कुमारिल आचार्य द्वारा नास्तिक मतों के खण्डनार्थ स्वामी शंकाराचार्य जी के लिए सड़क बाधंना

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kumaril-bhattमनमोहन कुमार आर्य

महाभारत काल के बाद वैदिक धर्म में आयी भ्रान्तियों के परिणामस्वरुप यज्ञों में पशु हिंसा एवं मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था ‘वर्ण व्यवस्था’ का वेदों व शास्त्रों की मूल भावना के अनुसार पालन न होने के कारण बौद्ध व जैन मत का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अंहिसा को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया। इस बात को दृष्टि से ओझल कर दिया कि अहिंसा का कहां प्रयोग होना चाहिये और कहां नहीं। बौद्ध व जैन मतों का अहिंसा का सिद्धान्त वेद, तर्क और युक्ति पर आधारित न होने के कारण इससे देश अपना अतीत का शौर्य व गौरव भूल कर निर्बल हो गया और शत्रुओं को आसानी से विजय दिलाने वाला बन गया। अहिंसा का प्रयोग निर्बल, धार्मिक, सज्जन पुरुषों सहित मूक पशुओं व पक्षियों आदि पर किया जाना उचित होता है परन्तु दुष्ट मनुष्यों व देशों को यथायोग्य व्यवहार व नीतियों से ही वश में किया जा सकता है अन्यथा दुष्टों के प्रति अहिंसा के परिणाम घातक होते हैं। हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान व चीन आदि के अतीत और वर्तमान के व्यवहारों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि भारत की अहिंसा की नीति के ही कारण इन देशों द्वारा हमारे देश के विरुद्ध आक्रमण व अवांछनीय कार्यवाहियां की जाती रहीं है व अब भी की जा रही हैं। इजराइल, अमेरिका, रुस व चीन के उदाहरण हमारे सामने हैं। मुख्यतः पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध हिंसा की नीति पर दृष्टि डालें तो लगता है कि वह हमारी कमजोरियों के कारण ही ऐसा करता आ रहा व कर रहा है। संसार के अमेरिका, इजराइल, रुस व चीन आदि देशों के विरुद्ध इस प्रकार के षडयन्त्र एवं हिंसा की घटनायें करने का कोई देश व संगठन साहस नहीं कर सकता। इसका कारण इन देशों की अहिंसा के विरुद्ध अपराधियों को भयंकर दण्ड देने की नीति है। इसी का अनुसरण भारत को भी करना चाहिये, तभी भारत एक सुरक्षित व बलवान देश बनकर अपने सैनिकों व नागरिकों को सुरक्षित जीवन दे सकता है।

बौद्ध व जैन मत के आविर्भाव से देश में सच्चे ईश्वर की उपासना अप्रचलित व न्यून होकर महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी और जैनधर्म के तीर्थकंरों की मूर्तियों की पूजा आरम्भ हो गई थी। इन मतों ने सच्चिदानन्द सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, मनुष्यों व प्राणियों के कर्मफल दाता ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया। इनका मत था कि यदि ईश्वर होता तो गाय, बकरी, घोडे व भेड़ की वैदिक यज्ञों में हिंसा न होने देता। गोहत्या के विरोध में स्वामी दयानन्द जी ने भी गोकरुणानिधि पुस्तक में ईश्वर से इनकी हिंसा न रोकने की शिकायत की है। इसके बावजूद भी वह ईश्वर को वेद की मान्यताओं के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक मानते रहे। अतः ईश्वर के अस्तित्व विषयक नास्तिकता को मिटाने के लिए कुमारिल स्वामी जी ने शास्त्रार्थ द्वारा बौद्ध व जैन मत के पराभव के लिए प्रशंसनीय कार्य किया। इसका विवरण ऋषि दयानन्दभक्त राव साहब रामविलास शारदा ने ऋषि दयानन्द की जीवनी ‘आर्य धर्मेन्द्र जीवन’ में दिया है। ‘कुमारिलाचार्य ने शंकराचार्य के लिये सड़क बांध दी’ शीर्षक के अन्तर्गत वह लिखते हैं कि जब बौद्धमत अपने जीवन के अन्तिम दिन भोग रहा था उस समय जिस देशहितैशी ने भारत सन्तान की रुचि ईश्वर और वेद की ओर कराई उसका नाम स्वामी कुमारिलाचार्य (कुमारिल भट्ट अथवा भट्टपाद नामों से भी यह जाने जाते हैं) था। कुमारिल स्वामी ने बौद्धमत का युक्ति और प्रमाण से उत्तम रीति से खण्डन किया। गौड़ पादाचार्य ने जो उपनिषद् पर कारिका लिखी है और जिनमें उसने मायावाद दर्शाया है उसी मायावाद के शस्त्र को लेकर कुमारिल स्वामी बौद्ध पण्डितों के पराजय के लिए निकल पड़े। जिस समय इन्होंने शास्त्रार्थ करना आरम्भ किया उस समय जैन लोग बुद्धिहीन हो रहे थे। कुमारिल स्वामी के जीवन चरित्र में ऐसे दृष्टान्त बहुत मिलते है जिनसे पाया जाता है कि बौद्ध पण्डित चमत्कार (करामात) के मानने वाले बन रहे थे, जब कुमारिलाचार्य ने इनके साथ शास्त्रार्थ किया, उस समय बौद्ध लोगों ने अपनी मूर्खता प्रकट करते हुए इनसे चमत्कार मांगे (चमत्कार करने को कहा)। चाहिये तो यह था कि जैनी पण्डित युक्ति वा शास्त्र का प्रमाण मांगते परन्तु बड़े-बड़े पण्डितों ने चमत्कार ही मांगे।

थोड़े ही समय तक प्रचार करने से कुमारिलाचार्य ने लोगों के कई संशय मिटाकर उनको वेद और ईश्वर का भक्त बना दिया। जहां इनके प्रचार से लोगों की श्रद्धा वैदिक साहित्य की ओर बढ़ी वहां साथ ही गौड़ पादाचार्य का मायावाद (नवीन वेदान्त) फैल गया। बड़े-बड़े धनी और विद्वान् पुरुष कुमारिल स्वामी के अनुयायी बने। अमरावती का राजा भी इनका अनुयायी बन गया और देश में सर्वत्र आस्तिकपन की जयध्वनि हाने लगी। कुमारिलाचार्य अपना काम करते हुए परलोक सिधार गये और शंकराचार्य के लिये काम करने की सड़क बांध गये। शंकराचार्य ने उनके (कुमारिलाचार्य के) काम की पूर्ति की ओर युक्ति तथा शास्त्रार्थ का अद्भुत शस्त्र लिये हुए प्रसिद्ध जैनी पण्डितों पर विजय प्राप्त की। राजा सुधन्वा ने शंकर स्वामी को बहुत कुछ सहायता प्रचार मे की। शंकरस्वामी के उद्योग से अनेक जैनी लोग गायत्री मन्त्र पढ़ तथा यज्ञोपवीत धारण कर मानो शुद्ध होकर वैदिक धर्मी बन गये।

जो कार्य कुमारिल आचार्य और स्वामी शंकराचार्य जी ने अपने अपने समय में किया, लगभग वही और उससे भी कहीं अधिक कठिन व जटिल कार्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज बनाकर उन्नीसवीं शताब्दी में सफलतापूर्वक किया। संसार से अज्ञान व अविद्या हटा कर धर्म व संस्कृति को सत्य और विद्या की आधारशिला पर स्थापित करने का अपूर्व और महनीय कार्य उन्होंने किया है। इसी का परिणाम है कि आज देश स्वतन्त्र है, शिक्षा का प्रचार तेजी से हुआ व हो रहा है, देश अनेक बातों में आत्मनिर्भर है तथा वेद प्रचार के कारण देश में अन्धविश्वास, मिथ्यापूजा व कुप्रथायें कम व समाप्त हुई हैं।

उपर्युक्त पंक्तियों में स्वामी कुमारिल आचार्य और स्वामी शंकराचार्य के कार्यों के बारे में वर्णन किया गया है उससे बहुत से पाठक अपरिचित हैं। उनके ज्ञानार्थ ही हम इसे प्रत्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि यह विवरण पाठकों को पसन्द आयेगा।

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