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भूमि अधिग्रहण की समस्या

डॉ. मधुसूदन —
(एक) उपलब्धि की कीमत:
प्रत्येक उपलब्धि की कीमत होती है। कुछ घाटा कुछ लाभ।
ऐसा कोई भी लाभ नहीं होता, जिसका कोई मूल्य (घाटा) चुकाना ना पडे।
जितनी भी सुविधाएँ आप प्राप्त करते हैं, बदले में, कुछ न कुछ देते हैं।
कठोर परिश्रम के मूल्य पर छात्र ज्ञानार्जन करता है, आगे बढता है। बिना परिश्रम आप मात्र **’बिना ज्ञान, झूठा प्रमाण-पत्र **’ पा सकते हैं।
सार्वजनिक रूप से; रेलमार्ग, महामार्ग, विमान-तल, बिजली,……इत्यादि सुविधाएँ आप भूमि पर ही कुछ न कुछ निर्माण  करके प्राप्त करते हैं। बिना भूमि आप ऐसी सुविधाएँ, कहाँ स्थापेंगे?

(दो) बहु मंज़िला निर्माण से, भूमि बहुगुणित:
वैसे, मनुष्य ने बहु मंज़िला निर्माणों की रचना से, भूमि को बहुगुणित किया है; एक के ऊपर एक दो ही मंजिलों से आप भूमि को दुगनी कर देते हैं। ऐसे छोटे से क्षेत्र क(५० मंजिले बनाकर)५० गुना भी किया जा सकता है। फिर भी कुछ भूमि की कीमत तो चुकानी ही पडती है।
उसी प्रकार, कुछ युक्तियाँ अवश्य अपनाई जा सकती हैं। जैसे, गुजरात में. मोदी जी ने,नर्मदा की नहर के ऊपर ही छत लगाकर, सौर ऊर्जा को बिजली में रूपांतरित करने की योजना सफल की है। सूर्य प्रकाश से कोई पर्यावरणीय हानि भी नहीं। जो भूमि अधिग्रहण से किया जा सकता था,उसे नहर के ऊपर बना दिया।
(क)भूमि बच गयी,
(ख)साथ पानी की भाँप बनकर,
(ग) पानी का अप-व्यय होना भी बच गया।
(घ) और बिजली उत्पादित हुयी।

पर संक्षेप में –कुछ न कुछ देते हैं, तो ही कुछ पाते हैं।
ऐसी कोई उपलब्धि बताइए,जिसमें  कुछ दिए बिना ही प्राप्ति हो जाती हो? ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।
(तीन) जनता की मानसिकता में बदलाव:

ऐसे व्यावहारिक बदलाव सफल होने के लिए, जनता की मानसिकता में बदलाव आवश्यक होता है। जब जनता जानकार भी होती है, तो, उसका निर्णय मह्त्व रखता है।

पर विरोधी पक्ष ही हमें भरमा रहे हैं। सामान्य भोले जन सोचने का ठेका राजनैतिक पक्षों को दे देते हैं। स्वयं सोचते नहीं है। तो ऐसे लोगों का कल्याण कैसे किया जाए? ऐसे, भोले जन घोषणाओं से, उक्तियों से, नारों से, और झटपट उपलब्धियों के वचनों से प्रभावित होते हैं। (दिल्ली विधान सभा चुनाव में क्या हुआ?)
उन्हें आम चाहिए, अभी के अभी।आम का बीज बोना नहीं है। तो फिर वादों वाली पार्टियाँ जीत जाती है। ६७ वर्षों से वादों पर जी रहे हैं। अंध निर्णय लिए जाते हैं।

ऐसे अंध निर्णयों से देश और भी पिछड जाता है।  रूपयों को छापकर भी समृद्धि नहीं आती। रुपया सस्ता हो जाता है।

(चार) भूमि अधिग्रहण का विरोध मौलिक नहीं।

विरोधी पक्ष देश-हित के बदले विरोध के लिए ही विरोध करे तो समस्या जटिल बन जाती है। सच्चा दीर्घकालीन हितकारी बदलाव घोषणाओं से, या लोक-लुभावन वचनों से नहीं किया जाता। जनता को भरमाया जा सकता है।

इस लिए, देश की जनता  दुविधा  में फँसी  है।
दुविधा इस लिए, कि, हमारे विचारक-चिन्तक-विद्वान-और सुशिक्षित हितैषी-गण भी इस समस्या पर सैद्धान्तिक निर्णय करने में असमर्थ दिखाई देते है।
फिर मात्र विरोध के लिए विरोध करनेवाले सिद्धान्तहीन पक्ष हमारे भारत में अपनी पकड ’येन केन प्रकारेण’ टिकाने के लिए, विरोध जता रहे हैं।समाचार में रहना ही उनके अस्तित्व का प्रमाण माना जाता है।
(पाँच) प्राकृतिक पर्यावरणीय घाटा?
मेरी दृष्टि में अधिग्रहण से बिना हिचक, निश्चित आर्थिक लाभ है। साथ साथ कुछ घाटा है।
पर लाभ का प्रमाण घाटे की अपेक्षा कई लाख गुना अधिक है।
विरोधी घाटे को ही बहुगुणित दिखा कर जनता की आँखो में धूल झोंकनेका काम कर सकते हैं।
अब प्रचण्ड आर्थिक लाभ की सीमित घाटे से किस भाँति तुलना की जाए?
तो पर्यावरण, गांधी, स्वदेशी इत्यादि सामने ला देते हैं।
पर आज की स्थिति में, छोटी छोटी इकाइयाँ आंतर राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक नहीं सकती।
एक हजार एकड की खेती पर कितने कृषक जीविका चला सकते है? उस संख्या की तुलना आप उतनी ही भूमि पर उद्योग लगाकर खेती से अनेकानेक-गुनी प्रजा को जीविका प्रदान कर सकते हैं।
कृषकों की आत्महत्त्याएं बचा सकते हैं। वही कृषक उद्योगों में काम पा सकता है।
(छः) नर्मदा बाँध
उदा: नर्मदा के बाँध के कारण गुजरात में काफी उन्नति हुयी है। नर्मदा बांध ने अहमदाबाद में २४ घण्टे पानी उपलब्ध कराया है। कच्छ को और सारे गुजरात को, भी हराभरा करने में योगदान दिया है। {वहाँ कृषक जो कच्छ के रेगिस्तान में कुछ खेती करता था, वह सम्पन्न हो रहा है। (ऐसी, एक युवा ने स्कूटर पर प्रवास कर के गुजराती में लेखमाला लिखी थी।)
साथ साथ कुछ वनवासियों को अवश्य विस्थापित भी होना पडा होगा ही। मुझे उसकी जानकारी नहीं है। यह घाटा अवश्य है, पर उसके सामने समस्त गुजरात को जल की आपूर्ति हुयी है। यह लाभ,घाटे की अपेक्षा कई लाख गुना है।
जिस अहमदाबाद में पानी की घोर समस्या थी,(वहाँ मैं जाता रहा हूँ।)वहाँ आज २४ घण्टे पानी, सपना नहीं वास्तविकता देखी है।ये दिल्ली की भाँति मर्यादित पानी का आश्वासन नहीं, २४ घण्टे पानी का प्रबंध है।

ऐसा कोई भी प्रकल्प नहीं होता, जिसमें हर नागरिक को लाभ हो।
उदाहरणार्थ: देश की रक्षाहेतु सैनिक अपने प्राण देकर भी जब सीमा पर बलिदान देते हैं; तो क्या लाभ उन्हें मिलता है? क्या लाभ मिलता है? बताइए।
संक्षेप में कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है।
अर्थशास्त्र लाभ का अनुमानित, हिसाब लगाता है। उसका मूल्य भी अनुमानित किया जाता है।
अंग्रेज़ी में (मैं ने युनिवर्सीटी स्तर पर, इन्जिनियरिंग इकनॉमिक्स भी पढाया है।) इसे Benefit-Cost Ratio कहते हैं।

Benefit माने लाभ। और Cost माने कीमत।१००० करोड का लाभ और सामने २०० करोड की कीमत हो, तो, ==>लाभ/कीमत = १०००/२००= ५ हुयी। इस में लाभ, कीमत से पाँच गुना हआ। ऐसे, विश्लेषण के आधार पर स्वीकृति दी जाती है।
नर्मदा बांध के कारण कितना लाख गुना लाभ हुआ होगा। शायद कई करोड गुना?
(सात) साणंद का वाहन उद्योग केद्र:
साणंद में प्रचण्ड उन्नति हुयी है। हजारों एकड भूमि के घाटे के सामने २२००००० (२२ लाख) वाहनों का कुल  निर्माण अनुमान है।
==>समय लगेगा, पर सारे तर्क यही दिशा दिखा रहे हैं। अभी ही २५००० कारे निर्माण हो रही है, प्रतिवर्ष।
इकनॉमिक टाईम्स का उद्धरण:(सारे शब्द समाचार वाले किरण ठक्कर के हैं)
“टाटा मोटर्स यहां अपनी छोटी कार नैनो की मैन्युफैक्चरिंग करती है। साथ ही, फोर्ड इंडिया का प्लांट तैयार हो रहा है, जबकि होंडा मोटर भी यहां प्लांट खोलने की कतार में खड़ी है। सेल्स वॉल्यूम के लिहाज से देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति सुजुकी ने अपने दो प्लांट्स के लिए यहां जमीन का अधिग्रहण किया है।”
“………………अगले 6-8 साल में इस इलाके में मारुति, टाटा मोटर्स, फोर्ड इंडिया और होंडा कार्स इंडिया की तरफ से तकरीबन 22 लाख पैसेंजर व्हीकल्स का प्रॉडक्शन होने की उम्मीद है।”

जिस उन्नति की बालटी को मिलकर उठाना है, उसी बालटी में अपना पैर गाडकर हम उन्नति की बालटी नहीं उठा सकते।

गांधी जी का रास्ता आज बिलकुल संभव नहीं लगता। स्वदेशी वाले भी देश हित में सोच कर आलेख प्रकाशित करे। मंच की देश-भक्तिपर मुझे संदेह नहीं।
पर आज स्वतंत्र चिन्तन की आवश्यकता है।
वंदे मातरम्‌