मांगलिकता एवं समृद्धि का प्रतीक है कलश

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-ललित गर्ग –
navratra kalash
भारतीय संस्कृति में विविध मांगलिक प्रतीकों का विशिष्ट महत्व है। विशेषतः हिन्दू धर्म में इन मांगलिक प्रतीकों का बहुत प्रचलन है। हर मांगलिक कार्य चाहे नया व्यापार, नववर्ष का आरंभ, गृह प्रवेश, दिवाली पूजन, यज्ञ, अनुष्ठान, विवाह, जन्म संस्कार आदि सभी में इन मांगलिक प्रतीकों का उपयोग होता है, इनके बिना कोई भी अनुष्ठान अधूरा ही रहता है। इन मांगलिक प्रतीकों के साथ मांगलिक भावनाएं जुड़ी होती है, जिनसे व्यक्ति सुख, समृद्धि, उन्नति एवं रिद्धि-सिद्धि प्राप्त करता है। इन्ही मांगलिक प्रतीकों में कलश का भी महत्वपूर्ण स्थान है। सभी धार्मिक कार्यों एवं अनुष्ठानों में सबसे पहले कलश की स्थापना की जाती है और इसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है। छोटे अनुष्ठानों से लेकर बडे़-बड़े धार्मिक कार्यों में कलश की पूजा एवं स्थापना जरूरी है। इस प्रकार कलश भारतीय संस्कृति का वह प्रतीक है जिसमें समस्त जगत के कल्याण की भावनाएं निहित होती हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और शुभताओं का प्रतीक माना गया है। यह कलश विश्व ब्रह्मांड, विराट ब्रह्मा एवं भू-पिंड यानी ग्लोब का प्रतीक है। इसमें सम्पूर्ण देवता समाए हुए हैं। पूजन के दौरान कलश को देवी-देवता की शक्ति, तीर्थस्थान आदि का प्रतीक मानकर स्थापित किया जाता है। मनुष्य के जीवन में जन्म से लेकर मृत्य तक कलश अनेक रूपों में उपयोग होता है। क्योंकि यह जीवन में व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर सकारात्मक ऊर्जाओं को स्थापित करता है।
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कलश के मुख में विष्णुजी का निवास, कंठ में रुद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं और कलश के मध्य में दैवीय मातृशक्तियां निवास करती हैं। अर्थात सृष्टि के नियामक विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा एवं समस्त दैवीय शक्तियां इस ब्रह्माण्ड रूपी कलश में व्याप्त हैं। समस्त समुद्र, द्वीप, यह वसुंधरा, ब्रह्माण्ड के संविधान चारों वेद इस कलश में स्थान लिए हैं। इसका वैज्ञानिक पक्ष यह है कि जहाँ इस घट का ब्रह्माण्ड दर्शन हो जाता है, जिससे शरीर रूपी घट से तादात्म्य बनता है, वहीं ताँबे के पात्र में जल विद्युत चुम्बकीय ऊर्जावान बनता है। ऊँचा नारियल का फल ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का केन्द्र बन जाता है। जैसे विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए बैटरी होती है, वैसे ही मंगल कलश ब्रह्माण्डीय ऊर्जा संकेंद्रित कर उसे बहुगुणित कर सम्पूर्ण सृष्टि में फैला देता है, जो वातावरण को दिव्य बनाती है। कलश एक ऐसा चमत्कारी प्रतीक है, जो स्वयं में सम्पूर्ण सृष्टि के मागल्य की कामना का समेटे है। कलश की ऊर्जा, ताप, प्रकाश एवं शीतलता जीवन की एक सार्थक व्याख्या है, क्योंकि बिना ऊर्जा के निष्प्राण चेतना मृत्यु है। बिना ताप के विकास की यात्रा निरुद्देश्य है। बिना प्रकाश का जीवन घुप अंधेरों में डूबा मौन सन्नाटा है और बिना शीतलता के जीवन असंतुलित है। इसलिये हर घर में कलश की स्थापना बुनियादी जरूरत है। इसकी स्थापना सम्पूर्ण सृष्टि को गतिशीलता, तेजस्विता और कर्मशीलता देती है।
मंगल का प्रतीक कलश अष्ट मांगलिकों में से एक होता है। जैन साहित्य में कलशाभिषेक का महत्वपूर्ण स्थान है। जो जल से सुशोभित है वही कलश है। कलश में भरा पवित्र जल इस बात का संकेत हैं कि हमारा मन भी जल की तरह हमेशा ही शीतल, स्वच्छ एवं निर्मल बना रहें। हमारा मन श्रद्धा, तरलता, संवेदना एवं सरलता से भरे रहें। यह क्रोध, लोभ, मोह-माया, ईष्या और घृणा आदि कुत्सित भावनाओं से हमेशा दूर रहें। मंदिरों में प्रायः कलश शिवलिंग के ऊपर स्थापित होता है जिसमें से निरंतर जल की बूंदें शिवलिंग पर पड़ती रहती है। कलश पर लगाया जाने वाला स्वस्तिष्क का चिह्न चार युगों का प्रतीक है। यह हमारी 4 अवस्थाओं, जैसे बाल्य, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था का प्रतीक है।
पौराणिक शास्त्रों के अनुसार मानव शरीर की कल्पना भी मिट्टी के कलश से की जाती है। इस शरीररूपी कलश में प्राणिरूपी जल विद्यमान है। जिस प्रकार प्राणविहीन शरीर अशुभ माना जाता है, ठीक उसी प्रकार रिक्त कलश भी अशुभ माना जाता है। इसी कारण कलश में दूध, पानी, पान के पत्ते, आम्रपत्र, केसर, अक्षत, कुमकुम, दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प, सूत, नारियल, मिश्री, फल, अनाज आदि का उपयोग कर पूजा के लिए रखा जाता है। इसे शांति का संदेशवाहक माना जाता है।
पौराणिक साहित्य में कलश की बहुत महिमा गायी गई है। अथर्ववेद में घी और अमृतपूरित कलश का वर्णन है। वहीं ऋग्वेद में सोमपूरित कलश के बारे में बताया गया है। रामायण में बताया गया है कि श्रीराम का राज्याभिषेक कराने के लिए राजा दथरथ ने सौ सोने के कलशों की व्यवस्था की थी। राजा हर्ष भी अपने अभियान में स्वर्ण एवं रजत कलशों से स्नान करते थे।
कलश की उत्पत्ति के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं जिसमें से एक समुद्र मंथन से संबंधित है जिसमें कहा गया है कि समुद्र मंथन से निकले चैदह प्रतीकों में कलश भी एक है। समुद्र जीवन और तमाम दिव्य रत्नों और उपलब्धियों का स्रोत है। कलश भी दिव्य और चमत्कारी है। यह भी शास्त्रों में वर्णित है कि अमृत को पीने के लिए विश्वकर्मा ने कलश का निर्माण किया। वैसे हिन्दू धर्म में प्रचलित सभी मांगलिक प्रतीकों एवं रीति-रिवाजों का वैज्ञानिक महत्व भी सर्वाधिक है।

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