मनु और वत्र्तमान राजनीति की विश्वसनीयता भाग-2

judges-hammerराकेश कुमार आर्य

महर्षि मनु अपने राजधर्म में राजा की पहली योग्यता बताते हुए कह रहे हैं कि ‘राजा’ ब्राह्मण के समान परम विद्वान होना चाहिए। कारण कि परम विद्वान राजा ही परम विद्वान ब्राह्मण से राजकाज संबंधी कार्यों के संबंध में गूढ़ चर्चा कर सकेगा। यदि ‘राजा’ मूर्ख है या अनपढ़, अशिक्षित या निरक्षर है तो उससे यह अपेक्षा नही की जा सकती कि वह राजधर्म का भली प्रकार निर्वाह कर सकेगा।

विश्व के किसी भी संविधान ने राजा अर्थात अपने राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष के लिए यह अनिवार्यता स्थापित नही की है कि वह परमविद्वान होना चाहिए। भारत का संविधान और अन्य भारतीय कानून भी इस विषय में मौन हैं। वास्तव में भारत सहित विश्व के संविधानों में ‘राजा’ के परम विद्वान होने संबंधी प्राविधान का न होना विश्व इतिहास का या विश्व में प्रचलित राज्यव्यवस्थाओं का सबसे बड़ा घोटाला है। ऐसा प्राविधान संविधानों में न होने से विश्व मूर्खों के शासन के आधीन चला गया है, जिससे विश्व में सर्वत्र अराजकता का परिवेश स्थापित हो गया है। स्पष्ट है कि ऐसी व्यवस्था विश्व के राजनेताओं ने अपनी दुर्बलताओं को छिपाने के लिए की है। उन्होंने स्वयं को किसी भी प्रकार के कानून से ऊपर स्थापित किया है और अपने विषय में यह मान्यता स्थापित कर स्पष्ट संकेत दिया है कि ‘राजा’ के लिए कोई योग्यता नही होती। उसे तो शासन करने के लिए ईश्वर ने ही ‘राजा’ बनाकर भेजा है।

इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य प्रचलित राजनीति के लिए और उसके प्रेरणास्रोत विश्व के संविधानों के लिए कुछ भी नही हो सकता कि कथित लोकतांत्रिक युग में भी राजा को योग्यता की पात्रता से ऊपर रखा जाए, अथवा कानून बनाने वाला ऐसी व्यवस्था करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाए जिससे वह कानून की पकड़ में ही न आने पाये। ऐसी स्थिति का परिणाम है कि शासन में बैठे लोग नास्तिक होते चले गये हैं या होते जा रहे हैं। आध्यात्मिक चर्चा करना इन्हें अपराध लगता है। यही कारण है कि विश्व की किसी भी संसद में आध्यात्मिक चर्चाएं नही होतीं, वहां केवल हृदयहीन राजनीतिक चर्चाएं होती हैं और उनमें से भी अधिकांश का स्तर बहुत ही छोटा होता है। कोई भी देश ऐसा नही है जो यह दावा आज कर सके कि उसका ‘राजा’ अपने राज्य की रक्षा न्याय से करने में सफल रहा है। आज के ब्राह्मण आई.ए.एस. अधिकारी हैं। इन अधिकारियों का उद्देश्य भी परमविद्वान होना नही है अपितु ये अपने मूर्ख ‘राजा’ अथवा जनप्रतिनिधि को दिन में कई बार मूर्ख बनाने में सफल रहते हैं, और अधिकांशत: ऐसा होता है कि ये अधिकारीगण अपने ‘राजा’ से वैसा ही करा लेते हैं-जैसा ये चाहते हैं। यह स्थिति एक प्रकार की अराजकता या अधिकारियों की तानाशाही की प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है। इसे आप अत्याचारी राजतंत्र भी कह सकते हैं, जो वर्तमान विश्व में लोकतंत्र के नाम पर कार्य कर रहा है। मुझे नही लगता कि परमविद्वान न्यायकारी शासकों को प्रदान करने वाला लोकतंत्र इस भूमंडल पर आज कहीं पर भी स्थापित है।

यदि राजा परमविद्वान और न्यायकारी नही है, तो अराजकता स्थापित हो जाना स्वाभाविक है। परमविद्वान और न्यायकारी ‘राजा’ के राज में ऊपर से नीचे तक सर्वत्र पक्षपात होता रहता है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया में सर्वत्र पक्षपात का बोलबाला होने लगता है। स्वयं मनु महाराज अपने अगले श्लोक में कहते हैं-
”क्योंकि ‘राजा’ के बिना इस जगत में सब ओर भय के कारण व्याकुलता फैल जाने के कारण इस सब समाज और राज्य की सुरक्षा के लिए प्रभु ने राजापद को बनाया है, अर्थात ‘राजा’ बनने की प्रेरणा मनुष्यों के मस्तिष्क में दी है।”

यदि राजा के होते हुए भी देश में भय, भूख, और भ्रष्टाचार की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, या निरंतर बनी रहती है तो समझिये कि ‘राजा’ की नीयत में और राज्यव्यवस्था में भारी दोष है। वास्तव में इन तीनों दैत्यों को (भय, भूख, और भ्रष्टाचार को) मिटाने के लिए ही तो राजा की या राजपद की खोज की गयी है।

हम देखते हैं कि संपूर्ण भूमंडल के देशों के राजाओं ने अपने-अपने संविधानों में ‘राजा’ के बनने की योग्यता और आवश्यकता को भी इंगित नही किया है। जिस कारण विश्व के सभी संविधान अपंग हैं। ये ऐसे संविधान हैं जो अपना परिचय और उद्देश्य स्पष्ट नही करते हैं, और यदि करते हैं तो आधा-अधूरा उद्देश्य या परिचय देते हैं।

भारत में ‘भारतीय दंड संहिता’ का उदाहरण आप लें। इस संहिता को अंग्रेजों ने भारत में 1860 ई. में लागू किया। इस संहिता को भारत के ऊपर अंग्रेजों द्वारा किया गया एक महान उपकार मानने वाले लोग आज भी इस देश में हैं। ऐसे लेागों से पूछा जा सकता है कि क्या आप इस संहिता की कोई एक ऐसी धारा कहीं से ढूंढक़र ला सकते हो, जो इसे लागू करने वाले शासकों के विरूद्घ लागू होती हो, और उन्हें उनके बुरे कार्यों के लिए जेल की सींखचों के पीछे डालने की व्यवस्था करती हो? निश्चित रूप से एक भी ऐसी धारा आपको नही मिलेगी, जो आपके इस मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ हो। स्पष्ट है कि अंग्रेज लोग स्वयं को ईश्वर की ओर से विभिन्न देशों पर शासन करने के लिए भेजी गयी विश्व की ‘श्रेष्ठतम जाति’ मानते थे। जिनके क्रूर से क्रूर कार्य भी क्षम्य थे। यही कारण रहा कि अंग्रेजों ने जिस कानून को भारत में लागू किया वह कानून उन अंग्रेजों में से किसी एक को भी जेल में नही डाल सका। जबकि अंग्रेजों की क्रूरताओं से इतिहास भरा पड़ा है। स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत में जितने भी अत्याचार किये, उन्हें वह माफ करा गये, और यह माफी भी उन्हें उन्हीं के बनाये हुए कानून के द्वारा प्रदान कर दी गयी। ऐसी व्यवस्था के द्वारा भारत को दी गयी विधि-व्यवस्था यहां के समाज में अत्याचारों को बढ़ाने वाली तो हो सकती है, परंतु अत्याचारों को यह व्यवस्था समाप्त करा देगी, यह नही कहा जा सकता।

अंग्रेजों ने भारत में जिस कानून को लागू किया वास्तव में वह सारा का सारा कानून और कानूनी ढांचा उन्होंने अपनी क्रूर सत्ता की सुरक्षा के लिए लागू किया था। जिससे कि उनके विरोध में उठने वाली हर आवाज को इस कानून के माध्यम से सदा के लिए शांत किया जा सके। स्वतंत्र भारत में इस भारतीय दंड संहिता को ज्यों का त्यों अपना लिया गया। फलस्वरूप हमारा कोई भी ‘राजा’ इस संहिता के रहते अपने अपराधों की सजा नही पा सका। ऐसी स्थिति को देखकर यही लगता है कि हम राजतंत्रीय लोकतंत्र में जी रहे हैं, इसे राजतंत्रीय व्यवस्था के लोग अपने हितों के अनुसार ‘जैसे और जब चाहें’ ढाल सकते हैं। ‘जैसे और जब चाहें’ इस व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष है, पर यहीं से हमारे नेताओं को भोजन पानी मिलता है, अर्थात वे ‘जैसे और जब चाहें’ की इस दुर्बल कानून व्यवस्था का लाभ लेकर ही मौज उड़ाते हैं।
क्रमश:

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