बी. आर. कौण्डल
आखिर भारतीय संसद ने जन आक्रोश को ध्यान में रखते हुए किशोर न्याय विधेयक 2015 को पास कर ही दिया। अब राष्ट्रपति की मंजूरी के उपरान्त यह कानून की शक्ल ले लेगा। देर से ही सही लेकिन भारतीय संसद ने यह दुरूस्त कदम ले ही लिया है जोकि आज से तीन साल पहले लिया जाना चाहिए था। नए कानूनानुसार अब सोलह साल से अधिक उम्र के जघन्य अपराधियों पर भी चलेगा बालिगों जैसा केस। संसद का यह कदम सराहनीय है। उम्मीद है कि इस कानून के बनने से कुछ राहत अवश्य मिलेगी लेकिन एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या कानून बन जाने से भविष्य में निर्भय हो पाएगी निर्भया।
कहते है कि बच्चे के माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक होते है, तथा परिवार पाठशाला। लेकिन आज के भौतिकवाद में न तो माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय रह गया है और न ही परिवार का वह स्वरूप जिसे पाठशाला कहा जा सकता हो। माता-पिता दोनों काम पर घर से बाहर जाने के कारण बच्चों को संभालने की जिम्मेवारी नौकरों पर आ गई है जो उन्हें खाना-पीना तो उपलब्ध करवाते हैं लेकिन माता-पिता के संस्कार नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप बच्चे गलत आदतों के शिकार होते जा रहे हैं । आश्चर्य की बात यह है कि एक अध्ययन के अनुसार 86 प्रतिशत बच्चे अपराधों में वे सम्मिलित है जिनके माता-पिता हैं । केवल 6 प्रतिशत अपराध की दुनिया में वे प्रवेश करते है जिनके माता-पिता नहीं है। स्पष्ट है कि माता-पिता होने के बावजूद बच्चों को माता-पिता का प्यार व संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं। जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। यदि इस सामाजिक कुरीति को जड़ से उखाड़ना है तो माता-पिता को बच्चों के लिए समय देना होगा तथा परिवार की वह परंपरा कायम रखनी होगी जिस पर हमारा सामाजिक ढ़ाँचा टिका हुआ है।
केवल कठोर कानून बनाने से नाबालिगों के अपराधों में कमी नहीं आने वाली है। परंतु इसका मतलब यह भी नहीं की कठोर कानून नहीं होने चाहिए। परन्तु यह स्पष्ट है कि कहीं-न-कहीं समाज अपने दायित्व से चूक रहा है। अतः उसे अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
दरअसल यह समझने की जरूरत है कि किशोरों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकने और महिलाओं के प्रति हो रहे हर तरह के अपराधों पर लगाम लगाने के लिए घर परिवार के स्तर पर भी सजगता बरतने और उपयुक्त माहौल का निर्माण करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति तब होगी जब हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझेगा। बेहतर यह होगा की सामाजिक और शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ राजनीतिक दल भी इस दिशा में सक्रियता दिखाएं।
यदि परिवार व शिक्षण संस्थान अपने दायित्व को बखूबी निभाते है तो इस बात पर कोई संदेह नहीं की कठोर कानून अपना काम करेगा। जिसका जीता जागता उदाहरण हाल ही में हरियाणा राज्य की एक अदालत द्वारा निर्भया जैसे एक मुकदमे में सात लोगों को फांसी की सजा सुनाया जाना है। आने वाले समय में सोलह साल से अठारह साल की उम्र के किशोर जघन्य अपराधियों को उम्र कैद व फांसी की सजा तो नहीं हो पाएगी लेकिन इस बात पर अब मोहर लग चुकी है कि उन्हें भारतीय दंड संहिता की धाराओं के अंतर्गत फांसी व उम्र कैद के अलावा सजा दी जा सकेगी। केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी ने सही कहा है कि यह विधेयक बच्चों के विरूद्ध नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा, संरक्षण और संस्कार के लिए है। इसका मकसद किशोरों को जघन्य अपराध करने से रोकना है। जिसके लिए कानून में अनेक प्रावधान किए गए है। ताकि भविष्य में भारत की सभी बेटियाँ निर्भय हो सकें।
किशोर न्याय अधिनियम के संशोधन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि अठारह साल से नीचे के किशोरों द्वारा अपराध करने की सूरत में भी उनके मानवाधिकारों का हनन न हो सके। इसी उद्देश्य से हाल में किए संशोधन में यह प्रावधान किया गया है कि यदि कोई किशोर जघन्य अपराध करता है तो उसके विरूद्ध सामानय कानून के अन्तर्गत केस चलाने से पहले बच्चों से जुड़ी संस्था उसके मानसिक स्थिती के बारे में अपना मत रखेगी। लेकिन यह भी देखने की बात है कि कहीं कठोर कानून बनाने से दुष्कर्म की घटनाओं में बढ़ोतरी न हो, क्योंकि यह भी संभव है की अपराधी बलात्कार की कठोर सजा के चलते बच्चियों की हत्या करना ही अपने लिए सुरक्षित समझे। परन्तु बड़ा सवाल यह भी है कि कानून में बदलाव क्या किशोरों में इस बात का डर भी पैदा करेगा कि अगर उन्होंने अपराध किया और पकड़े गये तो कम उम्र होने का बहाना अब नहीं चलेगा। हालांकि पिछले दिनों न जाने ऐसे कितने अपराध सामने आ चुके है जिनमें सोलह साल से कम उम्र के किशेर भी जघन्य अपराध में संलिप्त रहे है। भविष्य में अब देखना यह है कि कानून ऐसे किशारे अपराधियों से कैसे निपटेगा।
क़ुदरत की गतिविधि में स्पर्धा नही दीखाई देती .. स्पर्धा मानव- रचित भौतिक वाद की उत्पत्ति भौतिक वाद से हुअी है.. क्या स्पर्धा के सिवा जीवन नही हो शकता ??