मानवाधिकारवादी सुनें:पंछी की तड़प

महाभारत के युद्घ में सर्वाधिक शालीन और मर्यादा की प्रतिमूर्ति, असाधारण व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी महात्मा विदुर का चिंतन इस राष्ट्र की गौरवपूर्ण थाती है। उनका चिंतन हजारों वर्षों से हमारा मार्गदर्शन करता आया है और अनंतकाल तक करता रहेगा। इस महात्मा ने लोकहितकारी शासक और शासन की आवश्यकता पर बल देते हुए मानवाधिकारों के प्रति मानव का सदाशयतापूर्ण और संरक्षणवादी दृष्टिकोण अपनाने की भावना पर बल दिया है। विदुर कहते हैं-

अब तो images1राज्य प्राप्त हो ही गया है-ऐसा सोचकर गर्व में चूर होकर राजा को अनुचित व्यवहार नही करना चाहिए। विदुर का चिंतन बड़ा स्पष्ट है। राज्य की प्राप्ति राजा का लक्ष्य नही है। राज्य प्राप्ति आधार है-जनसेवा का। इसके माध्यम से राजा को लोकहित की साधना करनी चाहिए। राजा को चाहिए कि जैसे भौंरा फूलों को हानि न पहुंचाकर उनसे रस प्राप्त कर लेता है वैसे ही वह प्रजाओं को पीड़ा दिये बिना उनसे कर ग्रहण करे।

इस प्रकार के कर प्रहण से प्रजा कुपित नही होगी। उसका विरोध या कर चोरी करने की मानसिकता से राजा को दो चार नही होना पड़ेगा। इसलिए राजा प्रजा की रक्षा करते हुए ही उससे कर ग्रहण करे प्रजा का समूलोच्छेद न करे। क्योंकि जो राजा दयादृष्टि से हितचिंतन से, मधुर भाषण और दान आदि कर्म से-इन चार प्रकार से प्रजाओं को प्रसन्न रखता है, ऐसे राजा को प्रजाएं भी प्रसन्न रखती हैं। किंतु जिस राजा से प्रजाएं व्याध से मृग के समान भयभीत होती हैं वह सारे भूमंडल का राज्य प्राप्त करके भी नष्ट हो जाता है। अपने बाप दादों का राज्य पाकर भी अनीति में स्थित राजा अपने कर्मों से उसे ऐसे ही नष्ट भ्रष्ट का देता है, जैसे वायु मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है। इसलिए परंपरा से श्रेष्ठ पुरूषों द्वारा आचरित धर्म का अनुष्ठान करने वाले राजा का धनधान्य से पूर्ण राज्य ऐश्वर्य बढ़ाने वाला होकर निरंतर बढ़ता रहता है, और धर्म को तिलांजलि देकर अधर्म का आचरण करने वाले राजा का राज्य ऐसे सिकुड़ जाता है, जैसे आग में डाला हुआ चमड़ा सिकुड़ जाता है।

इसलिए धर्म लोकहित साधना अथवा मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर प्रजा के अधिकारों का प्रहरी बना राजा अधिक समय तक राज सुख भोगता है। अत: राजा को चाहिए कि वह धार्मिक उपायों से राज्य को प्राप्त करे और धार्मिक साधनों से ही उसकी पूर्णरक्षा भी करे। क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न वह राजा उस ऐश्वर्य को छोड़ता है और न वह ऐश्वर्य उस राजा को छोड़ता है।

समाज में हिंसा दुष्ट लोग करते हैं जिनका शमन राजा का धर्म है। इसलिए विदुर कहते हैं-हिंसा दुष्टों का बल है, अपराधियों को दण्ड देना राजाओं का बल है। किंतु जहां देश की संसद पर हमला करने वालों को मिली फांसी की सजा को भी समाप्त कराने की मांग की जाती हो वहां दुष्टों का बल तो बढ़ता है, जबकि राजा का बल क्षीण होता है। परिणामत: मानवाधिकारों का हनन होता है और दानवता विकराल होती जाती है। वर्तमानकाल इसी तथ्य को प्रमाणित कर रहा है।

विदुर राजा का बल दण्ड बता रहे हैं और हमारे आज के राजा दण्ड देने से भाग रहे हैं। इसके लिए सबसे अधिक उत्तरदायी कुछ तथाकथित मानवाधिकारवादी भी हैं। उनका कहना है कि फांसी एक अमानवीय दण्ड है जो कि सभ्य समाज में अनपेक्षित है। सभ्य समाज में इस प्रकार के दण्ड को अमानवीय माना जाना चाहिए। इसीलिए विदुर जैसे महात्माओं की नीति को आज अप्रासंगिक कहकर उसकी आलोचना करने वाले भारत में भी पर्याप्त हैं। सभ्य समाज सभ्य समाज की यह धुन इन लोगों ने पश्चिमी देशों से ली है। इसे ये बड़े प्रेम से गाते हैं, और स्वयं को पश्चिम का भक्त दिखाने में कोई कमी छोडऩा उचित नही मानते।

इन पश्चिम भक्तों को यह कौन समझाए कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने अभी अफगानिस्तान में दण्ड का जो प्रदर्शन किया था वह केवल राजा के बल का प्रदर्शन ही था। अपने देश के प्रति कुदृष्टि रखने वालों को वह क्या दण्ड देते हैं? इस प्रदर्शन से उन्होंने यह सिद्घ कर दिया। सभ्य समाज की यह धारणा तब कहां चली गयी थी? यद्यपि इन लोगों ने निर्दोषों को भी मौत की गहरी नींद सुला दिया था। जबकि भारत में एक दोष सिद्घ आतंकवादी को भी फांसी की सजा न देने की मांग की जाती रही है।

ज्ञात रहे कि मानवाधिकारों की रथार्थ मानवाधिकारों के हंताओं की समाप्ति आवश्यक है। जिनके लिए राजा का दण्ड सदा जागता रहना चाहिए। इस दण्ड के न जागने के क्या परिणाम होते हैं-यह कश्मीरी विस्थापितों से पूछा जा सकता है? इसलिए झूठी मानवता के प्रदर्शन को छोड़कर मानवाधिकारवादी संगठन यथार्थ को समझें और महात्मा विदुर की इस बात का वर्तमान के साथ सामंजस्य स्थापित करें कि राजा का बल दण्ड होता है। अपराधी अपराधी है उसे समाज की व्यवस्था को अवरूद्घ करने या उसमें गतिरोध उत्पन्न करने या समाज में उपद्रव और अशांति उत्पन्न करने की अनुमति मात्र इस आधार पर नही दी जा सकती कि सभ्य समाज में किसी भी व्यक्ति के प्रति कठोरता का प्रदर्शन अन्यायपरक है।

जिसने अन्याय किया, अत्याचार किया अथवा अनाचार किया उसे उसके किये का दण्ड देना उसके और शेष समाज के प्रति न्याय है। अन्यथा सज्जनों का जीना असंभव हो जाएगा और एक दिन फिर ऐसा भी आएगा कि जब सर्वत्र कलह, अशांति और कटुता के कारण मानव, मानव को मारकर भी खाने लगेगा। सभ्य समाज के लिए अपेक्षित है कि वह दिन ना आए इसलिए पहले ही समाज के गले सड़े अंगों का उपचार करना जारी रखे। अपराधियों को दण्ड देना राजा के लिए उसका बल तभी सिद्घ हो सकेगा।

कुछ लोगों का तर्क है कि फांसी मध्ययुगीन हिंसक दण्ड का प्रतीक है। उनके तर्क में बल हो सकता है, किंतु क्या यह भी सत्य नही है कि मध्य युगीन हिंसक मानव (दानव) समाज आज भी सक्रिय है? वह निश्चेष्ट नही है। हत्या, बलात्कार, शोषण, उत्पीडऩ और अत्याचार नये नये आयामों में हमारे सामने प्रकट हो रहे हैं। इनसे मुक्ति पाने के लिए ‘सभ्य समाज’ कौन सा सभ्य ढंग खोज रहा है या खोज चुका है? इसे सार्वजनिक किया जाए। महात्मा विदुर कहते हैं कि अति दयालु अथवा उदारचित्त राजा से दूर रहना ही भला है। क्योंकि वह राष्ट्रविरोधी शक्तियों से शक्ति के स्थान पर नरमी दिखाकर राष्ट्र का अहित कर सकता है अथवा उसके शासन में राष्ट्रविरोधी लोग इतने सक्रिय हो सकते हैं कि उनसे प्राणी को भी भय होना संभव है।

भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति है। इसमें निहित स्वार्थों को त्याग कर परमार्थवादी बनने की प्रेरणा हर कदम पर दी जाती है। मानवाधिकारवादी विश्व मानस की निर्मिति के लिए यह आवश्यक भी है कि हमारी बुद्घि परमार्थ चिंतन वाली हो। इसी बात के दृष्टिगत महात्मा विदुर की यह घोषणा स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है-

bird

 

भावार्थ-मनुष्य को चाहिए कि कुल की अभिवृद्घि और सुख शांति के लिए एक व्यक्ति को त्याग दे, ग्राम की उन्नति के लिए कुल को छोड़ दे, प्रदेश के कल्याण के लिए ग्राम को त्याग दे और अपनी आत्मा की उन्नति के लिए सारी पृथिवी के राज्य को भी त्याग दे। सभ्य समाज की निर्मिति के लिए यह है वो आदर्श जो हमें पहुंचाएगा अपने लक्ष्य तक। हम सभ्यता के नाम पर अपनी आत्मा के चारों ओर ग्राम, मौहल्ला, परिवार या राष्ट्र, प्रांत, अथवा क्षेत्र, जाति, धर्म, संप्रदाय या वर्ग विशेष के घरौंदे तैयार कर रहे हैं। जिसमें यह पंछी तड़प रहा है। इसकी तड़प पर ध्यान न देकर भी तो हम स्वयं अपने ही मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं। इस बात पर हमें ध्यान देना चाहिए। सभ्यता का तकाजा यही है कि हमारी पर कोई पहरा न हो। वह स्वतंत्र हो। वह किसी घरौंदे के संकीर्ण दायरे में न होकर स्वतंत्र आकाश का स्वतंत्र पंछी हो। मानवाधिकारों की दिशा में सबसे पहले इस दिशा में कार्य करना होगा। महात्मा विदुर की वाणी का निहितार्थ यही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,024 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress