एक बार फिर बिहार सरकार और छात्र आमने सामने है। इस बार सरकार के साथ छात्रों का संघर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर है। हालांकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने समय समय पर ऐसे कई राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर आन्दोलन किये है लेकिन इस बार का आन्दोलन अभिनव है। परिषद् जिस सरकार के खिलाफ जंग में उतरी है वह सरकार परिषद् के वैचारिक दोस्त भारतीय जनता पार्टी की वैशाखी पर चल रही है। प्रदेश का उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी परिषद के छात्र आन्दोलन की उपज हैं साथ ही सरकार के कई मंत्री अभाविप की कृपा पर ही सत्ता के केन्द्र में हैं और सरकारी मलाई चाभ रहे हैं। वर्तमान आन्दोलन के लिए एकाएक छात्र सडक पर नहीं उतरे। छात्रों का आक्रोश किशनगंज के उस अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के केन्द्र से है जो आदिवासियों की जमीन पर बनायी जा रही है। किशनगंज के एएमयू केन्द्र के खिलाफ विद्यार्थी परिषद ने पहले सरकार को बाकायदा ज्ञापन दिया, फिर धरना दिया गया, लेकिन जब सरकार की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी तो विगत 29 मार्च को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता लगभग 25 हजार छात्रों के साथ बिहार विधानसभा को धेरने निकल पडे। विद्यार्थी परिषद् के इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर बिहार पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरशायी जिसमें कुल 133 छात्र बुरी तरह घायल हो गये। हजारों छात्रों को गिरफ्तार किया जा चुका है। विगत एक दशक के बाद पहली बार बिहार के छात्रों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है। याद रहे यह आन्दोलन न तो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और न ही कोई शौक्षणिक मुद्दों को लेकर है। यह आन्दोलन राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर है। परिषद् के द्वारा चलाये जा रहे वर्तमान आन्दोलन की जद में भ्रष्ट लालू सरकार नहीं है और न ही वे कांग्रेसीजन हैं जिन्होंने बिहार के साथ सदा केन्द्र के द्वारा किये अन्याय में बराबर के हिस्सेदार हैं। जिसके खिलाफ विद्यार्थी परिषद् ने मोर्चा खोला है वह सुशासन बाबू की संज्ञा से विभुषित घुर समाजवादी, लोहियापंथी, करपुरी जी के परम शिष्य नितिश कुमार की सरकार है।
नितिश जी को यह समझ लेना चाहिए कि वे भी छात्र आन्दोलन की उपज हैं। बिहार का छात्र अगर आन्दोलन के लिए तैयार हो जाता है तो चाहे कितनी भी मजबूत सत्ता क्यों न हो तनिक समय तो लगता है परंतु उसे उखाड कर ही वह दम लेता है। आखिर वैचारिक मित्र भाजपा गठबंधन से चल रही सरकार के खलाफ विद्यार्थी परिषद् ने क्यों राड ठानी है। इसके पीछे का करण बिहार सरकार के द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा की अवहेलना है। परिषद् शिक्षा के साम्प्रदायीकरण के खिलाफ समझौते के पक्ष में नहीं है। बिहार मे वर्तमान बवाल की जडकिशनगंज में खुलने वाले अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा है। छात्रों की मांग है कि यह शाखा कही और खोल दी जाये। उसके पीछे आन्दोलनरत छात्रों का तर्क है कि यहां विश्वविद्यालय की शाखा खुलने से इस क्षेत्र में सांप्रदायिक आतंकवाद की जडें मजबूत होगी।
आन्दोलनरत छात्रों की मांग जायज है। गृहमंत्रालय और केन्द्रीय गुप्तचर विभाग का मानना है कि नेपाल और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में विगत 20 साल के अंदर बडी तेजी से मदरसे और मस्जिदों का निर्माण हुआ है। इस बात का खुलासा मामले के जानकार हरेन्द्र प्रताप पाण्डेय ने भी अपनी पुस्तक में किया है। किशनगंज का इलाकानेपाल और बांग्लादेश की सीमा पर है। इस गलियारे को चिकेन नेक गलियारा भी कहा जाता है। यहां नेपाल के रास्ते पाकिस्तान एवं चीनी गुप्तचर सक्रिय हैं। जिस प्रकार से विश्व में इस्लामिक आतंकवाद का उभार हुआ है उससे इस बात को बल मिलता है कि जहां इस्लामी छात्रों की जमात होती है वहां गैर सामाजिक और अराष्ट्रवादी गतिविधियों को सह मिलने लगता है। इससे पहले किशनगंज के गायसल नामक स्थान पर दो ट्रेनें आपस में टकरा गयी थी। ट्रेन की टक्कर से सैकडों लोग मारे गये। इस ट्रेनों में यात्रा करने वाले ज्यादातर लोग भारतीय सेना के सदस्य थे। जब इस दुर्घटना की जांच रपट सामने आयी तो चौकाने वाले तथ्य भी सामने आये। तथ्यों की मिमांशा से यह पता चला कि ट्रेन दुर्घटना महज एक घटना नहीं थी गाडियों को बाकायदा टकराने के लिए मजबूर किया गया था। उस गतिविधि में जितने लोग थे वे सारे एक ही संप्रदाय विशेष के थे। जांच जब आगे बढी तो मालुम हुआ कि यह घटना असोम में सक्रिय पृथकतावादी संगठन उल्फा और पाकिस्तानी गुप्तचर संगठन आईएसआई की संयुक्त ऑप्रेशन का प्रतिफल था। यही नहीं चीन नेपाल में तीन उच्चस्तरीय तकनीक का राष्ट्रीय राजमार्ग बना रहा है। एक राष्ट्रीय मार्ग को दक्षिण पूर्व नेपाल के मोरंग सीमा तक लेजाने की योजना है। नेपाल के माध्यम से चीन भारत सरकार पर यह दबाव डालता रहा है कि नेपाल से बांग्लादेश को जोडने वाली एक सडक के लिए भारत सरकार अनुमति दे। नेपाल सरकार की मांग को भारत सरकार ने अभी ठंढे बस्ते में डाल रखा है। चीन की योजना है कि सामरिक दृष्टि से महत्व रखने वाले बंगाल की खाडी में वह अपनी उपस्थिति सूनिश्चि करे। चीन अपने माध्यम से भी इस प्रयास में लगा है और चीन ने बांग्लादेश के स्वामित्व वाले सुन्दरवन के डेल्टाई क्षेत्र में एक सामरिक महत्व का बंदरगाह विकसित कर रहा है। उस बंदरगाह से चीन एक सडक लहासा तक ले जाना चाहता है। ऐसे में चीन पाकिस्तान दोनों की नजर किशनगंज के उस 32 किलोमिटर वाले चिकेन नेक पर है। जब इस क्षेत्र में मुस्लिम गतिविधियां बढेगी तो स्वभाविक है कि वहां एक नये प्रकार का समिकरण भी विकसित होगा। चीन और पाकिस्तान की दोस्ती जगजाहिर है। विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रवादी कार्यकर्ता इस मामले को कई मंचों से बराबर उठाते रहे हैं। ऐसे में उनका गुस्स स्वाभाविक है। लेकिन बिहार सरकार को तो साम्प्रदायिक तूटिकरण में विश्वास है।
विद्यार्थी परिषद के नेताओं का कहना है कि अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास अच्छा नहीं रहा है। इस विश्वविद्यालय के कारण ही भारत का विभाजन हुआ। आज भी विश्वविद्यालय में पृथक्तावादी शक्ति सक्रिय है। अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास वेहद काला है। जहां एक ओर दुनिया का सबसे बडा मोदरसा बरेली और देवबंद ने देश के विभाजन का विरोध किया था वही यह विश्वविद्यालय देश विभाजनकारी शक्तियों का केन्द्र हुआ करता था। इस प्रकार के विश्वविद्यालय का केन्द्र किशनगंज जैसे सामरिक और संवेदनशील जिले में खोला जाना देश की सुरक्षा के साथ खिलवार करना है।
सबसे अहम बात यह है कि पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के केन्द्रीय मानवसंसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने देश में अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पांच शाखा खोलने की घोषण की थी। जिसमें बिहार का किशनगंज, पश्चिम बंगाल का मोर्सीदाबाद, महाराष्ट्र का पूणे, मध्य प्रदेश का भोपाल और केरल का मल्लापुरम को चयन किया गया था। लेकिन अभी तक किसी राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय केन्द्र स्थापना के लिए जमीन आवंटित नहीं की है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कौम्यूनिस्ट पाटी की सरकार है, मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, केरल में भी सीपीएम की ही सरकार है और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है। किसी सरकार ने सुरक्षा तो किसी ने जमीन नहीं होने का बहाना बना अभी तक जमीन नहीं दिया है लेकिन बिहार सरकार ने जमीन आवंटित कर एक रहस्य को जन्म दिया है।पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालने और किशनगंज में घटी घटनाओं की व्याख्या के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आखिर किशनगंज को ही पहला निशाना क्यों बनाया गया है।
किशनगंज विश्वविद्यालय केन्द्र का दूसरा पक्ष भी जानने योग्य है। आज से 25 साल पहले विश्वविद्यालय केन्द्र के लिए आवंटित भूमि को आदिवासियों में बांट दिया गया था। आदिवासी उसपर खेती कर रहे हैं। अब सरकार ने उन जमिनों को अधिग्रिहित कर एएमयू को आवंटित कर दी है। इससे यह साबित होता है कि नितिश सरकार को गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की चिंता नहीं है अब वे भी सत्ता का स्वाद चख चुके हैंऔर तूस्टिकरण के माध्यम से मुस्लिम को पटा फिर से सत्ता पर काबीज होना चाहते हैं। विश्वविद्यालय को कुल 247.30 एकड जमीन दी गयी है। कोचाधामन और किशनगंज प्रखंड के जिस क्षेत्र की जमीन इस विश्वविद्यालय को दी गयी है वहां आदिवासियों की संख्या अच्छी है। साथ ही यह इलाका चाय की खेती के लिए भी उपयुक्त माना जाता है। स्थानीय भूमाफिरया भी इस इलाके से आदिवासियों को खदेरने के फिराक में है। जब मुस्लिम विश्वविद्यालय का केन्द्र यहां खुलेगा तो भूमाफियाओं को बना बनाया हुडदंगियों का समूह मिल जाएंगा। ऐसे में स्थानीय आदिवासियों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।
कुल मिलाकर ऐसे ही कुछ आधारभूत मुद्दों को लेकर बिहार के छात्र सरकार के खिलाफ दो दो हाथ करने में लगे हैं। इधर बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अनिल शर्मा ने बिहार सरकार पर इसी मुद्दे को लेकर क्षद्म मुस्लिम प्रेम का आरोप लगाया है। लेकिन एक सवाल शर्मा जी से पूछा जाना चाहिए कि आखिर पूणे में भी तो विश्वविद्यालय काकेन्द्र खुलना है वहां की सरकार ने विश्वविद्यालय केन्द्र के लिए जमीन क्यों नहीं दी है?
बिहार का वर्तमान छात्र आन्दोलन किस करवट बैठेगा, इसपर अभी कुछ कह देना जल्दबाजी होगी लेकिन जिस प्रकार बिहार विद्यार्थी परिषद् ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे तो यह साबित हो गया है कि आगे इस आन्दोलन का प्रभाव राजनीतिक गठजोड पर भी पड सकता है।
-गौतम चौधरी