हर आदमी आज यहाँ,
ज्वालामुखी बन चुका है।
क्रोध कुंठा ईर्ष्या की आग
भीतर ही भीतर सुलग रही है।
कोई फटने को तैयार बैठा हैं,
कोई आग को दबाये बैठा है,
किसी के मन की भीतरी परत में,
चिंगारियां लग चुकी हैं।
कोई ज्वालामुखी सुप्त है,
कोई कब फट पड़े कोई नहीं जानता।
समाज की विद्रूपताओं का सामना करने वाले
या उनको बदलने वाले अब नहीं रहे क्योंकि
सब जल रहे हैं भीतर से और बाहर से.
क्योंकि वो ज्वालामुखी बन चुके हैं।
ज्वालामुखी का पूरा समूह फटता है ,
तो कई निर्दोष मरते है, जब बम फटते है,
नाइन इलैवन या ट्वैनटी सिक्स इलैवन होता है।
किसी बड़े ज्वालामुखी के फटने से प्रद्युम्न मरते है
या निर्भया, गुड़िया,या किसी मीना की इज्जत पर
डाके पड़ते है, फिर हाल बेहाल,
वो कही सड़क पर कहीं फेंक चलते है।
कभी कार मे छोटी सी खरोंच आनेपर
चाकू छुरी या देसी कट्टे चलतेहैं
क्योंकि वो आदमी नहीं है
ज्वालामुखी बन चुके हैं
क्रोध कहीं से लिया और कहीं दाग़ दिया
क्रोध कुँठा से ही ज्वालामुख बनते हैं
औरों के साथ ख़ुद के लियें भी ,ख़तरा बनते हैं।
कुछ ज्वालामुखी भीतर ही भीतर धदकते है
ये भड़कर फटते भी नहीं हैं, अपनी ही जान लेते हैं।
कोई गरीबी में जलता है, कोई प्रेम त्रिकोण में फंसता है
कोई परीक्षा में असफल है, कोई उपेक्षित महसूस करता है
या फिर अवसाद रोग से जलता रहा है
कुछ कह नहीं रहा…,.,…….
किसी की प्रेमिका ने किसी और के संग
करली है सगाई………..
ये सब ज्वालामुखी धधक रहे हैं
शायद ही किसी की आग कोई बुझा सके
तो अच्छा हो,
वरना ये ज्वालामुखी, अन्दर ही फटते है
कोई पंखे पे लटक गया
कोई नवीं, मंजिल से कूदा है
इन ज्वालामुखियों के फटने से
रोज खून इतना बहता है
कि अखबार के चार पन्ने लाल होते हैं
यहाँ हर आदमी ज्वालामुखी बन चुका है अब,
हम जी तो रह है, पर डर के साये में,
कौन कब फटे बस यही किसी को नहीं पता!