो जल-विद्युत संयंत्र लगाए जाएंगे। 220 किलोमीटर लंबी नहरों का जाल बिछाया जाएगा। ये नहरें छतरपुर, टीकमगढ़ और उत्तरप्रदेश के महोबा एवं झांसी जिले से गुजरेंगी। जिनसे 60,000 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई होगी। विस्थापन और पुनर्वास के लिए 213.11 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ेेगी, जिसका इंतजाम मंजूरी के साथ केंद्र सरकार ने कर दिया है। बावजूद देश में आज तक विस्थापितों का पुनर्वास और मुआवजा किसी भी परियोजना में संतोषजनक नहीं हुआ है। नर्मदा बांध की डूब में आने वाले हरसूद के लोग आज भी मुआवजे और उचित पुनर्वास के लिए भटक रहे हैं। कमोबेश यही अन्याय मध्य-प्रदेश के ही कूनो-पालपुर अभ्यारण्य के विस्थापितों के साथ हुआ है।

                डीपीआर के मुताबिक उत्तर-प्रदेश को केन नदी का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य-प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा। परियोजना के दूसरे चरण में मध्य-प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में नहरें बिछाकर सिंचाई के इंतजाम करेगा। ऐसा कहा जा रहा है कि इन प्रबंधनों से केन में अकसर आने वाली बाढ़ से बर्बाद होने वाला पानी बेतवा में पहुंचकर हजारों एकड़ खेतों में फसलों को लहलहाएगा। मध्य-प्रदेश का यही वह मालवा क्षेत्र है, जहां की मिट्टी उपजाऊ होने के कारण सोना उगलती है। इस क्षेत्र में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो जाता है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि खेत साल में 2 से लेकर 3 फसलें तक देनें लग जाएंगे ? लेकिन मालवा की जो बहुफसली भाूमि बांध और नहरों में नष्ट होगी, उससे होने वाले नुकसान का आकलन प्राधिकरण के पास नहीं है ?

                देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना स्वतंत्रता प्राप्ती के तुरंत बाद देखा गया था। इसे डॉ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, डॉ राममनोहर लोहिया, अटलबिहारी वाजपेयी और डॉ एपीजे अब्दुल कलाम जैसी हस्तियों का समर्थन मिलता रहा है। हालांकि परतंत्र भारत में नदियों को जोड़ने की पहली पहल आॅर्थर कॉटन ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में की थी। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिकंजे को और मजबूत करने के साथ, बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन भी था। क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों की संरचना पहले चरण में थी, इसलिए अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे। हालांकि आजादी के बाद 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा अभियंता डॉ कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा-कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव भी बनाया था। राव खुद जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे थे। लेकिन जिन सरकारों में राव मंत्री रहे,उन सरकारों ने इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को कभी गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि ये प्रधानमंत्री जानते थे कि नदियों को जोड़ना आसान तो है ही नहीं, यदि यह परियोजना अमल में लाई जाती है, तो नदियों की अविरलता खत्म होने की आशंका भी इन दूरदृष्टाओ को थी।

                करीब 13500 किमी लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुईं मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहूमूल्य वरदान बनी हुई हैं। 2528 लाख हेक्टेयर भू-खण्डों और वन प्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति 690 घनमीटर जल है। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती हैं। यदि नदियां जोड़ अभियान के तहत केन-बेतवा नदियां जुड़ जाती हैं तो इनकी अविरल बहने वाली धारा टूट सकती है। ‘उत्तराखण्ड में गंगा नदी पर  टिहरी बांध बनने के बाद एक तरफ तो गंगा की अविरलता प्रभावित हुई, वहीं दूसरी तरफ पूरे उत्तराखण्ड में बादल फटने और भूस्खलन की आपदाएं बढ़ गई हैं। गोया, नदियों को जोड़ने से पहले टिहरी बांध के गंगा पर पड़ रहे प्रभाव और उत्तराखण्ड में बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं का भी आकलन करना जरूरी है ? हालांकि केन और बेतवा का प्रवाह ज्यादातर मैदानी क्षेत्रों में है, इसीलिए यहां उत्तराखंड जैसे हालात कभी नहीं बनेंगे । बावजूद बुंदेलखण्ड में जो 4000 तालाब हैं, उन्हें और उनमें मिलने वाली जलधाराओं को संवारा जाए ? इस काम में धन भी कम खर्च होगा और एक-एक कर तालाबों को संवारने में समय भी कम लगेगा। इनके संवरते ही पेयजल व सिंचाई की सुविधाएं भी तत्काल बुंदेलखण्डवासियों को मिलने लग जाएंगी, क्योंकि ज्यादातर तालाब नहरों से पहले से ही जुड़े हुए हैं। हालांकि किसी काल्पनिक डर के चलते किसी महत्वाकांक्षी परियोजना पर ज्यादा शंका-कुशंकाएं न करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है।

परियोजना की बाधाएं

 इस परियोजना में वन्य जीव समिति बड़ी बाधा के रूप में पेश  आ रही है, यह आशंका भी जताई जा रही है कि परियोजना पर क्रियान्वयन होता है तो नहरों एवं बांधों के लिए जिस उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, वह नष्ट हो जाएगी। इस भूमि पर फिलहाल जौ, बाजरा, दलहन, तिलहन, गेहूं, मूंगफली, चना जैसी फसलें पैदा होती हैं। इन फसलों में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। जबकि ये नदियां जुड़ती हैं, तो इस पूरे इलाके में धान और गन्ने की फसलें पैदा करने की उम्मीद बढ़ जाएगी। परियोजना को पूरा करने का समय 9 साल बताया जा रहा है। लेकिन हमारे यहां भूमि अधिग्रहण और वन भूमि में स्वीकृति में जो अड़चनें आती हैं, उनके चलते परियोजना 20-25 साल में भी पूरी हो जाए तो यह बड़ी उपलब्धि होगी ?

दोनों प्रदेशों की सरकारें दावा कर रही हैं कि यदि ये नदियां परस्पर जुड़ जाती हैं तो मध्य-प्रदेश और उत्तर-प्रदेश के सूखाग्रस्त बुंदेलखण्ड क्षेत्र में रहने वाली 70 लाख आबादी खुशहाल हो जाएगी। यही नहीं नदियों को जोड़ने का यह महाप्रयोग सफल हो जाता है तो अन्य 60 नदियों को जोड़ने का सिलसिला भी शुरू हो सकता है ? नदी जोड़ों कार्यक्रम मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है। इस परियोजना के तहत उत्तर-प्रदेश के हिस्से में आने वाली पर्यावरण संबंधी बाधाओं को दूर कर लिया गया है। मध्य-प्रदेश में जरूर अभी भी पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाधा बना हुआ है और जरूरी नहीं कि जल्दी यहां से मंजूरी मिल जाए ? वन्य जीव समिति इस परियोजना को इसलिए मंजूरी नहीं दे रही है, क्योंकि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाघों के प्रजनन, आहार एवं आवास का अहम् वनखंड है। इसमें करीब 28 बाघ बताए जाते हैं। अन्य प्रजातियों के प्राणी भी बड़ी संख्या में हैं। हालांकि मध्य-प्रदेश और केंद्र में एक ही दल भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा उम्मीद की जा सकती है कि बाधाएं जल्दी दूर हो जाएं ?

 प्रमोद भार्गव 

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