सुनो सुजाता : एक
सुनो सुजाता
मैं नहीं जानता
तुम्हारा
समाज-सत्य।
शब्दार्थ की रपटीली पगडंडियाँ
यदि हैं,आपका सचेत चुनाव
तो आओ, बैठो
बातें करो।
सुनो सुजाता : दो
शब्द सोते हैं
शब्द जागते हैं
रोना, खिलखिलाना, गुदगुदाना
या फिर बाएँ कान में खुसफुसाना :
सब कुछ करते हैं शब्द
ठीक हमारी तरह।
फर्ज करो
हमें वह सब करना पड़े
जिसके लिए
हम नहीं हैं बने
सब कुछ इच्छा-विरुद्ध!
हो जाती है लहूलुहान
हमारी अस्ति,
है न?
शब्दों पर
वैसी ही गुजरती हैं
वर्तनी की
अशुद्धियाँ।
सुनो सुजाता : तीन
अच्छा गढ़ने के लिए
जरूरी है
नया-पुराना
बहुत कुछ पढ़ना –
एक तो,
अच्छा/ज्यादा अच्छा/सबसे अच्छा
दूसरा,
बुरा/कम बुरा/मामूली बुरा
सनद रहे,
यह अच्छा-बुरा
एक सम्पुट है
यह मटर की
एक छीमी है,
जहाँ पुष्ट होगी
आपकी कहन
उसके दानों की तरह।
सुनो सुजाता : चार
ये रहे तुम्हारे हरे-भरे दाने
तो, तुम मटर की
पौध हो
असीमित संभावना है
हरेक
हरा-भरा दाना।
यह तुम पर तय करता है
कि फसलें लहलहाएँ
और
किसी ग्रेगर जाॅन मेण्डल
के होनहार
उन पर शोध करें।
या फिर,
किसी कलछुल से टुनटुन करती
कढ़ाई में
पनीर के साथ
तुम तेज आँच पर
कहली जाओ।
तुम क्या चाहोगी?
बोलो।
सुनो सुजाता : चार
तुम्हारी संततियाँ हैं
ये दाने।
समाज को सौंपने से पहले
इन्हें अपने आँचल में
छुपाकर रखो,
किसी को राजदार न बनाओ।
तुम्हें जब लगे
कि समय आ गया है
डिठौना लगाकर
विदा कर दो इन्हें।