अनुपमा झा
30 अप्रैल 2021 एक बार फिर बहुत बड़े असमंजस की स्थिति का सामना करने का दिन था। वह दिन जिसे मैं टाल रही थी जैसे आँखें बंद कर स्थिति को नकारना चाह रही थी| अपने फ़ोर्थ ग्रेड स्टाफ को बुला कर वापस मुझे यह कहना पड़ा कि हम उन्हें रेगुलर बेसिस पर फिलहाल के लिए अपने साथ जोड़े नहीं रख सकते| आर्थिक तौर पर हम उन्हें अभी बहुत साथ नहीं दे पाएंगे, उन्हें यह कह पाना मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था, पर कहना था | उस दिनों राम कला , उर्मिला का बाय कहना बिछुड़ने का सा एहसास दे गया| एक साल पहले भी हमने इसी जद्दोजहद का सामना किया था, आज फिर वहीं हैं शायद उससे बुरी हालत में। इस विद्यालय और मेरे बीच का संबंध चार साल पुराना होने चला। इस विद्यालय से जुडने का संतोष यह था कि मैं खुद को तलाश पा रही थी| मुझे एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिला था जो हर तरह कि चुनौतियों से अटा पड़ा था | हमारी अटकी सोच, आर्थिक पक्ष, सीखने सिखाने की प्रक्रिया से जुड़ी हमारी धारणा, शिक्षा का बाजार, समाज के विभिन्न तबकों के बीच के फासले और बहुत कुछ मेरे सामने लठठ लिए खड़े थे | फिर भी हमने धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू किया, मैंने अपनी समझ को आजमाना शुरू किया और सही मायने में शायद बहुत कुछ सीखना शुरू किया | मैं एक प्रिंसिपल हो कर किस तरह काम कर सकती हूँ इसे लेकर हम सबके मन में एक प्रश्न चिन्ह था| इस प्रश्न चिन्ह के साथ ही मैंने काम करना शुरू किया था| मेरे स्वभाव की एक कमी के साथ मुझे काम करना था वह कमी है किसी को चैलेंज नही करने की कमी। यह डर अपनी जगह बना हुआ था कि क्या मैं लोगों से काम करवा पाऊँगी, या लोग मुझ पर हावी हो जाएंगे। क्योंकि मेन्डेल द्वारा दिए गए Law of Dominance के अनुसार मैं एक recessive allele हूँ। साथ ही यहाँ के माहौल को देख मुझे लग गया था बहुत कुछ है बदलने वाला और बहुत कुछ आएगा विरोध करता हुआ। संयोग से इस विद्यालय का मूल उद्देश्य इस क्षेत्र ;जहाँ literacy rate काफी कम है, के बच्चों को इस लायक बनाना है कि वह बाहरी दुनिया में अपना स्थान तलाश पाएं, कम से कम हम ऐसा कहते है| हाँ, यहाँ खुली सोच वाले, क्रातिकारी विचार वाले और नई तकनीक और शिक्षा जगत में हो रही चर्चा से जुड़े लोग के साथ की विलासिता नहीं है| हमारी टीम में भी अपनी रोजी रोटी के लिए हर विकल्प से बेजार हो कर आए सदस्य ही हैं, या फिर लड़कियां जिनके माँ पिता को यह क्षेत्र सबसे अधिक सुरक्षित नजर आता है| कुल मिला कर इतना समझना आसान था कि यहाँ बदलाव की बात सीधे तौर पर नहीं हो सकती| मास्टर मोशाय का ईगो पुरुष होने कर भी यहाँ रहने का frustration, सीनियर या फिर हाथ में सत्ता होने का भान इन सबके साथ ही चलना था। एक चीज जो सबसे अच्छी थी वह थी receptive surface की मौजूदगी | इस surface को पाकर बच्चों के साथ विद्यालय की पूरी टीम साथ साथ हौले हौले कदम से चल रही थी | संयोग से और धीरे-धीरे सीखने सिखाने की पद्धति को जाने अनजाने ही हम नए आयाम देने की कोशिश करने लगे थे | अगल बगल के गाँव जा कर वहाँ के लोगों से बात कर बच्चों को विद्यालय तक लाने में कुछ हद तक सफल भी हो रहे थे | यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां शिक्षा को आवश्यक आवश्यकयता के रूप में नहीं देखा जाता है| फिर भी हमारा प्रयास जारी है, थोड़े बहुत हिचकोले खाते हुए हम आगे भी बढ़ रहे थे बच्चों के साथ हमारी टीम में आते बदलाव मुझे या हमारी पूरी टीम जिसमें विद्यालय प्रबंधन कमिटी भी शामिल है को ऊर्जा दे रही थी | विद्यालय प्रबंधन कमिटी भी हमारा साथ देने में पीछे नहीं थी | हम और अधिक विस्तार करने की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ रहे थे | मार्च 2020 का अंतिम सप्ताह पूरे विश्व के सामने एक भयावह रूप लेकर आया, सब कुछ थमने का सदेश लेकर आया| सब थम गया | यह अवधि हर विद्यालय के लिए एक महत्वपूर्ण अवधि होती है | हम एक सीढ़ी चढ़ते हैं, बदलाव का आलिंगन करते हैं, पहिये में ऊर्जा भरते हैं ताकि हमारा रथ अड़चनों से टकरा कर रुके नहीं, एक स्थिर गति से आगे बढ़ता जाए | हमारे मन में जो दवंद था वह यह भी था कि इस ऊर्जा का संचय कहाँ से करें, पॉज़ का बटन दब चुका है, लेकिन यह पॉज़ हमारे लिए चुनौतियों का तूफान लेकर आ रहा है, यह हमें साफ नजर या रहा था। क्या हम रुक जाएँ? यह साफ था कि अगले तीन चार महीने इस स्थिति में जीना है | यह भी पता था अगर राबता नहीं रहेगा तो आगे बढ़ने का पथ और अधिक कठिन हो उठेगा| एक ऐसा विद्यालय जिसने अभी थोड़ी थोड़ी मजबूती पाई थी अपनी पूरी संरचना को बनाए रख पाएगा? पहली जरूरत महसूस हुई, जुड़े रहने की जरूरत, बच्चों को जोड़े रखने की आवश्यकता, क्योंकि हमें यह भी पता था कि इन बच्चों के लिए स्कूल ही एक ऐसा जरिया है जो सीखने सिखाने की प्रक्रिया को सोच समझ कर उनके सामने रखता है, इससे दूर होने पर यह प्रक्रिया अलग रूप लेगी | अब प्रश्न था फिर क्या करें? हमारे शिक्षक/शिक्षिका रिमोट टेक्नॉलजी से वाकिफ नहीं हैं और न ही बच्चे। साथ ही दूर गाँव में बैठे परिवार जिनके बच्चे ने ही किताब कॉपी को उठाया है इस तकनीक को कैसे समझेंगे? साथ ही नेटवर्क की दिक्कत यहाँ तक कि हम ऐसे परिवार से भी जुड़े है जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं| बहुत बड़ी चुनौती| ऐसे में नजर आया एक जरिया वह था व्हाट्स एप का, यह एक ऐसा जरिया है जो अधिकतर लोगों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और हम पहले से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, सूचना का आदान प्रदान करने में। शिक्षक/शिक्षिकायों से बात हुई सब इस माध्यम के लिए सहमत हो गए। हमने पठन पाठन का काम इस माध्यम के साथ शुरू कर दिया | माध्यम तो चुन लिया पर क्या हम तैयार हैं इस माध्यम के लिए? और फिर शुरू हुई तलाश किन किन तरीकों को आजमाएं, अपने शहर में हम पहले थे जिन्होंने इस माध्यम को अपनाया | मिली जुली प्रतिक्रिया मिली हमें | कहीं से साधुवाद मिला, तो कुछ ने नीरा चोंचला कहा, कुछ निस्पृह रहे | पर हम चल पड़े | इस नौका का माझी होने के कारण मुझे चप्पू तो पकड़ना ही था साथ में नाविकों को तैयार करना था| संयोगवश मैंने अपने शिक्षक /शिक्षिकायों को डिजिटल दुनिया से पहले ही जोड़ दिया था, वह सब के सब कंप्युटर लिटरेट हो चुके थे , इसलिए टायपिंग और अपनी बात पहुंचाने का काम तो हो जाएगा | जमीन तो तैयार हो गई लेकिन साधन और उसे कारगर तरीके से उपयोगी बनाने के उपाय की खोज जारी थी | आना जाना हो नहीं सकता किताबें भी हमारे पास नहीं है, यह जानी हुई बात है हम आज भी किताबों पर निर्भर करते हैं, आज भी बिना किताबों के एक शून्यता आती है वह स्वाभाविक है | फिर डिजिटल माध्यम से ही शिक्षण सामग्री का आदान प्रदान शुरू हुआ,। प्रकाशक और शिक्षकों के बीच की कड़ी थी मैं; साधन के आदान प्रदान का चक्र चल पड़ा। इस समस्या के साथ हमने चलना सीखा, प्रक्रिया चल पड़ी किन्तु अनेक प्रश्न सामने थे। बच्चे सामने नहीं है, उनकी आँखें, चेहरे, बैठने की भंगिमा नजर नहीं आती कैसे समझें बच्चों तक बात पहुँच रही है नहीं, बातों को असरदार कैसे करें, सारे प्रयास व्यर्थ तो नहीं होंगए? इसलिए सिर्फ लिखित संवाद काफी नही होगा, टीचर को विडिओ भी बनाने होंगे। फिर शुरू हुआ प्रशिक्षण का सिलसिला। यह भी आसान नहीं था जब आपको यह साफ पता चलता है कि आमने सामने नही रहने के कारण दूसरी तरफ बातें ठीक उस तरह नहीं पहुंचाई जा सकती जैसा आप चाहते हैं, यूं तो वह आमने सामने रह कर भी नहीं होता | उसके बाद शिक्षक/शिक्षिकाओं का संकोच, कक्षा के चहरदीवारी में बच्चों के सामने पढ़ाना और एक ऐसे माहौल में प्रदर्शन करना जहां हो सकता है अनेक आँखें आपको तौल रहीं हों आसान नहीं है। हमने लाइव क्लास का विकल्प इस कारण भी नहीं लिया था , मुझे हम सबका तौला जाना गँवारा नही था | मुझे पहले उन्हें तैयार करना था फिर धीरे धीरे सुविधा और तैयारी के हिसाब से वह रास्ता तय करना था | अनेक माध्यम और तरीके अपना कर हमने शिक्षण की प्रक्रिया से थोड़ा संतोष पाना शुरू किया, हाँलाकि परिपूर्णता तो नही आ रही थी, अनेक बच्चे अभी भी छूटे हुए हैं| सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि इस प्रक्रिया में हमें माता पिता का सहयोग चाहिए लेकिन वह नगण्य था। होता भी कैसे, लोग अपनी जीविका के लिए लड़ रहे थे| बोर्ड अपनी तरफ से कोर्स डिजाइन कर भेज रही थी, पढ़ने पढ़ाने के तरीकों की झड़ी लगा रही थी लेकिन वह किस हद तक लागू हो पाएगा यह उन्हें कौन बताए | पूरा विश्व ऑन लाइन पढ़ाई करा रहा था| हमने भी तो पूरी कक्षाएं सजा दी थी | और फिर दूसरी लड़ाई शुरू हुई वह थी कुछ जागरूक अभिभावक की आपत्ति “ क्या बच्चे फोन से ही चिपके रहें”, यह कौन सा तरीका है” | दूसरी झड़ी थी हमारे तीन बच्चे हैं “क्या हम सबको फोन दे ?” “हमें ऑनलाईन नहीं पढ़ाना, यह स्कूल के फीस लेने के तरीके हैं|” कुछ आपत्ति हमें जायज लगी, उस पर काम हुआ बच्चों के स्क्रीन टाइम को घटा दिया, कक्षाओं के समय में भी अदला बदली की गई, बच्चों को कॉपी में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया गया | इन सब तरीकों को अपना कर हम पठन पाठन का काम करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन schooling नही हो पा रही थी | इसके लिए फिर हमने गतिविधियां करनी शुरू की| जो चीज सबसे अधिक परेशान करने लगी वह थी इस परिस्थिति से जूझने के लिए बच्चों में खुद से सीखने की इच्छा और माद्दा जगाना होगा| लेकिन कैसे? मैं आज की मानसिक संरचना में इस चीज पर विश्वास करती हूँ कि अगर सीखने सिखाने की प्रक्रिया में कुछ आयाम जोड़ने हैं तो उसे मूल्यांकन से जोड़ों, मैंने वही किया । हमारी मूल्याकन प्राणाली में सेल्फ़ एक्स्प्रेससन को खास जगह मिली | कुछ हद तक अच्छा लगा लेकिन अभी भी majority हमारे पास नहीं थी। इन सब तरीकों के साथ एक जो जबरदस्त खींच तान चल रही थी वह था आर्थिक पक्ष। सक्षम अभिभावक भी विद्यालय फीस देने राजी नहीं थे, फिर जिन्हें परेशानी थी उनकी बात ही जुदा है। हम फीस क्यों दे या फिर पूरी फीस क्यों दें वाली बहस। सरकार की घोषणाएं इन्हें और हवा देतीं, साथ ही शिक्षा का व्यवसाय भी अपने हथौड़े बरसा रहा था | मजबूरी गहराने लगी लोगों का हाथ छूटने लगा। किसी तरह दोनों पक्षों के जोड़ तोड़ के बाद साथ निभाने के वादे के साथ हम चलते रहे | लेकिन अभी भी जिस चीज ने सबसे ज्यादा परेशान कर रखा था वह थी schooling न कर पाने की तकलीफ। यह नजर आ रहा था है कि कुछ क्षेत्र में हमारा प्रयास काम कर रहा है, लेकिन इतने प्रयास के बावजूद न जाने कितने बच्चों का हाथ छूट गया, कितने वापस उसे दुनिया में लौट गए जहाँ से हम उन्हें बाहर लाने की कोशिश कर रहे थे। उनकी दूरी किताबों की दुनिया से ही नहीं बनी थी बल्कि उन सारे आयाम से हुई थी जिसके द्वारा उनके चेहरे पर खूबसूरत, खिली मुस्कान आती थी। यह दर्द बुरी तरह चुभता है। इन सबके साथ इस तंत्र से जुड़े हर पक्ष को आर्थिक और मानसिक रूप से कमजोर होते देखना और महसूस करना सबसे बड़ी त्रासदी महसूस होती है, इसके आगे कोरोना का भय कहीं खो जाता है।