मनमोहन कुमार आर्य,
भारत संसार का सबसे पुराना देश है। इसका पुराना नाम आर्यावर्त था। सृष्टि के आदिकाल में ईश्वर ने तिब्बत में मनुष्यों को उत्पन्न किया था। ईश्वर ने ही इन मनुष्यों को भाषा, सत्यधर्म और संस्कृति के ज्ञान के लिए चार वेदों का ज्ञान दिया था। ब्रह्मा जी मैथुनी सृष्टि में उत्पन्न प्रथम ऋषि, वेदज्ञ, योगी, ईश्वर व आत्मा के सत्य स्वरूप के जानकार एवं आचार व धर्म शास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने ही सृष्टि के आरम्भ में अन्य लोगों में वेदों का प्रचार किया था। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद पढ़ कर मनुष्य इस सृष्टि को भली प्रकार से जान व समझ सकते हैं। ऐसा ही हुआ भी था। समय के साथ साथ तिब्बत में मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी और आपस में लड़ाई झगड़े भी होने लगे। उस समय तिब्बत के अतिरिक्त सारी पृथिवी मनुष्यों से शून्य थी। इस कारण उन लोगों में सीधे व सरल स्वभाव के आर्य तिब्बत से सीधे भारत की भूमि में आकर इस भूमि का सर्वोत्तम जानकर यहां बस गये। इससे पूर्व यह पूरी भूमि खाली पड़ी थी। यहां कोई मनुष्य जाति रहती नहीं थी। तिब्बत में रहते हुए आर्यों ने विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रकार के वायुयान व अन्य वैज्ञानिक उपकरण आदि बना लिये थे। यह लोग अपने अपने वायुयानों में आकाश में भ्रमण करते थे। इन्हें विश्व में जहां जो स्थान जीवन यापन के लिए सुन्दर व अनुकूल जलवायु वाला लगता था, वहां अपने परिवारों व मित्र-संबंधियों को ले जाकर वहां बस्तियां बसा दिया करते थे। इस प्रकार वेद के अनुयायी आर्यों द्वारा तिब्बत से आरम्भ होकर पूरे विश्व में मनुष्यों को बसाया और समय के साथ साथ नये नये देश व भाषायें आदि बनती गईं। मनुष्योत्पत्ति को हुए 1.96 अरब वर्ष हो चुके हैं। इतनी लम्बी अवधि में भारत के लोग विश्व के अनेक देशों में जाते और बसते रहे और इस प्रकार से विश्व के अनेक देश बसते गये।
भारत की बात करें तो यहां वैदिक धर्म व संस्कृति महाभारत काल व उससे कुछ सौ वर्षों पूर्व तक उन्नति के चरम पर रही है। भारत और विश्व में एक ही धर्म व संस्कृति थी जो वेद पर आधारित थी। पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध हुआ जिसमें बहुत बड़ी संख्या में वीर सैनिकों सहित विद्वान भी मारे गये। इस कारण भारत में अव्यवस्था फैल गई। शिक्षा का प्रचार व विस्तार बन्द हो गया। समय के साथ लोगों में वेद व धर्म की बातें भी समझने में कृतकार्यता नहीं रही। इस अक्षमता से विश्व में आर्य संस्कृति का प्रचार भी बाधित हुआ। वहां भी अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हो गये। भारत में भी समय के साथ यज्ञों में पशु हिंसा होने लगी। इसका परिणाम बौद्ध व जैन मत का आविर्भाव हुआ। इसके बाद संसार में ईसाई मत का आविर्भाव भी हुआ। इन तीन मतों से पुराना मत पारसी मत था जो एक धार्मिक पुरुष जरदुस्त महाशय ने चलाया था। उन्होंने जो धर्म पुस्तक दी वह जन्दावस्ता के नाम से प्रसिद्ध है। ईसाई मत के बाद इस्लाम मत का उद्भव होता है। यह सभी मत सत्य वेद मत के विलुप्त होने के कारण उत्पन्न हुए। भारत में बौद्ध व जैन मत की स्थापना व आचार्य शंकराचार्य के वैदिक मत के प्रचार से भी अज्ञान, अशिक्षा, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असामनता दूर नहीं हुई। वेदों का अल्प ज्ञान ही सीमित संख्या में लोगों में प्रचलित रहा। बाद में सायण आदि कुछ वेदभाष्यकार हुए परन्तु वह वेद के पदों व शब्दों के यथार्थ अर्थों को न जान सके जिस कारण वेदों के सत्य अर्थों का प्रचार होने के स्थान पर मिथ्या अर्थों का ही प्रचार हुआ। इस प्रकार अज्ञान बढ़ता रहा। समाज कमजोर हो गया। तभी सन् 715 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया। भारत में अन्धविश्वासों और आपसी फूट का परिणाम यह हुआ कि उसने राजा दाहिर को पराजित किया। उसके बाद भारत पर विदेशी लुटेरों के आक्रमण जारी रहे और भारत का बडा भाग गुलाम हो गया। पहले भारत मुसलमानों का और बाद में अंग्रेजों का दास बना।
अंग्रेजों के समय में ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का प्रादुर्भाव होता है। सन् 1863 में स्वामी दयानन्द जी ने मथुरा में गुरु विरजानन्द सरस्वती से वेदादि शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर वेदों का प्रचार करने के लिए कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया। उस काल में देश में धार्मिक अन्धविश्वास अपनी चरम सीमा पर थे। देश में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना ऊंच-नीच का व्यवहार करने वाली जाति प्रथा प्रचलित थी। स्त्री व शूद्रों को वेद और विद्या के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। मुस्लिम काल में हिन्दुओं पर अत्याचारों के कारण बाल विवाह व पर्दा प्रथा आरम्भ हो गई थी। ऋषि दयानन्द ने अध्ययन कर पाया कि यह सभी अन्धविश्वास हैं। वेदों से इनका समर्थन नहीं होता। उन्होंने अध्ययन से यह भी पाया कि वेद ही स्वतः प्रमाण धर्म व संस्कृति सहित ज्ञान विज्ञान के ग्रन्थ हैं। उन्होंने अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन प्रमाणों व युक्तियों आदि से किया। वह देश भर में घूमें और सर्वत्र वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रचार किया। लोग मूर्तिपूजा और अन्य अन्धविश्वासों को छोड़ने लगे और अज्ञान व अविद्या सहित कुप्रथाओं से मुक्त एक नया भारत अस्तित्व में आने लगा। इसके साथ ही ऋषि दयानन्द ने अज्ञान व अविद्या को दूर करने के लिए ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ की रचना की। ऋषि दयानन्द ने देश की गुलामी व उसके कुपरिणामों को गहराई से देखा व अनुभव किया था। उन्होंने देश की आजादी का समर्थन किया। उनके प्रायः सभी ग्रन्थों सहित वेदभाष्य में प्रकट विचारों से देश की आजादी का समर्थन होता है। सत्यार्थप्रकाश के दो संस्करण प्रकाशित हुए। पहला सन् 1874 में तैयार हुआ। दूसरा उन्होंने सन् 1883 में तैयार किया जो उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ में देश की गुलामी का विरोध और आजादी का समर्थन करते हुए उन्होंने जो शब्द कहे वह स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य हैं। सत्यार्थप्रकाश आठवें समुल्लास में उन्होंने निम्न शब्द लिखे हैं:
“… ब्रह्मा का पुत्र विराट, विराट का पुत्र मनु, मनु का मरीच्यादि दश इनके स्वायम्भुवादि सात राजा और उन के सन्तान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए जिन्होंने यह आर्यवर्त बसाया है।
अब अभाग्योदय से और आर्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशववासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।
कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।
परन्तु भिन्न भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना (देश स्वतन्त्र होना और सर्वत्र वेद का प्रचार होना) कठिन है। इसलिए जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।”
देश को आजाद कराने की प्रेरणा करने वाले यह विचार ऋषि दयानन्द ने सन् 1883 में दिये थे। उस समय देश में आजादी की कहीं चर्चा कोई नहीं करता था। रूस व चीन में क्रान्ति नहीं हुई थी। कांग्रेस की स्थापना भी सन् 1885 में इसके बाद हुई। ऋषि दयानन्द ने देश को आजाद कराने की प्रेरणा न केवल सत्यार्थप्रकाश में ही की है अपितु अपने अन्य ग्रन्थ आर्याभिविनय, संस्कृतवाक्यप्रबोध सहित वेदभाष्य में वेदमन्त्रों की व्याख्या करते हुए भी की है। इससे ऋषि दयानन्द देश को आजादी का मन्त्र व विचार देने वाले पहले महापुरुष थे। देश ने उनको उनका उचित स्थान न देकर उनसे न्याय नहीं किया है। यह भी बता दें की क्रान्तिकारी विचारों के शीर्ष महापुरुष पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा उन्हीं के साक्षात शिष्य थे। गांधी जी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले महादेव रानाडे के शिष्य थे और रानाडे जी महर्षि दयानन्द जी के सहयोगी व शिष्य थे। आर्यसमाज के सभी अनुयायी भी देश को आजाद कराने की तीव्र भावना रखते थे। स्वामी जी के अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल सहित देश के अनेक विचारक स्वामी दयानन्द जी के विचारों से प्रभावित थे। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि देश को आजादी का विचार व मन्त्र सबसे पहले स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ही दिया था। स्वामी जी की मृत्यु एक गुप्त षडयन्त्र का परिणाम थी। उसमें स्वामी जी के अंग्रेज सरकार विरोधी इस प्रकार के विचारों का भी योगदान था। स्वामी दयानन्द जी ने सन् 1874 में लिखे सत्यार्थप्रकाश में भी अंग्रेज सरकार द्वारा नमक पर कर लगाने के विरोध में टिप्पणी की थी। अतः देश की आजादी का श्रेय महर्षि दयानन्द को है। राजनीतिक दल सत्य को कितना ही छुपा लें, लेकिन सत्य सत्य ही रहता है और यह तथ्य है कि देश को आजाद करने का सबसे पहले विचार व मन्त्र ऋषि दयानन्द जी ने ही देशवासियों को दिया था। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
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