उत्तर प्रदेश में सक्षम नेतृत्व की तलाश

डा. राधेश्याम द्विवेदी
सशक्त, समृद्ध व गौरवमय पहचान वाला प्रदेश:-
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आते जा रहे हैं,विभिन्न राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ती जा रही है। अभी से विभिन्न राजनीतिक दलों ने भावी नेतृत्व के विकल्प की खोज शुरू कर दी है, जो देश के सबसे बड़े प्रान्त को सुशासन दे सके। कुछ पार्टियां सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए अपने को ही विकल्प बता रही हैं । इसी वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक- यही लोकतंत्र का आधार भी है और इसी से लोकतंत्र भी परिलक्षित होता है। मतदाता को भी अपनी जिम्मेदारी एक वफादार चैकीदार के रूप में निभानी होगी। एक समय इस प्रदेश के नेतृत्व ने समूचे राष्ट्र के लिये उदाहरण प्रस्तुत किये थे, लोकतंत्र को सशक्त बनाने में अहम भूमिका निभाई थी, वही नेतृत्व जब तक पुनः प्रतिष्ठित नहीं होगा तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी।
आज उत्तर प्रदेश को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो प्रदेश की खुशहाली एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि माने। पिछले दो दशक में उत्तर प्रदेश में ज्यादातर सरकारों ने जहां लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाई वहीं उनका कामकाज, आर्थिक स्थिति या कानून व्यवस्था इतनी खराब रही है कि प्रदेश की जनता स्वयं को जख्मी महसूस करने लगी। सत्ता और स्वार्थ ने प्रांत की महत्वाकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठता रहा है कि प्रदेश में मतदाता हर पांच साल बाद सत्तारुढ़ दल को अस्वीकार कर देता है। सत्तारुढ़ दल के खिलाफ मतदाता का गुस्सा हर चुनाव में दिखाई देता रहा है।
अब 2017 में अखिलेश यादव के कार्यों की समीक्षा जनता के द्वारा की जानी है। कांग्रेस अभी भी कमजोर है। भाजपा 2014 की विजय के बाद उत्तर प्रदेश में फिर से उभर चुकी है। अब अखिलेश सरकार के विकल्प के रूप में मायावती और भाजपा में घमासान होने की संभावना बन रही है। लम्बे दौर से प्रदेश की राजनीति विसंगतियों एवं विषमताओं से ग्रस्त रही है। इन स्थितियों से मुक्त होने के लिये भाजपा और बसपा के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों को आने वाले चुनाव में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे ताकि प्रदेश को ईमानदार और पढ़े-लिखे, योग्य उम्मीदवार के रूप में सफल नेतृत्व मिल सके। जो भ्रष्टाचारमुक्त शासन के साथ विकास के रास्ते पर चलते हुए राजनीति की विकृतियों से छुटकारा दिला सके।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक परिवेश एवं विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों को देखते हुए अहसास होता है कि राजनीतिक दल में कोई लीडर नजर नहीं आ रहा जो स्वयं को लोकतांत्रिक मूल्यों में ढाल, मजदूरों की तरह श्रम करने का प्रण ले सके। सिर्फ सरकार बदल देने से समस्याएं नहीं मिटती। अराजकता और अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम नेतृत्व चाहिए। उसकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा चाहिए। यही समय जागने का है, अतीत को सीख बनाने का है। उन भूलों को न दोहरायें जिनसे प्रदेश की संवेदनशीलता जख्मी हुई है। विकास लड़खड़ाया है। जो सबूत बनी है हमारे असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, राजनीतिक स्वार्थों की, जल्दबाजी में लिये गये निर्णयों की, सही सोच और सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन परिणामों की।
upजाति, विकास, सांप्रदायिकता और आतंकवाद प्रमुख मुद्दे:- एक बार फिर उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में जातिवाद, विकास, सांप्रदायिकता और आतंकवाद प्रमुख मुद्दे होंगे, जिनके इर्द-गिर्द ये चुनाव केन्द्रित रहेगा। उत्तर प्रदेश के बारे में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यहां के मतदाता अपना वोट किसी दल को नहीं अपनी जाति के नेता को देते हैं। चुनाव के दिन विकास का मुद्दा धरा रह जाता है और चुनाव का आधार जाति और धर्म बन जाता है। इसलिए राम मंदिर का मुद्दा चुनाव के समय बोतल में बंद जिन्न की तरह एक बार फिर बाहर आ सकता है। आस्था के प्रतीक राम मंदिर के मुद्दे को जनभावनाओं को उद्वेलित करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। यही कारण है कि कभी जाति तो कभी धर्म चुनाव जीतने के माध्यम बनते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में विकास का पहिया उतनी तेजी के साथ नहीं चल सका जितना देश के बाकी राज्यों में चला। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण और भौगोलिक दृष्टि से सशक्त होने के बावजूद उत्तर प्रदेश पिछड़ता चला गया। क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के पास कभी कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं रहा है ।
जो प्रांत लोकतन्त्र की पाठशाला और प्रयोगशाला माना जाता रहा है, उत्तर प्रदेश में शून्यता का माहौल बनना गभीर चिन्ता का विषय है। लोकतंत्र की बुनियाद है राजनीति, जिसकी जनता की आंखों में पारदर्शिता होना चाहिए। मगर आज राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिये हैं, छलनाओं के मकड़ी जाल इतने बुन लिये हैं कि उसका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिये बहुत कठिन हो गया है। प्रदेश की राजनीति में किसी भी दल के प्रति मतदाता का विश्वास कायम नहीं है क्योंकि वहां किसी भी मौलिक एवं सार्वदैशिक मुद्दे पर स्थिरता नहीं और जहां स्थिरता नहीं वहां विश्वास और आस्था कैसे संभव होगी? बदलती सरकारें, बदलती नीतियां, बदलते वायदे और बदलते चेहरे और बयान कैसे थाम पायेगी करोड़ों की संख्या वाले इस प्रांत का आशाभरा विश्वास? इसके लिये जरूरी है ऐसे ही किसी नये चेहरे की तलाश जो उम्मीदों पर खरा उतर सके।
कांग्रेस की नए ढंग की रणनीति:- कांग्रेस ने आखिरकार गंभीर सूझबूझ के बाद शीला दीक्षित को पार्टी के चेहरे के रूप में उतार दिया। अब उन्हीं पर कांग्रेस की डूबती नैया को किनारे लगाने की जिम्मेबारी है। कांग्रेस ने एक पखवाड़े के भीतर उप्र चुनाव के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से तबाड़तोड़ फैसले लिए हैं, उनसे इतना जरूर तय है कि कांग्रेस ने प्रदेश की सियासी जमीन पर हलचल मचाते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। ब्राह्मण चेहरा होने के कारण उप्र की राजनीति में जो ब्राह्मण अब तक दुविधा में थे, उन्हें खुली राह तो दिखाई दी है, लेकिन प्रदेश में जिस तरह से पिछड़ी, दलित और मुसलमान जातियां पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, उसके चलते फिलहाल यह कहना मुश्किल ही है कि प्रदेश में असली चुनावी दांव खेलकर सत्ता पर काबिज कौन होता है ?
ब्राह्मण चेहरा को कोई खास महत्व नहीं : बसपा का सिमटना तय:- ऐसे में भाजपा, सपा और कांग्रेस तो उभरती दिखाई देंगी, लेकिन बसपा का सिमटना तय है। शीला को प्रदेश का चेहरा बनाने में कांग्रेस के राणनीतिकार प्रशांत किशोर की सलाह ने भी अहम् भूमिका निभाई है। ब्राह्मण कांग्रेस का परंपरागत मजबूत वोट बैंक रहा है। लेकिन बाबरी ढांचे के विध्वंस और मंदिर-मंडल की राजनीति से जुड़े मुद्दों में उछाल के चलते कांग्रेस से यह वोट बैंक खिसक गया। इस दौरान इसने भाजपा, सपा और बसपा सबको आजमाया और उप्र की सत्ता तक इन दलों को पहुंचाने में मददगार भी बना। बावजूद ब्राह्मणों को उप्र के सियासी पटल पर कोई खास महत्व नहीं मिला। इस दुविधा से वे आज भी ग्रस्त हैं। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 10 प्रतिशत बताई जाती है। इनमें यदि निचले दर्जे के ब्राह्मण जोगी, पंडे, ओझा, जांगिड़ और भूमिहारों को भी जोड़ दें तो यह संख्या बढ़कर 14 प्रतिशत हो जाती है। बावजूद ब्राह्मण 14 फीसदी तक ही सिमटे नहीं रह जाते। ये अपने प्रभाव से अन्य समाजों के मतदाताओं को भी अपने पक्ष में ले लेते हैं। स्थानीय मीडिया और नुक्कड़ चैपालों पर बढ़ चढ़ कर राजनीति की बातें करने वाले वर्ग में ब्राह्मण ‘हवा‘ बनाने में निपुण हैं। इसीलिए इनके वास्तविक प्रभाव को कहीं ज्यादा आंका जाता है। 2007 के विधानसभा चुनाव में उप्र में महज 19 फीसदी ब्राह्मण मतदाताओं ने मायावाती को वोट दिए थे, इनमें भी सर्वाधिक वोट उन विधानसभा क्षेत्रों में मिले थे, जहां ब्राह्मण उम्मीदवार थे। बावजूद बसपा स्पष्ट बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गई थी। 2012 में ब्राह्मणों को रिझाने का मायावती का यही नुस्खा मुलायम सिंह यादव ने अपनाया और बेटे अखिलेश यादव को देश के सबसे राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। शीला को कांग्रेसी चेहरे के रूप में पेश करने में राणनीतिकार प्रशांत किशोर का दखल तो है ही, लोकनीति के एक सर्वे ने भी कदमताल मिलाने का काम किया है। इस सर्वे से पता चला कि बाबरी विध्ंवस के बाद ब्राह्मणों का जो वोट बैंक कांग्रेस से अलग होकर भाजपा के पाले में चला गया था, वह भाजपा से उप्र के विधानसभा चुनावों में टूटा है। 2002 में भाजपा को ब्राह्मणों के 50 प्रतिशत वोट मिलं थे, जो 2007 में घटकर 44 प्रतिशत रह गए थे। मसलन एक साथ 6 फीसदी वोटों की कमी आई। यही स्थिति बसपा को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में मददगार साबित हुई थी। क्योंकि उसे ब्राह्मणों के 19 फीसदी वोट मिले थे। ब्राह्मणों के इतने ही वोट 2012 में सपा को मिले। इन आंकड़ों का प्रशांत ने गंभीरता से आकलन किया और कांग्रेस को सलाह दी कि शीला दीक्षित को राज्य में चुनाव से संबंधित बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जांए।
27 साल से उप्र में पराजित हो रही कांग्रेस को इस आकलन से संजीवनी मिली और शीला को चुनावी चेहरा घोषित कर दिया। इससे कांग्रेस को फिलहाल एक साथ दो फायदे हुए हैं, एक तो प्रदेश में सोई कांग्रेस में आशा की नई लहर अंगड़ाई लेने लगी है, दूसरे मतदाताओं के लिहाज से बहुत बड़ी संख्या व प्रभावी भूमिका निभाने वाले वर्ग के खोए समर्थन के पक्ष में आने की उम्मीद बढ़ गई है। फिलहाल ये उम्मीदें इसलिए बढ़ी लग रही हैं, क्योंकि अब तक भाजपा, सपा और बसपा ने प्रदेश में चुनावी राणनीति की दृष्टि से जो भी निर्णय लिए हैं, उनमंम ब्राह्मणों की ज्यादा परवाह दिखाई नहीं दी है। पंजाब के कपूरथला में पैदा होने से शीला पंजाब की बेटी है। उनकी शादी उप्र के प्रमुख नेता उमाषंकर दीक्षित के आईएस बेटे विनोद से हुई। दीक्षित उन्नाव के रहने वाले थे। आगरा में जब विनोद पदस्थ थे, तभी से शीला ने समाज सेवा के बहाने राजनीति की शुरूआत कर दी थी। बाद में प्रत्यक्ष राजनीति में आ गईं और 1984 में कन्नौज से सांसद भी चुनी गईं। हालांकि इसके बाद वे तीन मर्तबा चुनाव हारीं भी। इसके बाद शीला 1998 से लेकर 2013 तक लगातार तीन मर्तबा दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान बनाया। शीला को चुनावी चेहरा बनाने के बावजूद कांग्रेस शायद ही आष्वस्त हो। यदि ऐसा होता तो वह प्रियंका या राहुल को भी चेहरा बना सकती थी।
दरअसल यह एक प्रयोग है, जिससे आजमाते हुए वह नए ढंग से राजनीतिक सारोकार साधना चाहती है। एक तो पार्टी ने श्री प्रकाश जायसवाल, राज बब्बर, सलमान खुर्षीद, जितिन प्रसाद, प्रमोद तिवारी, इमरान मसूद, रीता बहुगुणा, जफर अली नकबी और अब्दुल्ल मन्नान को चुनावी मुहिम से जोड़कर उप्र में उपलब्ध अपने सब संसाधनों को शीला के साथ खड़ा करके लगभग गुटबाजी को विराम दे दिया है। हालांकि टिकट बंटबारे के समय यह गुटबाजी उभर भी सकती है। दूसरे, नारायण दत्त तिवारी के बाद उप्र में कांग्रेस का जो अध्याय खत्म हो गया था, उसका अगला अध्याय लिखने की जवाबदेही शीला को सौंप दी है। शीला को आगे लाकर सोनिया गांधी ने पारिवारिक स्तर पर अपने बेटे-बेटी का बचाव भी किया है।
राहुल की आगुआई में पिछले आमचुनाव के अनुभवों को परख लिया है ? लिहाजा बेटी प्रियंका अब उनके पास राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की उम्मीद की अंतिम किरण हैं। यह प्रयोग इसलिए भी किया गया है जिससे कांग्रेस यदि उत्तर प्रदेश का मैदान नहीं जीत पाती है, तब भी उनके पास 2019 के आमचुनाव की बड़ी चुनौती पेश आनी हैं। तब शायद विश्वव्यापी हुए मोदी की चुनौती के लिए सीधे प्रियंका को उतारा जाए ? इस चुनाव में चेहरा भले ही शीला दीक्षित है, लेकिन यह तय है कि पर्दे के पीछे बागडोर सोनिया, राहुल और प्रियंका ही थामे रहेंगे।
बीजेपी की तैयारी:- इस सब के बावजूद नरेंद्र मोदी ने अमित शाह के साथ मिलकर केंद्रीय मंत्रिमण्डल में फेरबदल करके जो चुनावी बिसात बिछाई है, उसे भेदना मुश्किल ही है। क्योंकि इनमें हर उस नेता को प्रधानता दी है, जिसकी अपनी जाति पर पकड़ पुख्ता है। भाजपा के इस जातीय आधार पर हुए फेरबदल का सामना सपा और बसपा को भी करना मुश्किल होगा। कांग्रेस के साथ अभी भी दिक्कत यह है कि उसके पास कोई दो बड़े जातीय समूह नहीं हैं। लिहाजा ब्राह्मणों के साथ जब तक दलित या मुस्लिमों का तालमेल नहीं बैठता, तब तक कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में जीत बीरबल की खिचड़ी ही साबित होती रहेगी। हालांकि कांग्रेस ने मतदाताओं को अपने पाले में लाने का बड़ा दांव चल दिया है। लेकिन सब जानते है कि लोकतंत्र में असली दांव तो जाति से बेरंग मतदाता ही खेलता है। पिछले कुछ एक-दो सालों में बीजेपी ने चुनाव के बहुत से रंग देखे, एक तरफा जीत देखी, इतिहास रचते हुए देखा, जीती हुई बाजी हारते हुए देखी, शर्मनाक हार देखी. कुल मिलाकर बीजेपी ने अपना उत्थान और पतन पिछले कुछ दिनों में देख लिया. अब केसरिया दल के लिए वक्त संभल के चलने का है. कदम कहां रखना है और इसका क्या नफा नुकसान हो सकता है, सारी संभावनाओं को देखते हुए बीजेपी आने वाले चुनावों की तैयारी कर रही है. आने वाले वक्त में कुछ राज्यों में चुनाव होने है, पश्चिम बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश इसमें मुख्य तौर पर है. बीजेपी के लिए वैसे तो सभी चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होते है लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव बीजेपी किसी भी हाल में हारना नहीं चाहती है. क्योकि इसी यूपी चुनाव पर आने वाले वक्त की बीजेपी की सारी रणनीति फंसी है. लिहाजा बीजेपी उत्तर प्रदेश को लेकर खास मंथन कर रही है, वहां की राजनीतिक हवा और धरती ही नहीं बल्कि राजनीति नभ आकाश और जल को भी ध्यान में रखा जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में साल 2017 में विधानसभा चुनाव होने है. बीजेपी के मुख्य प्रतिद्वंदि यूपी में बहुजन समाजवादी पार्टी और समाजवादी पार्टी है, इसके अलावा कांग्रेस भी कुछ हद तक चुनौती बन सकती है, ऐसे में यूपी में बीजेपी के चेहरे में मायावती जैसा कद और अखिलेश जैसा युवापन चाहिए. क्योकि उत्तर प्रदेश की राजनीति दलित और पिछड़ों को ध्यान में रखते हुए की जाती है, लेकिन सवर्ण वोट की संख्या भी कम नहीं है इसलिए ऐसे वोटों का भी पार्टी को ध्यान रखना है, लेकिन फिलहाल यूपी की टीम में पार्टी के पास कोई भी चेहरा नही हैं. पार्टी सीएम उम्मीदवार के लिए भी चेहरे की तलाश कर रही है.
यूपी विधानभा के लिए स्मृति इरानी को प्रोजेक्ट करने की तैयारी है, और इसी सुगबुगाहट के बीच स्मृति इरानी का अमेठी बार बार पहुंचना, काफी हद तक इस बात की पुष्ठि करता है. स्मृति इरानी में पार्टी को मायावती जैसा कद और अखिलेश यादव जैसा यंग फेस दिखाई दे रहा है. एक सूत्र से जानकारी मिली है कि पार्टी में योगी आदित्यनाथ, संगीत सोम, उमा भारती और राजनाथ सिंह जैसे नामों की चर्चा चल रही थी. राजनाथ सिंह केंद्र में व्यस्त है, उधर उमा भारती की अगुवाई में बीजेपी 2012 में हार का मुंह देख चुकी है. आदित्यनाथ और संगीत सोम को लेकर पार्टी तैयार है.
विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस ने शीला दीक्षित को अपना सीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया। जिसके बाद बीजेपी कांग्रेस के ‘ब्राह्मण कार्ड’ को लेकर पसोपेश में है। ऐसे में संघ ने भाजपा को सीएम कैंडिडेट के रूप में गोरखपुर के सांसद महंत आदित्यनाथ का नाम सुझाया है। इसके पीछे संघ का तर्क है कि चुनाव में भाजपा को महंत की कट्टर हिंदूवादी छवि का पूरा लाभ मिलेगा। हालांकि सीएम कैंडिडेट के लिए भगवा खेमे में दो लोगों महंत आदित्यनाथ और वरुण गांधी के नाम पिछले पांच-छह महीने से जोरशोर से चल रहे हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो पिछले दिनों इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सीएम कैंडिडेट के नाम पर चर्चा होनी थी, मगर शीर्ष नेतृत्व ने उस वक्त यह कहकर चर्चा से इनकार कर दिया कि सीएम कैंडिडेट का फैसला पार्टी का संसदीय बोर्ड करेगा।
यूपी के यह चुनाव अगले साल होने वाले आखिरी चुनाव नहीं है। यदि देखा जाए तो आजादी के बाद से ही देश की राजनीति चुनावी राजनीति होकर रह गई है, और तमाम मुद्दे वह केवल और केवल चुनाव के आधार पर ही उठाए जाते हैं। सवाल यह है कि यूपी का चुनाव केवल मुद्दों का ही चुनाव नहीं होगा बल्कि इसके चुनाव परिणाम उसके बाद लगातार होने वाले चुनावों पर भी असर डालेंगे। यहां यह बताना उल्लेखनीय होगा कि 2017 से 2019 तक इस देश में केवल चुनाव ही होना है और उसका शंखनाद यूपी के चुनावों से शुरू हो जाएगा। यदि आने वाले चुनाव कार्यक्रम पर नजर डालें तो, 2017 में यानी की अगले साल फिर पांच राज्यों में चुनाव हैं। इनमें गोवा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर शामिल हैं, जबकि वर्ष 2018 में सात राज्यों में चुनाव है, इनमें मप्र, राजस्थान, गुजरात, नगालैंड, कर्नाटक, मेघालय, हिमाचल, त्रिपुरा, मिजोरम जैसी विधानसभा शामिल है, वहीं 2019 में ही लोकसभा के भी चुनाव हैं, ऐसे में देखा जाए तो आने वाले तीन सालों में भारत एक तरह से चुनावों का महोत्सव मनायेगा और इसमें कितना पैसा पानी की तरह खर्च होगा यह जनता खुद जानती है।
आज जब चुनाव आयोग संसद और विधानसभा चुनाव साथ में कराने पर विचार कर रहा है परन्तु चुनाव आयोग की मुश्किल यह है कि जब तक संसद से ऐसा कोई बिल पास नहीं होता तब तक तो चुनाव आयोग के हाथ भी बंधे हुए हैं। मोटा सवाल यह है कि इन दिन रात होते चुनावों से देश का, देश की जनता का कितना नुकसान हो रहा है इसका अंदाजा क्या कभी लगाया गया है। काम एक होता नहीं और चुनाव मंदिर में बंटते प्रसाद की तरह हो रहे हैं। विकास हाशिये पर चला गया है जबकि चुनाव मुख्य काम हो गया है। यहां कोई ऐसा नहीं है जो जनता की नुमाइंदगी कर नेताओं से हर पांच सालों का हिसाब मांग सके। दिल्ली की जनता जब भाजपा और कांग्रेस से उक्ता गई, तो एकदम नई पार्टी आम आदमी पार्टी को एकतरफा चुनाव में जिता कर अपने काम की इतिश्री कर ली, बाद में पता चला कि वह भी जनता को ठग ही रही है, कुकुरमुत्तों की उग आए सियासी दलों और चुनावी राजनीति के बीच जनता को उसका असली हक कब मिलेगा।

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