मां-बेटा पार्टी और ये उम्मीदवार

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के उम्मीदवारों की घोषणा करते हुए कहा है कि चुनावी-गणित के मुताबिक उन्हें हारना ही है लेकिन उनके दोनों उम्मीदवारों को देश के 18 राजनीतिक दल समर्थन दे रहे हैं याने विरोधी दलों की एकता मजबूत हो रही है और दूसरा, यह चुनाव वैचारिक संघर्ष को मैदान में ला रहा है। यह संकीर्णता, सांप्रदायिकता और विभाजनकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ शंखनाद है।

क्या खूब ? बातों के लिहाज से इस अदा का कोई जवाब नहीं है। कौन सी विरोधियों की एकता ? राष्ट्रपति के मामले में बिहार की उम्मीदवार मीरा कुमार का विरोध बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ही कर रहे हैं। उप्र में मुलायमसिंह भी उनको वोट नहीं देंगे। कुछ अन्य विरोधी दलों के बड़े नेताओं से मेरी बात हुई है। वे भी अपने सांसदों और विधायकों को अंतःकरण की छूट दे रहे हैं, जैसा कि सोनियाजी ने अपील की है।

विरोधी दलों की एकता तो मृग-मरीचिका भर है। इस समय कोई भी विरोधी नेता ऐसा नहीं है, जो नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़ा हो सके। खुद कांग्रेस पार्टी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन कर रह गई है। यदि मीरा कुमार और गोपाल गांधी जैसे श्रेष्ठ उम्मीदवार उक्त पदों के लिए खोजे जा सकते हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के लिए क्यों नहीं खोजे जा सकते हैं ? मुझे पूरा विश्वास है कि मीराजी और गोपालजी कांग्रेस पार्टी को मां-बेटे की तुलना में काफी अच्छी चला सकते हैं।

जहां तक वैचारिक संघर्ष का सवाल है, कौनसा वैचारिक संघर्ष ? विचार नाम की वस्तु भारतीय राजनीति से कभी की अंर्तध्यान हो गई है। गांधी की कांग्रेस तो कभी की चल बसी है। अब तो मां-बेटा कांग्रेस है और सत्ता ही एक मात्र विचार है। दोनों पदों के लिए सोनियाजी ने मांग की है कि सांसद और विधायक अपने अंतःकरण के अनुसार वोट दें। क्या नेताओं का अंतःकरण भी होता है ? दोनों श्रेष्ठ उम्मीदवारों को अपनी डूबती नाव पर सवार करवा कर अब आपने उनको बचाने का यह नया पैंतरा मार दिया है। धन्य है, देवी !!

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