अरुण तिवारी
मैं देवदार का घना जंगल,
गंगोत्री के द्वार ठाड़ा,
शिवजटा सा गुंथा निर्मल
गंग की इक धार देकर,
धरा को श्रृंगार देकर,
जय बोलता उत्तरांचल की,
चाहता सबका मैं मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल….
बहुत लंबा और ऊंचा,
हिमाद्रि से बहुत नीचा,
हरीतिमा पुचकार बनकर,
खींचता हूं नीलिमा को,
मैं धरा के बहुत नीचे,
सींचता हूं खेत को भी,
फूटते तब झरने निर्मल,
मैं देवदार का घना जंगल…
याद है पदचाप मीठी,
गंग की बारात अनूठी,
कोई नौना और ब्योली,
कोई सिर पर फाग बांधे,
कोई लिए लकुटी उमर की,
बन घराती आस्था का
गान गाता हूं मैं मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…
बाजुएं फैलाए लंबी,
कर रहा मैं दिव्य स्वागत,
रख रहा सब नाज नखरे,
मोटरों का देख रेला
तीर्थ पर सब भोगियों को,
हूं परेशां सोचकर मैं,
कब रुकेगा भोग दंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…
दौड़ने को बड़ी गाड़ी,
बहुत काली और चौड़ी
सड़क भोगी ला रहे हैं,
तोड़ते नित हिमधरों को,
झाड़ते नदी बीच मलवा,
नष्ट करते शिवजटा को,
काट डाला है मुझी को,
मैं देवदार का घना जंगल…
क्रोध में हिमराज योगी,
दे रहा है नित्य झटके,
सूत्र रक्षक भैजी-दीदी,
कर रहे गुहार सबसे,
रोक लो विघ्वंस जग का,
न रचो खुद का अमंगल,
चाहता मैं सबका मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…..