सियासत की प्रयोगशाला बनी पंडित नेहरू की विरासत  

प्रभुनाथ शुक्ल

राजनीति की परिभाषा बदलती दिख रहीं है । वह खास विचारधारा के खोल से बाहर निकल विकल्प के नये मिथक गढ़ रही है , जिसकी कल्पना राजनीतिक दलों ने सम्भवत: की हो । 2014 का आम चुनाव इस दिशा में बेहद अहम साबित हुआ। इस चुनाव ने देश में बदलाव और विकल्प की राजनीति का नया अध्याय शुरु किया। सेकुलरवाद और वामपंथ का किला ढह गया। धर्मनिरपेक्षता ने पंथवाद के आंचल में अपना सिर छुपा लिया। पूरब में पश्चिम बंगाल  से वामपंथ के पतन का सिलसिला आगे बढ़ता हुआ त्रिपुरा तक पहुँच गया। भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और संघी विचारधारा जहाँ अछूत थी वहीँ उसका फैलाव 21 राज्यों तक पहुँच गया। देश कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ़ बढ़ चला है। दक्षिणपन्थ के बढ़ते प्रभाव की वजह से पंथ निरपेक्षवादी सदमें में हैं।
उनके सामने ख़ुद के अस्तित्व को बचाने की बड़ी चुनौती है । इसकी मूल में राजनीति में विकल्प की उपलब्धता है, जिसकी वजह से यह बदलाव देखे जा रहे हैं । अब 2019 को लेकर मंथन चल रहा है , लेकिन बिखरे विपक्ष के पास यह विकल्प भी नहीँ दिखता है। दिल्ली और बिहार की असफलता के बाद रणनीतिक तौर पर मोदी की विजय यात्रा को काँग्रेस और वामपंथ रोकने में विफल अब तक विफल रहा है। पूर्वोतर की रणनीतिक जीत ने इसे पूरी तरह साबित कर दिया है की भाजपा देश की राजनीति में एक मजबूत विकल्प के रुप में उभरी है । पूर्वोतर में गोवा और मणिपुर की तरह सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी मेघालय को काँग्रेस बचाने में नाकाम रही।

राजनीतिक रुप से अहम उत्तर प्रदेश के उपचुनाव को लेकर सियासत तीखी हो चली है । 2017 के यूपी के आम चुनाव में सपा – बसपा की करारी हार और भाजपा की तूफ़ानी जीत ने जातिवादी तिलस्म को मटियामेट कर दिया। दलित राजनीति की मसीहा मायावती की बसपा , लोकसभा में एक सीट नहीँ जीत पायी। यूपी के फूलपुर और गोरखपुर चुनाव को लेकर सियासी प्रयोग शुरु हो गए हैं । यह उपचुनाव 2019 की राजनीतिक  प्रयोगशाला बनता दिख रहा है । 2014 के लोस चुनाव में मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने 70 सीटों पर जीत हासिल की थी । यह सफर 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा। बसपा सुप्रीमो मायावती और अखिलेश यादव 23 साल बाद पिता मुलायम सिंह की दुश्मनी भूल सियासी बुआ से
जातिवादी राजनीति के नये तिलस्मी प्रयोग की घोषणा की है । यूपी में राममंदिर आंदोलन के बाद  जातीय समीकरण पर आधारित नयी  राजनीतिक का उदय हुआ। लेकिन मोदी की सुनामी ने यूपी समेत पूरे भारत में विचारधाराओं के सारे किले ध्वस्त कर दिए।
पूर्वोतर की ऐतिहासिक जीत के बाद देश में बढ़ती भाजपा और मोदी की लोकप्रियता ने विपक्ष के कान खड़े कर दिए। पूर्वोतर फतह के बाद भाजपा यानी मोदी और अमितशाह की निगाह दक्षिण भारत के वामगढ़ केरल और काँग्रेस शासित कर्नाटक है टिकी है। भाजपा को यहाँ भी सफलता मिली तो पूरा भारत भगवामय हो जाएगा।

राजनीतिक रुप से बेहद अहम देश का सबसे बड़े राज्य यूपी के उपचुनाव पर सब की नज़रें टिकी हैं  कहते हैं कि दिल्ली की राजनीति उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों से होकर गुजरती है ।  फूलपूर और गोरखपुर को प्रयोग की राजनीति से जोड़ा जा रहा है। एक बार फ़िर पचासी और पंद्रह के नारे को आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है । पिछड़ी , दलित और अल्पसंख्यको के गढ़ में 2017 के चुनाव में भगवा यानी भाजपा की जीत सपा बसपा को नहीँ पच रही है । लिहाजा अपने खिसकते जनाधार और जातियों को लामबंद करने के लिए दोनों एक साथ आए हैं । लेकिन क्या भाजपा के हिंदुत्व और तीन तलाक जैसे अचूक अस्त्र को दोनों दल जातिवादी राजनीति के ज़रिए उपचुनाव में साधने में कामयाब होंगे ?

यूपी में सपा और बसपा ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में दोनों को 177 सीटें मिली थी और सपा-बसपा ने
गठबंधन से सरकार बनाई थी। इस बेमेल दोस्ती का दूसरा सबसे अहम पहलू है की मायावती और अखिलेश में से कौन किसे अपना लीडर मानेगा। क्या
स्‍टेट गेस्‍ट हाउस कांड के बाद मायावती का अखिलेश के नेतृत्‍व को स्‍वीकार करना आसाना होगा ?

अखिलेश यादव अगर बसपा के साथ गठबंधन कर भी लें तो सपा के भीतर मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह इसे स्‍वीकार कर सकते हैं ?

उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 28 प्रतिशत और बहुजन समाजवादी पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे। दोनों को जोड़ दिया जाय तो यह 50 प्रतिशत वोट हो जाता है।  ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए उपचुनाव में सपा के प्रत्याशियों को हराना एक बेहद चुनौती होगी। फूलपुर की विधानसभा सीट पर सपा का कब्जा है। हालांकि यह सीट देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की विरासत रही है, लेकिन काँग्रेस उस ज़मीन को सुरक्षित रखने में नाकामयाब रही है। फूलपुर लोकसभा सीट पर 2014 के चुनाव में बीजेपी को 5 लाख 3 हजार और 564 वोट मिले थे। जबकि सपा को 1 लाख 95 हजार 256 और बसपा को 1 लाख 63 हजार 710 वोट मिले थे। सपा-बसपा के वोट मिलने के बाद भी बीजेपी के केशव मौर्य और यूपी के उपमुख्यमंत्री को 1 लाख 44 हजार 598 वोट ज्‍यादा मिले थे। इस लिहाज से भाजपा को पराजित करना आसान नहीँ होगा। लेकिन चुनाव पूर्व की दोस्ती गुल खिला सकती है । अब गोरखपुर पर भी एक नज़र डालिए । यह सीट यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के त्यागपत्र की वजह से रिक्त हुईं है । यहाँ  2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर से बीजेपी को पांच लाख 39 हजार 137 वोट मिले थे। वहीं सपा को दो लाख 26 हजार और 344 वोट और बसपा को एक लाख 76 हजार 412 वोट मिले थे। गोरखपुर के बीजेपी उम्‍मीदवार योगी आदित्‍यनाथ को बसपा और सपा के वोट मिलने के बाद भी एक लाख 36 हजार 371 वोट ज्‍यादा मिले थे। हालांकि योगी यहाँ से लगातर कई बार से सांसद चुने जाते रहे हैं । इस चुनाव के पीछे छुपी राज्यसभा की नई राजनीति पर भी गौर करते हैं । एक सीट जीतने के लिए 36.36 वोट चाहिए।  समाजवादी पार्टी के पास 47 वोट हैं। यानी जीत से 10.64 वोट ज्‍यादा हैं । बसपा के पास 19 वोट हैं, यानी जीत से 17.36 वोट कम है । समाजवादी पार्टी बीएसपी को 10.64 वोट देगी और कांग्रेस को पास 7 हैं। इस तरह बीएसपी राज्‍यसभा की एक सीट जीत जाएगी और मायावती के राज्यसभा पहुँचने का रास्ता साफ हो सकता है। जबकि राज्‍सयभा चुनाव में इस सहयोग के बदल बहुजन समाज पार्टी विधान परिषद के चुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्‍मीदवार को वोट कर सकती है।
दूसरी ओर यूपी की राजनीति में बड़ा सवाल ये है कि क्या मयावती-अखिलेश 2019 में बीजेपी के खिलाफ साथ आएंगे ? गोरखपुर के उपचुनाव में दिखी साझेदारी ने ये कयास मजबूत कर दिये हैं। इस दोस्ती ने भाजपा की परेशानिया बढ़ा दी हैं । लेकिन यूपी की इस सियासी प्रयोगशाला में अगर यह परीक्षण सफल हुआ तो यह गैर भाजपाई एकता के लिए मिसाल होगी और मोदी और शाह कम्पनी के खिलाफ काँग्रेस , वामपंथ और दूसरी विचारधारा के दल एक साथ आ सकते हैं । यानी देश की सियासत दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ में विभाजित हो जाएगी। फ़िर भाजपा  हिंदुत्व और राममंदिर का ट्रम्पकार्ड खोलेगी। बस समय का इंतजार करिए। कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत रही फूलपुर की सीट आज़ राजनीति की नई प्रयोगशाला बनी है । बस समय का इंतजार कीजिए और उपचुनाव के बाद 2019 के महासंग्राम की दशा और दिशा क्या होगी यह तय हो जाएगा।

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