महानरेगा की महाआरती

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने देश में बढती महंगाई का अजीबोगरीब कारण महानरेगा के कारण आई समृद्धि को ठहराया है। शीला दीक्षित का बयान मंहगाई से पिसते गरीबो के जले पर नमक छिडकने जैसा है। महानरेगा ग्रामीण भारत की तस्वीर भले ही न बदल पायी हो परन्तु इसने सरपंचो की रंगत जरुर बदल दी है। महानरेगा में जहां ग्रामीणों को साल में 100 दिन काम की गारंटी है जिसमे प्रतिदिन 100 रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाना है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने स्वंय स्वीकार किया है कि नरेगा में 70 फीसदी लोगों को एक दिन भी काम नहीं मिल पाया है।

महानरेगा यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, को लाने के पीछे उद्देश्य था कि अप्रशिक्षित ग्रामीण मानव शक्ति को गावों में ही रोजगार दिया जाये जिससे ग्रामीण मजदूरों की क्रयशक्ति बढे तथा स्थानीय बाजारों में व्यापार में वृध्दि हो। ग्रामीण महिलाओं को गावों में ही काम मिले जिससे उनका शोषण रोका जा सके और गावों से महानगरों की ओर पलायन रोका जा सके। इस प्रकार महानरेगा महानगरों को बचाने का उपक्रम था परन्तु हो यह रहा है कि उ.प्र. तथा बिहार से पंजाब जाने वाले खेतिहर मजदूरों की संख्या में भारी कमी आयी है। ऐसे मामले सामने आये हैं कि जिनमे जॉब कार्ड बनाने के बाद काम हिटाची मशीनों से करा लिया गया। और कमीशनखोरी के चलते मजदूरों को 100 दिनों के भुगतान के बिना काम के ही 1500 से 2000 रुपये देकर खानापूर्ति कर ली गयी। इस प्रकार के मामले सामने आने पर अब 1 अक्टूबर 2008 से इस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये शासन ने मजदूरों को सीधे बैंकखातों से भुगतान करने की प्रक्रिया कर दी है तो कम कमीशन के कारण काम में सुस्ती आ गयी है और योजना को पलीता लगाने के नये तरीके इजाद किये जा रहे हैं।

महानरेगा की महाआरती की महातैयारी मध्यप्रदेश में अभी हाल में सम्पन्न हुये पंचायत चुनावों में में देखने को मिली। 22795 ग्राम पंचायतों के अर्न्तगत 55,393 गावों में 3,63,337 पंचों तथा 313 जनपदों में 6816 जनपद सदस्यों तथा 50 जिलों के 843 जिला पंचायत सदस्यों के मतदान में सर्वाधिक हिंसा सरपचं के पद के लिये हुयी। इस भारी मारा-मारी को देखकर प्रश्न किया जा सकता है कि हर कोई केवल सरपंच ही क्यों बनना चाहता है? लायसेंसी हथियारों के थानों में जमा होने के बाबजूद अवैध हथियारों के साथ इतनी अराजकता तो सांसद पद के लिये भी नहीं हुयी थी। कारण साफ है कि सरपंच की कुर्सी पाकर महानरेगा के महाबजट पर हाथ साफ करके अधिकतर सरपंच रातोंरात मालामाल होना चाहते हैं। 22795 ग्राम पंचायतों के लिये चालू वित्ताीय वर्ष 2009-10 में महानरेगा के लिये 39,100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसका मतलब है कि एक पंचायत के हिस्से में औसत 1,71,52,884 रुपये तो केवल महानरेगा के ही है। जिसमें ग्रामीण विकास, जल संचय, कृषि, पौधरोपण, बाढ़ नियंत्रण, तालाबों का निर्माण, छोटे चैक डेम का निमार्ण, लोक निर्माण के अर्न्तगत आने वाले ऐसे कार्य जिनमे जान का जोखिम न हो करवाने के अधिकार सरपंच को दिये गये हैं। इन कामों के अलावा यदि 30 लाख रुपये प्रतिवर्ष का अतिरिक्त अन्य विभागों से मिलने वाला आबंटन भी इसमें जोड दिया जाये तो यह राशि 2 करोड़ रुपये से भी ज्यादा बैठती है जो एक सांसद निधि से भी अधिक है। पंचायती राज में सरपंच को जिस प्रकार के अधिकार दिये गये हैं उतने तो राष्ट्रपति को भी नहीं है। संरपच खुद सामान खरीदते हैं खुद ही बिल बना लेते हैं और खुद ही पास कर के चैक बना कर खुद ही पैसा बैंक से निकाल लेते हैं। एक ही पद पर इतने अधिकार भारतीय संबिधान में किसी भी संबिधानिक पद को प्राप्त नहीं है।

केन्द्रीय राज्यमंत्री प्रदीप जैन को अगस्त 2009 में टीकमगढ़ जिले के दौरे में एक ही दिन में अलग-अलग स्थानों के बारे में नरेगा में गड़बड़ियों की 300 शिकायतें मिली थीं। यह किस्सा केवल एक जिले का हो ऐसा नहीं है पूरे प्रदेश में कमोवेश हालात ऐसे ही हैं। 2005 से शुरु हुयी इस योजना में पिछले तीन सालों मे कमीशनखोरी और निमार्ण कार्य में की गयी गंभीर अनियमितताओं से मजदूरों के हकों के पैसे का बंदरबांट किया जा रहा है। पैसे की इस बारिश ने सरपंचो और महानरेगा से जुडे लोगों को तरबतर कर दिया है और यही कारण है कि जो युवा कल तक अपने गांव और खेतों की ओर उपेक्षा से देखते थे वे अब गांवों की राजनीति में गहरी रुचि ले रहे हैं। पंचायत चुनावों में इस बार जिला डेलीगेट और डेलीगेट से भी ज्यादा रुचि सरपंच के पद को लेकर रही है क्यों कि ग्रामों में होने वाले सभी कार्यो के लिये नोडल ऐजेन्सी ग्राम पंचायत ही होती है। यंहा तक कि बीपीएल सूची में भी सरपंच की अनुशंसा से ही नाम दर्ज होता है। विगत पांच वर्षो की तस्वीर देखें तो साफ पता चलता है कि महानरेगा ने ग्रामीण मजदूरों को दो जून की रोटी की व्यबस्था भले ही न कर पायी हो परन्तु सरपंचों और संबधितों को मलाई जरुर दी है। एक अनुमान के मुताबिक लगभग तीन चौथाई सरपंचों के पास लक्जरी चारपहिया बाहन हो गये है। जब कि नरेगा को लागू हुये कुल तीन ही साल हुये हैं।

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ सी पी जोशी के खुद के निर्वाचन क्षेत्र भीलवाडा की 11 ग्राम पंचायतों में हुई एक बर्ष की सोशल ऑडिट में एक ग्राम पंचायत में ही 20 लाख रुपये का फर्जीवाडा सामने आया है यह तो केवल नमूना है सारे देश में ही महानरेगा का महा घालमेल चल रहा है। चुनावों मे इस बार सरपंच पद के लिये जिस प्रकार धन और बल लगाया गया है वह सरपंच बनने के बाद महानरेगा से ही महाबसूली होनी है। धन के इस प्रवाह ने सरपंच की हैसियत डेलीगेट और जिला डेलीगेट से से भी ज्यादा कर दी है। डेलीगेट और जिलाडेलीगेट का महत्व तो जनपद अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के बाद किसी विशेष काम का का नहीं रह जाता है, जबकि सरपंच के पास पांच सालों तक विकास कार्यों के नाम पर धन का सतत् प्रवाह बना रहता है।

-डॉ. मनोज जैन

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