-श्रीराम तिवारी-
विगत रविवार को ब्रिटेन के कुछ लोकतंत्रवादियों ने ८०० वाँ ‘मैग्नाकार्टा संधि दिवस’ मनाया। इस मैग्नाकार्टा संधि के इतिहास ,लोकतंत्र के क्रमिक विकास या ततसंबंधी संबद्धता पर ब्रिटेन की लोकतंत्र समर्थक जनता को बड़ा अभिमान रहा है। हालाँकि राजतन्त्र समर्थकों की वहाँ कभी कमी नहीं रही। अभी भी यदि एक ढूढो तो सौ मिल जायंगे। जैसे की भारत में इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी कुछ लोग -सामंतवादी खंडहरों के मलबे के ढेर में अतीत का काल्पनिक स्वर्णयुग ढूँढ़ने के लिए हलकान हुए जा रहे हैं। वे यह कदापि मानने को तैयार नहीं हैं कि आज जिस भारतीय संविधान की सौगंध खाकर राजयोग -भोग रहे हैं वह ब्रिटिश संविधान के मूल सिद्धांतों की उत्तर मीमांसा मात्र है। इस ब्रिटिश संविधान का अवतरण भी किसी दैविक आकाशवाणी या चमत्कार से नहीं हुआ । बल्कि ‘विश्वविख्यात मैग्नाकार्टा संधि में निहित ‘जनतंत्रीय सूत्रों’ की छाँव में ब्रिटेन की प्रगतिशील – लोकतान्त्रिक जनता ने शताब्दियों में इसका महत सम्पादन किया है।
संसार में मानवीय सभ्यता -संस्कृति -विकाश और सर्वागीण ज्ञान को सूत्रबद्ध किये जाने की परम्परा जितनी पुरानी है। उसे परिभाषित किये जाने और लोकार्पित किये जाने के अलग-अलग दृष्टिकोण भी उतने ही पुरातन हैं। हरेक देश में ,हरेक कबीले में ,हरेक खाप-गोत्र में ,हरेक दौर के प्रगतिशील समाज में -सदा से पृथक-पृथक दृष्टिकोण विद्यमान रहे हैं। अपने पूर्वजों की शिक्षाओं पर अपने अतीत के इतिहास की अवधारणाओं पर भी हमेशा अलग-अलग दृष्टिकोण विद्यमान रहे हैं।वैसे रामराज्य जैसी लोक कल्याणकारी अवधारणा – भारतीय उपमहाद्वीप में भी वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से सदियों से विद्यमान थी।किन्तु इसमें निहित निरंकुश सामंतशाही और स्वछंद – राजतंत्र ने अपने आप को भगवान का स्वरूप घोषित कर रखा था। पुरोहित वर्ग ने राज्यसत्ता को ईश्वरीय आभा प्रदान कर शोषण का ‘अमानवीय स्वभाव’ बना डाला था । लिखित क़ानून के रूप में यदि भारतीय हिन्दू सामंतों के पास ‘मनुस्मृति’ थी तो लुटेरे तुर्क -पठानों -मुगलों के पास उनकी व्यक्तिगत ‘सनक’ के अलावा कुछ नहीं था। इन राजाओं-नबाबों-सामंतों का शब्द्घोष ही संविधान हुआ करता था । जब अंग्रेज इत्यादि यूरोपियन भारतीय उपमहाद्वीप में आये तब यहाँ की प्रबुद्ध जनता ने जाना की जनतंत्र – लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है ?
आज हमारे पास जो सम्विधान है वह ब्रिटिश लोकतंत्र और उसके संविधान की अनुकृति मात्र है। वेशक उसमें मुस्लिम पर्सनल ला ,हिन्दू कोड विल एवं जातीय आरक्षण इत्यादि कुछ अमेंडमेंट किये गए हैं. किन्तु संसदीय लोकतंत्र व् उसके जन प्रतिनिधत्व कानून समेत सभी विधान इत्यादि न केवल भारत में बल्कि राष्ट्रमंडल के सभी [भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों ] देशों में यथावत चलन में हैं। वेशक इन सभी राष्ट्रों को इन अंग्रेजों ने खूब लूटा। किन्तु इन ‘गुनाहों के देवताओं’ ने जाते-जाते इन तमाम गुलाम राष्ट्रों को लोकतंत्र और उसका संविधान देकर उपकृत भी किया है। न केवल लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संविधान बल्कि साइंस एंड टेक्नालजी भी दी।
यह सुविदित है कि पाश्चात्य भौतिक ,वैज्ञानिक व् कानूनी शिक्षाओं ने गुलाम भारत के तत्कालीन जन-मानस को राष्ट्रीय आजादी और लोकतंत्र का आकांक्षी बनाया। हमारे अमर शहीदों और स्वाधीनता सेनानियों में से अधिकांस विलायत रिटर्न हुआ करते थे।वहाँ उन्होंने अमेरिका, फ़्रांस, सोवियत संघ ,चीन क्यूबा ,वियतनाम में सम्पन्न हुई क्रांतियों का अध्यन भी किया। जब स्वदेश लौटे तो विभिन्न किस्म की पूंजीवादी व् साम्यवादी क्रांतियों को आधार बनाकर आजादी की लड़ाई में कूंद पड़े। तत्कालीन अधिकांस युवाओं को ब्रिटेन के पूंजीवादी लोकतंत्र ने अधिक आकर्षित किया। इसीलिये स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों में भी उसी की अनुगूँज सुनाई पड़ी । यदि भारत के नेता बाल गंगाधर तिलक के साथ चलते तो देश में वोल्शेविक क्रांति हो जाती। तब भगतसिंह इत्यादि के सपनों का भारत बनता। तब भारत का संविधान कुछ और होता। शायद चीन की तरह।
लेकिन गांधी -नेहरू के आदर्श पर चलकर हमारे नेताओं ने ब्रिटिश संविधान के अधिकांस मूल तत्वों को ही यथावत अंगीकृत किया। भारतीय संसद ने भी इसे यथावत राष्ट्रीय आचरण बना लिया । आज हम जिस भारतीय सम्विधान के तहत शासित हैं , जिस सांस्कृतिक बहुलतावाद पर गर्व करते हैं। जिस धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य पर गर्व करते हैं ,उसकी प्रेरणा का आधार ब्रिटेन का लोकतंत्र और उसका सम्विधान ही है। ब्रिटेन का संविधान यदि विश्व लोकतंत्र का जनक है तो ‘मैग्नाकार्टासंधि’ उसकी भी पर-पर दादी अम्मा है। इसीलिये इस मैग्नाकार्टा ‘संधि की ८०० वीं सालगिरह पर लोकशाही को नमन। चूँकि भारत के बहुलतावादी समाज में साम्प्रदायिक और जातीय मतभेद भी है और इस मतभेद की जन्मदात्री भी वही इंग्लिस्तानी अम्मा ही है। फिर भी ब्रिटेन को लोकतान्त्रिक अधिकारवाद का जनक तो हम कह ही सकते हैं। अतएव जो लोकशाही का जनक हो उसे हेय दृष्टि से क्यों देखा जाए ?
भारत जैसे गुलाम राष्ट्रों का दृष्टिकोण यह रहा है कि जो कुछ भी पूर्वजों ने सिद्धांत स्थापित किये हैं ,उन्हें जस का तस मानकर उसके प्रति भक्तिभाव रखते हुए अपनी समकालीन निजी और सामूहिक सोच – समझ को संकीर्णता में बांध लिया जाए। उस पौराणिक या प्रागैतिहासिक समझ-बूझ को सर्वकालिक मानकर , ब्रह्म वाक्य मानकर ,अंतिम सत्य मानकर -अतीत का शरणम गच्छामि हो जाना। यदि उन्हें बताया गया है कि मनुष्य मात्र तो ‘आदम और हौआ’ की संतान हैं। यह किसी के पूर्वजों ने लिख दिया कि सारे-के -सारे मरे हुए मनुष्य कयामत के रोज अपंने -अपने कर्मों का दण्ड या इनाम पाएंगे तो वे इस स्थापना को मृत्युपर्यन्त ‘मरे हुए बंदरिया के बच्चे’ की मानिंद छाती से लगाये हुए खुद अतीत को प्यारी होते चले जायंगे। इसके लिए उन्हें यदि’जेहाद’ करना पड़े तो भी वे पीछे नहीं हटेंगे। वे यह सुनने या समझने को कदापि तैयार नहीं कि उनके इस तथाकथित सार्वभौम सिद्धांत को चीन,भारत ,अमेरिका ,जापान ,जर्मनी और इंग्लैंड जैसे राष्ट्रों की सुसंस्कृत और सभ्य जनता क्यों नहीं मानती ?
जिनके पूर्वज लिख गये हैं कि सृष्टि का निर्माण -पालन और संहार विष्णुपुराण के अनुसार ही हुआ है। वे सृष्टि के विस्तार का कारण -विष्णु की नाभि को मानकर चले जा रहे हैं। विष्णु की नाभि से कमल -कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा से मनु-सतरूपा हुए हैं और उन्ही से यह सब संसार समृद्ध हुआ है। इस कपोलकल्पित सिद्धांत की रक्षा के लिए इसके अनुयायी पवित्र ‘धर्मयुद्ध’ का एलान भी कर सकते हैं। उनके पास इसका कोई जबाब नहीं कि उनके इस सारभौम ‘सृष्टि सिद्धांत’को यूरोप , आस्ट्रलिया कनाडा ,जापान,अमेरिका और तमाम मुस्लिम जगत क्यों नहीं मानता ?
जिनका दृष्टिकोण यह रहा है कि “वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों से ज्यादा समझदार और सृजनशील है”। इस सोच वालों की नजर में अतीत के इंसान की सोच का सब कुछ स्याह ही स्याह है। इस सोच के लोग अपने आप को वैज्ञानिक- भौतिकवादी और तर्कवादी मानते हैं । इस अवधारणा का अनुशीलन करने वाले चाहे डार्विन के विकाशवाद को मानते हों ,चाहे वैज्ञानिक भौतिकवादी सृष्टि रचना सिद्धांत को मानते हों, चाहे वे दुनिया भर में हो रहे वैज्ञानिक अनुसंधान के पैरोकार हों -सभी को अतीत का चिंतन ,सृजन या दृष्टिकोण पुरातनपंथी -दकियानूसी लगता है। उन्हें तो इतिहास में भी ‘मिथ’ और पुरातन मानवीय मूल्यों में सिर्फ पाखंड नजर आता है।वे यह भूल जाते हैं कि वे ‘मैग्नाकार्टा संधि ‘ की तरह सनातन काल प्रवाह की धारा के एक विशेष खंड या हिस्सा मात्र हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अतीत के इंसान ने जब आग का आविष्कार किया,जब पहिये का आविष्कार किया ,जब गिरी-कंदराओं और पर्वतों पर भव्य निर्माण किये हैं तो कुछ तो उसका भी साइंटिफिक होगा ? यदि अतीत का सब कुछ भ्रामक ,मन गणन्त है तो फिर इस ८०० साल पुराने मैग्नाकार्टा के डीएनए से क्यों चिपके हुए हैं?
बिजली ,टेलीफोन ,इंटरनेट ,रेल कम्प्यूटर और टीवी कहाँ से आते ? क्या आरबिल और बिल्वर राइट के खटारा नुमा पुरातन उड़नखटोले के आविष्कृत हुए बिना आज के सुपरसोनिक विमान या ड्रोन विमान सम्भव थे ? उपरोक्त दोनों विपरीत दृष्टिकोण और स्थापनाओं के बरक्स हर नयी पीढ़ी, अपने आपको पहले से बेहतर होने का भरम पालती हैं। प्रत्येक दौर का इंसान अपने से पूर्ववर्ती पीढ़ी को गया -गुजरा मानने के दम्भ में यह भूल जाता है की आइन्दा उसके सिद्धांत और नियम भी उसकी भावी पीढ़ियों के दवारा कूड़ेदान में फेंक दिए जाने वाले हैं ! इसी तरह न केवल विकासवादी ,न केवल वैज्ञानिक भौतिक वादी बल्कि अध्यात्म वादी भी अपनी-अपनी स्थापनाओं में अधूरे और खंडित हैं। सत्य यही है कि मैग्नाकार्टासंधि मील का पथ्थर मात्र है।
No single generation can claim complete credit for any perceptible item of development/innovation. All successors build on and add to the achievements of their predecessors. Thus the tree of knowledge grows on and on.
The latest innovation,if it can stand the best of reason ,is as good as the fresh rose bedecked with sparking dew. Any new opinion are alwayssuspected ,and usually opposed ,without any reason but because they are not alredy common .
thanks you sir ji …for your nice & penetrative comments…!