हुनर से बेजान गुड़ियों में फूंक रही हैं जान

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सौम्या ज्योत्सना

मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार

बचपन में हम सबने गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेला है. ऐसे भी छोटे-छोटे मनमोहक गुड्डे-गुड़ियों को देखकर सबका मन इसे दुलारने और हाथों में लेने के लिए उत्सुक हो जाता है, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके लिए यह एक महज आकर्षण नहीं बल्कि अपनी पहचान बनाने का जरिया बन जाता है. इसे साबित किया है झारखंड की राजधानी रांची की रहने वाली शोभा कुमारी ने, जो करीब 14 वर्षों से गुड्डा-गुड़िया बनाने में जुटी हैं. शोभा बताती हैं कि गुड्डा-गुड़िया को जीवंत बनाने में केवल 14 साल की मेहनत नहीं है, बल्कि बचपन से इसके प्रति आकर्षण और इसे अपनी पहचान बनाने का अथक परिश्रम है. इस लगन को जोड़ दें, तो यह 25 सालों का सफर बनता है क्योंकि गुड्डा-गुड़िया को बनाने में भी अनेक हुनर का समावेश है, जिसे उन्होंने भिन्न-भिन्न जगहों पर जाकर ग्रहण किया है. जैसे गुड्डे-गुड़िया की आंखों को संवारना, उसके नन्हें कपड़ों को सजाना, हर एक कोने को बारीकी से निखारना, ताकि इनकी खामोश आंखें भी बोलती प्रतीत हों, शामिल है.


शोभा बताती हैं कि जब वह अपने बेटे को राजस्थान के कोटा शहर में पढ़ने के लिए छोड़ने गई थी, उस वक्त ही उन्होंने वहां गुड्डा-गुड़िया बनाने का एक वर्कशॉप ज्वाइन किया था, क्योंकि बेटे के कोचिंग चले जाने के बाद बहुत समय खाली बच जाता था और इसे यूं ही बिताना उन्हें पसंद नहीं था. यह वर्कशॉप उनके आवास से बहुत दूर था, जिसके लिए उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी ताकि वहां जाकर ट्रेनिंग ले सकें. ऐसे ही धीरे-धीरे उनकी लगन बढ़ती गई, जिसके बाद उन्होंने अपने दिन का अधिकांश समय गुड्डा-गुड़िया बनाने का निर्णय किया क्योंकि उनका मानना है कि कला को निखारने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ साथ उस पर काम करते रहना बेहद जरुरी होता है. इस बीच उन्होंने अपने घर को भी बखूबी संभाला ताकि कोटा में रहते हुए उनके बेटे को पढ़ाई में कोई परेशानी ना महसूस हो. इस तरह उन्होंने एक उदाहरण पेश किया कि महिलाएं हमेशा से अनेक जिम्मेदारियों को एक साथ निभा सकती हैं.

कोटा से वापस आने के बाद उन्होंने गुड्डा-गुड़िया को सबसे पहले स्थानीय संस्कृति में रंगना शुरू किया क्योंकि उनका मानना है कि अपनी संस्कृति को पहचान दिलाने में जो खुशी है, वह सबसे अनमोल होती है. इसके अलावा उन्होंने पेंटिग, कपड़ा डिजाइन करने की भी ट्रेनिंग ली. शोभा बताती हैं कि पारिवारिक माहौल ऐसा था कि उन्होंने सिलाई-कढ़ाई का काम सातवीं कक्षा से ही सीखना शुरु कर दिया था, जिसका समावेश उन्होंने गुड्डा-गुड़िया को बनाने में किया. यही कारण है कि वह गुड्डा-गुड़िया को रूप देने में अपनी तपस्या को अनेक सालों की मेहनत बताती हैं. शोभा के अनुसार गुड्डा-गुड़िया बनाने के लिए वह जिन सामग्रियों का इस्तेमाल करती हैं, वह पूरी तरह से इको-फ्रेंडली होते हैं और आसानी से मिल भी जाते हैं. उन्होंने बताया कि गुड्डा-गुड़िया बनाने में लकड़ी का बुरादा, कपड़ा और मिट्टी की आवश्यकता होती है. मिट्टी से गुड्डा-गुड़िया के चेहरों को आकार दिया जाता है और लकड़ी से उनकी संरचना बनाई जाती है. 


वह गुड्डा-गुड़िया को ग्राहकों की पसंद के अनुसार भी तैयार करती हैं. जिसकी लंबाई चार इंच से लेकर पांच फीट तक हो सकती है. लंबाई के अनुसार ही उनकी कीमत 50 रुपये से लेकर 5000 रुपये निर्धारित होती है क्योंकि इसे बनाने में मेहनत भी बहुत अधिक लगता है. इसके अलावा वह अन्य राज्यों से मिलने वाले ऑर्डर और डिमांड के अनुसार भी गुड्डा-गुड़िया तैयार करती हैं. जैसे अगर किसी को उत्तराखंड की संस्कृति या राजस्थानी पहनावे के अनुसार चाहिए, तब वह इन गुड्डे-गुड़ियों को उन राज्यों की संस्कृति के अनुसार ही तैयार करती हैं. शोभा के अनुसार उन्होंने चेहरे को मिट्टी से आकार देने की ट्रेनिंग कोलकाता के कृष्णापुरी से लिया है, जिसे सीखने के लिए उन्हें अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया. वर्तमान में उनकी टीम में 35 से 40 महिलाएं जुड़कर न केवल इस अनमोल कला में पारंगत हो रही हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी सशक्त बन रही हैं.उनका मानना है कि अगर काम खुद की पसंद का हो तो 24 घंटे का समय भी कम लगता है. साथ ही अगर खुद के हुनर से अन्य महिलाओं को रोजगार मिल जाता है, तो इससे बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है.

शोभा को उनके इस हुनर के लिए वर्ष 2013 में स्टेट अवार्ड से सम्मानित किया था. साथ ही उनका चयन नेशनल अवार्ड के लिए भी हुआ था. उन्हें विकास भारती बिशुनपुर द्वारा साल 2020 में सामाजिक उद्यमिता सम्मान से भी नवाजा गया था. इसके अतिरिक्त वह कई मंचों पर सम्मानित हो चुकी हैं. शोभा दुनिया के साथ कदमताल करते हुए सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय हैं. जिसके माध्यम से वह अपनी कला को देश और दुनिया से परिचित कराती हैं. सृजनहैंडीक्राफ्ट डॉट कॉम नाम से उनकी अपनी वेबसाइट भी है. जहां उनके और उनकी टीम द्वारा बनाए गए गुड्डे-गुड़िया प्रदर्शित किये जाते हैं. उनका इसी नाम से फेसबुक पेज भी संचालित होता है. उन्हें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही माध्यमों से ऑर्डर प्राप्त होते हैं. 

इसके साथ ही शोभा अपनी अन्य प्रतिभाओं के माध्यम से भी महिलाओं को रोजगार देने का काम कर रही हैं, जिसमें बैग बनाना और आर्ट एंड क्राफ्ट के अन्य हुनर भी शामिल हैं. अपने हैंड-मेड बैग के बारे में वह बताती हैं कि बैग को सोफा-सेट के कपड़ों और अन्य मजबूत कपड़ों से बनाया जाता है, जिसके ऊपर कलात्मक आकृति उकेरी जाती है. इन बैग्स को बनाने में किसी प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल किए बिना केवल हाथों के जरिए सिलाई की जाती है. कड़ी धूप में सुखाने से लेकर इसे पूरा आकार देने में कई महिलाओं की मेहनत और उनका प्यार लगता है. हाल ही केंद्र सरकार द्वारा उन्हें 100 गुड़ियों और 200 बैग्स बनाने के आर्डर मिले थे.


वास्तव में गुड्डा-गुड़िया बना कर शोभा न केवल अपने शौक को मंच प्रदान कर रही हैं बल्कि रोजगार के अवसर भी खोल रही हैं. जिससे समाज की अन्य महिलाएं भी आर्थिक रूप से सबल बन सकें. इसके अतिरिक्त इसे बनाने में इको-फ्रेंडली सामग्रियों का उपयोग करके वह पर्यावरण की रक्षा भी कर रही हैं. शायद इसलिए महिलाओं के संदर्भ में यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अपने आंचल को परचम बनाना सीख लिया है. आधी आबादी के बिना आर्थिक रूप से सशक्त और समृद्ध समाज की कल्पना बेमानी होगी. 

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