मध्य प्रदेश में जारी है सामंती प्रथा

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भारत देश को आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, भारत में गणतंत्र की स्थापना भी साठ पूरे कर चुकी है, बावजूद इसके आज भी देश के हृदय प्रदेश में मध्ययुगीन सामंती प्रथा की जंजरों की खनक सुनाई पड रही है। कहने को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश भर में सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए ढेर सारे जतन किए हों, पर कागजी बातों और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड रहा है। पिछले साल मानवाधिकार आयोग के सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश में सर पर मैला ढोने वाले लोगों की तादाद लगभग सात हजार दर्शाया जाना ही अपने आप में सबसे बडा प्रमाण माना जा सकता है। उधर देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में दलितों की हालत बद से बदतर ही है।

मध्य प्रदेश के अलावा देश के और भी सूबे एसे होंगे जहां सर पर मानव मल ढोने वालों की खासी तादाद होगी। मध्य प्रदेश में ही होशंगाबाद, सीहोर, हरदा, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, भिण्ड, टीकमगढ, राजगढ, उज्जैन, पन्ना, छतरपुर, नौगांव, निवाडी आदि शहरों और एक दर्जन से भी अधिक जिलों में इस तरह की अमानवीय प्रथा को प्रश्रय दिया जा रहा है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस भले ही दलितों के उत्थान के लिए गगनभेदी नारे लगती रही हो पर सच्चाई यह है कि आज भी इसी कांग्रेस की नीतियों के चलते बडी संख्या में दलित समुदाय के लोग इस तरह की प्रथा के जरिए अपनी आजीविका कमाने पर मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि आज भी हिन्दु धर्म में बाल्मिकी समाज तो मुस्लिमों में हैला समाज के लोग देश में सर पर मैला ढोने का काम कर रहे हैं।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज भी परंपरागत तरीके से सिर पर मैला ढोने का काम, शौचालयों की साफ सफाई, मरे पालतू या शहरों में पाए जाने वाले जानवरों को आबादी से दूर करने, नाले नालियों की सफाई, शुष्क शौचालयों के टेंक की सफाई, चिकित्सालय में साफ सफाई, मलमूत्र साफ करने के काम आदि को करने वाले दलित सुमदाय के लोगों का जीवन स्तर और सामाजिक स्थितियां अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही दयनीय है। सरकारों द्वारा इन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल अवश्य ही किया जाता हो, पर इन्हें मुख्य धारा में शामिल होने नहीं दिया जाता है। सरकारों द्वारा दलित उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ इस वर्ग के दलित लोगों को ही मिल पाता है, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

गौरतलब है कि भारत सरकार ने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना में सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की गरज से राज्यों और नगरीय निकाय संस्थाओं को शुष्क शौचालय बनाने के लिए नागरिकों को प्रोत्साहन देने के लिए वित्तीय प्रावधान भी किए थे। आश्चर्य तो तब होता है जब इतिहास पर नजर डाली जाती है। 1971 में भारत सरकार ने दस साल की आलोच्य अवधि में सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने हेतु चरणबध्द तरीके से अभियान चलाया था। दस साल तो क्या आज चालीस साल बीतने को हैं, पर यह कुप्रथा बदस्तूर जारी है।

इसके बाद 1993 में सरकार की तंद्रा टूटी थी, तब सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय संनिर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया गया था, जिसके तहत प्रावधान किया गया था कि जो भी व्यक्ति यह काम करवाएगा उसे एक वर्ष के कारावास और दो हजार रूपए अर्थदण्ड की सजा का भोगमान भुगतना पड सकता है। कानून के जानकार बताते हैं कि देश में कुछ इस तरह के कानून और भी अस्तित्व में हैं, जो सर पर मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगाते हैं। रोना तो इसी बात का है कि सब कुछ करने के बाद भी चूंकि जनसेवकों की नीयत साफ नहीं थी इसलिए इसे रोका नहीं जा सका।

सरकार द्वारा इस काम में संलिप्त लोगों के बच्चों को अच्छा सामाजिक वातावरण देने, साक्षर और शिक्षित बनाने के प्रयास भी किए हैं। सरकार ने इसके लिए बच्चों को विशेष छात्रवृति तक देने की योजना चलाई है। इसके तहत बच्चों को छात्रवृत्ति भी दी गई। मजे की बात यह है कि जिन परिवारों ने इस काम को छोडा और कागजों पर जहां जहां सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त होना दर्शा दी गई वहां इन बच्चों की छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई है।

देश के पिता की उपाधि से अंलकृत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाने में कांग्रेस द्वारा अब तक कोई कोर कसर नही रख छोडी है। बापू इस अमानवीय प्रथा के घोर विरोधी थे। बापू द्वारा उस समय के अपने शौचालय को स्वयं ही साफ किया जाता था। सादगी की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी के नाम को तो खूब कैश कराया है कांग्रेस ने पर जब उनके आचार विचार को अंगीकार करने की बात आती है तब कांग्रेस की मोटी खाल वाले खद्दरधारी नेताओं द्वारा मौन साध लिया जाता है।

दलित अत्याचार के मामले में यूपी कम नहीं

दलित परिवारों को प्रश्रय देने में उत्तर प्रदेश काफी हद तक पिछडा माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में 2006 में एससी एसटी के 1759, 2007 में 2410, तो 2008 में 2390 मामले दर्ज किए गए। आईपीसी के मामलों ने तो सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। 2206 में 2238, 2007 में 3064 तो 2008 में इनकी संख्या बढकर 3543 हो गई थी। दलित महिलाओं की आबरू बचाने के मामले में 2006 से 2008 तक 255, 339 एवं 333 मामले प्रकाश में आए। ये तो वे आंकडे हैं जिनकी सूचना पुलिस में दर्ज है। गांव के बलशाली लोगों के सामने घुटने टेकने वाले वे मामले जो थाने की चारदीवारी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं, उनकी संख्या अगर इससे कई गुना अधिक हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

खबरें तो यहां तक आ रहीं हैं कि दलित बच्चों के साथ शालाओं में भी भेदभाव किया जाता है। अनेक स्थानों पर संचालित शालाओं में दलित बच्चों को मध्यान भोजन के वक्त उनके घरों से लाए बर्तनों में ही खाना परोसा जाता है। इतना ही नहीं शिक्षकों द्वारा इन बच्चों को दूसरे बच्चों से अलग दूर बिठाया जाता है। देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दासता का सूरज डूबा नहीं है। आलम कुछ इस तरह का है कि दलित लोगों के साथ अन्याय जारी है। गांव के दबंग लोग इनसे बेगार करवाने में भी नहीं चूक रहे हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आजादी के बासठ सालों बाद भी गांवों में बसने वाला भारत स्वतंत्रता के बजाए मध्य युगीन दासता में ही उखडी उखडी सांसे लेने पर मजबूर है।

-लिमटी खरे

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