मधेश, मोदी और मश्वरा

madhesh-modiएक कहावत है ‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना’, पिछले कुछ दिनों में नेपाल की वो जनता, जिनकी नीयत हमेशा से मधेश के लिए बर्इमान रही है, मोदी के मश्वरे ने उनके लिए कुछ ऐसा ही वातावरण तैयार कर दिया है । मोदी तयशुदा कार्यक्रम में आए और चले गए । बहुत कुछ उन्होंने कहा और लोगों ने आत्मसात् किया । आज भी नेपाल की पत्र-पत्रिकाओं में उनसे सम्बन्धित आलेख छप रहे हैं । असर अब भी बरकरार है । उन्होंने क्या दिया या फिर क्या ले गए, इन सब से परे उनके एक मश्वरे ने कुछ लोगों को काफी खुश किया । मधेश दबा रहे, मधेशी पिछडे रहें और उन्हें हमेशा नकारा जाता रहे, ये सोच जिनकी है, उनके लिए मोदी का यह कहना कि ‘पहाडी के विरुद्ध ना जाएं, उन्हें साथ लेकर चलें’ बिल्कुल लक्ष्मण बूटी साबित हो रही है । मृतप्राय सोच जो कहीं ना कहीं उनके हृदय में दमित थी, उसे मानो फिर से पुनर्जीवन मिल गया हो । पर इस सर्दर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि ‘जाकी रही भावना madhesh modiजैसी….।’ आप जो सुनना चाहते हैं आपकी बुद्धि वही अर्थ निकाल लेती है । मोदी एक राजनयिक हैं और एक विशाल देश के प्रतिनिधि भी । नेपाल भ्रमण में अगर उनकी जुवान से सबसे अधिक कुछ निकला तो वह था, बुद्ध, संविधान और विकास । बुद्ध अर्थात् शांति, संविधान अर्थात् स्थिरता और अधिकार, विकास अर्थात् नेपाल और नेपाली जनता के स्वाभिमान और अधिकार के साथ एक विकसित राष्ट्र की कल्पना । इसमें कहीं भी एक र्सार्वभौम सत्ता के बिखरने और अलग होने की बात नहीं है । उन्होंने कहा कि संविधान ऐसा हो जिसका पूर्णविराम भी ऐसा न हो जो भविष्य में विषवृक्ष बने, संविधानरूपी गुलदस्ते में देशरूपी बगीचे का हर फूल सजे और उनका अस्तित्व कायम हो । क्या इन वाक्यों के पीछे का संदेश उन्हें नजर नहीं आ रहा जो यह सोच कर खुश हो रहे हैं कि मोदी ने मधेश को नकार दिया है । जो व्यक्ति शस्त्र से शास्त्र के लिए देश को बधाई दे रहा है, वह आपको यह संदेश दे रहा है कि भविष्य में भी आप इसी राह पर चलें क्योंकि असंतुष्टता ही विरोध को जन्म देती है । अगर देश की राजनीति ने मधेश को दरकिनार किया तो असंतुष्टता का विष वृक्ष जन्म लेगा और फिर उसमें जो फलेगा वह निश्चय ही देश हित में नहीं होगा । मिल कर चलना कभी एकतरफा नहीं होता है, उसके लिए सामने वाले के कदम भी साथ बढने चाहिए । अगर मोदी ने देश के समग्र विकास की बात कही तो क्या उसमें मधेश नहीं है – अगर ‘मधेश’ शब्द ‘देश’ से अलग सुनना चाहते हैं, तो यह उनकी मानसिकता है जो मधेश को देश से अलग समझते हैं । सच तो यह है कि जो दमित हैं, शोषित हैं, विकास की ओर जिनकी निगाहें टिकी हैं उन सबको साथ लेकर चलना है । आज प्रकृति ने जो दर्द सिन्धुपालचोक को दिया, तर्राई को दिया क्या उनके दर्द को हम पहाड और तर्राई में बाँट कर देखेंगे – नहीं, उनकी पीडा को हमें समग्र में महसूस करना होगा । इसलिए अगर समग्र विकास की बात होती है तो वह हिमाल, पहाड और तर्राई के सर्न्दर्भ में होती है पर अफसोस इस बात का है कि हमारे प्रतिनिधि ही हमारे साथ सौतेला व्यवहार करते हैं । अभी एक समारोह में अर्थमंत्री महत ने कहा कि समय बदल चुका है, अब नेपाल को ठगा नहीं जा सकता । जी हाँ, समय बदल चुका है नेपाल को अगर कोई नहीं ठग सकता, तो मधेश नेपाल का ही अंग है वह अपनों से कैसे ठगा जाएगा – आज तक नियति यही रही कि उसे गैर नहीं, अपने ही छलते आ रहे हैं किन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता । मधेश की भी जुबान है और उसे भी अहसास है कि नेपाल के विकास और संवृद्धि में उसका क्या महत्व है । मधेश देश के लिए वह रीढ की हड्डी है, जो अगर न हो तो सम्पूर्ण देश पंगु हो जाएगा । इस सत्य को जितनी जल्दी मान लिया जाय उतना अच्छा होगा । संविधान निर्माण और संघीयता की बहस जारी है । एक कटु सत्य है कि मधेशी दल मजबूती के साथ अपनी बात रख पाने की स्थिति में नहीं है । किन्तु जिनपर मधेशी जनता ने विश्वास किया है, अगर वो उनके साथ न्याय नहीं करेंगे तो विचलन और विखण्डन की मार देश को चाहे-अनचाहे झेलना पड सकता है । मधेशवादी दल, ‘मधेश’ नहीं है, वो सिर्फप्रतिनिधि हैं । उन्होंने अतीत में जो गलतियाँ की जनता ने उसका अहसास उन्हें करा दिया है । इसलिए आज जो वहाँ का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उन्हें लाने वाली भी वही मधेशी जनता है, जो अर्श से र्फश तक गिराने का दमखम रखती है, यह उन्हें नहीं भूलना चाहिए ।
जहाँ तक मधेशी दलों का सवाल है, तो उन्हें काठमान्डू में बैठकर सम्मेलन करने से अधिक अपने क्षेत्र में जाने की आवश्यकता है । जो विश्वास जनता के बीच उसने खो दिया है उसे फिर से पाने की आवश्यकता है । इस सर्दर्भ में जयप्रकाश गुप्ता की पार्टर्तमरा’ अवश्य आगे बढती हुई दिख रही है । किसी के सामने गुहार लगाने से अच्छा होगा कि आप अपनों के बीच जाएँ, अपनी कहें और उनकी सुनें और आगे बढने की नीति तय करें । एकीकरण और एकजुट होने की आवश्यकता है, इस सत्य को जानें । अध्यक्ष पद की लोलुपता और परिवारवाद के मोह से बाहर निकलने की आवश्यकता भी है और समय की मांग भी । युवाशक्ति को मौका दें, उन्हें आगे बढाएँ, आपका अनुभव और उनका जोश अवश्य एक नया संदेश प्रचारित करेगा । अभी भी अगर पद की ओर निगाहें हैं तो हश्र और भी बुरा होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है । समय निराश होने का नहीं, बल्कि स्वयं में नई उर्जा और उम्मीद के साथ कल को अपने पक्ष में करने का है । आप मधेश के अपने हैं, अगर आपने मधेशी जनता की उम्मीदों और आवश्यकताओं को समझने की कोशिश की तो वह आपको फिर अवसर देगी और इसके लिए उनके बीच आपको जाना होगा ।
संविधान बनाने का अवसर बार-बार नहीं आता, समयानुकूल परिवर्तन होते रहते हैं । जनयुद्ध, जनआन्दोलन, मधेश आन्दोलन, जनजाति, महिला, दलित, अल्पसंख्यक आदि के किए गए संर्घष्, त्याग और बलिदान के पश्चात् जो अवसर प्राप्त हुआ है और पिछले निर्वाचन में जनता ने बहुमत के द्वारा जो दायित्व सत्ताधारी पक्ष को दिया है उनमें ही हठ और विरोध की राजनीति दिखाई पड रही है । फलस्वरूप संविधान निर्माण का मार्ग अवरुद्ध होता नजर आ ही रहा है साथ ही द्वन्द्ध की भी स्थिति बनती दिखाई पड रही है । जिस ‘ऋषिमन’ की बात पर संविधानसभा तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा था वह ‘ऋषिमन’ कहीं दिखाई नहीं दे रहा । देश फिर से द्वन्द्व का शिकार ना हो, इसके लिए सहमति की शर्त सबसे अधिक मायने रखती है । संविधानसभा के निर्वाचन में जो पार्ट  हो गए हैं, उन्हें भी साथ लेकर चलने और सहमति तथा सहयोग का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है क्योंकि, अगर कहीं से विभेद का वातावरण बनेगा तो इसकी पूरी जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होगी । २०६४ साल फागुन १६ गते जो समझौता गिरिजाप्रसाद कोईराला, पुष्पकमल दाहाल प्रचण्ड और माधवकुमार नेपाल के समक्ष हुआ था अगर उसके अनुरूप कार्यान्वयन नहीं हुआ, तो जो आग भडकेगी उसे शांत करना मुश्किल हो जाएगा इसलिए देश की नब्ज को समझने की आवश्यकता है । मोदी ने कहा कि शस्त्र नहीं यह शास्त्र रचने की धरती है, तो इसके भीतर का निहित अर्थ यही है कि संविधानरूपी शास्त्र को ऐसे रचा जाय कि शस्त्र का अस्तित्व सामने न आए । मोदी ने मधेश के अस्तित्व को नहीं नकारा है, बल्कि बार-बार अप्रत्यक्ष रूप से यह जताया है कि, मधेश नेपाल का महत्वपूर्ण अंग है और उसे शोषण नहीं बल्कि आने वाले संविधान में समानता का अधिकार चाहिए । एक राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ किसी दूसरे देश के आंतरिक पक्ष पर अपनी सलाह दे सकता है, दवाब नहीं और इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि जिस पक्ष को वह सलाह दे रहा है उसे वह नकार रहा है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि वह उससे यह उम्मीद कर रहा है कि, वह अपने अधिकार और विकास की बात इस तरह रखे कि हवा का रुख उसके विरोध में नहीं बल्कि उसके पक्ष में हो जाय । मधेश और भारत का रिश्ता इतना अटूट है कि, उसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । भारत मधेश को मजबूत देखना चाहता है इसलिए बार-बार एकजुट होने की सलाह दे रहा है । अगर आज वह किसी भी प्रकार के सहयोग की बात कर देता है तो निश्चितता की सम्भावना अधिक बलवती हो जाएगी । बच्चा जब चलना सीखता है, तो अभिभावक उसकी ऊँगली को छोड देते हैं, ताकि वो गिरे और फिर उठ कर चले । आज मधेश उसी स्थिति में है, उसे चलना है, गिरना है, उठना है और फिर दौडना भी है । आज अभिभावकत्व की कमी अवश्य है किन्तु, निराशा की अवस्था बिल्कुल नहीं है । समय परिवर्त्तनशील है, आज जुबान मिली है, तो कल हक भी मिलेगा इसलिए किसी एक मश्वरे पर शोषक वर्ग और तथाकथित राष्ट्रीयतावादी को खुश होने की तो बिल्कुल जरूरत नहीं है, अपनी कपोल कल्पना से उबरें और हकीकत से रू-ब-रू हों ।

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