मनुष्य की उन्नति के सार्वभौमिक 10 स्वर्णिम सिद्धान्त व मान्यतायें

0
527

9मनुष्य जीवन ईश्वर की जीवात्मा को अनमोल देन है। सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह इस संसार व प्राणीमात्र के बनाने व पालन करने वाले ईश्वर को जानें और साथ हि अपने कर्तव्य को जानकर उसका निर्वाह करें। हम आगामी पंक्तियों में इस विषय का उल्लेख करेंगे जिसको पूर्णतया जानकर व उनका पालन करने से मनुष्य जीवन की निश्चित रुप से चरम उन्नति व सफलता की प्राप्ति होती है। यह सभी नियम वेदों के मर्मज्ञ व साक्षात्कृतधर्मा महर्षि दयानन्द सरस्वती के बनाये हुए हैं जो स्वयं में अनूठे व अपूर्व हैं। पहला नियम है कि ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।‘ इस नियम में बताया गया है कि संसार में जितनी भी सत्य विद्यायें हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है और इन सत्य विद्याओं से इतर जो सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, पृथिवीस्थ सभी भोग्य पदार्थ और नक्षत्र आदि ब्रह्माण्ड के अंग आदि हैं, वह व उसके सभी पदार्थों का स्रष्टा, रचयिता वा आदि मूल परमेश्वर है। इस सत्य सिद्धान्त से इस मान्यता का खण्डन हो जाता है कि यह संसार बिना किसी ईश्वर के स्वमेव बना या या फिर सदा से है और सदा ऐसा ही रहेगा। यह सर्वमान्य है कि कोई भी बुद्धिपूर्वक रचना स्वतः वा स्वमेव कदापि न होती है न हो सकती है जिस प्रकार कि रसोई में रोटी बनाने का सभी सामान आटा, जल, तवा, परात, ईघन, चकला, बेलन आदि उपस्थित हो तो भी, अनन्त काल बीतने पर भी, बिना कर्ता के रोटी स्वमेव नहीं बनती। इसी प्रकार यह सृष्टि भी बिना कर्ता=ईश्वर के नहीं बनती। इसका सृष्टि का कर्ता सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा आंखों से न दिखने वाली सत्ता ईश्वर है।

दूसरा स्वर्णिम नियम है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।‘ यह नियम सब सत्य विद्याओं और सब पदार्थों के आदि मूल परमेश्वर के स्वरुप का यथार्थ स्वरुप प्रस्तुत करता है। सच्चिदानन्द शब्द का अर्थ कि ईश्वर सत्य है, चेतन है और आनन्द स्वरुप है अर्थात् यह तीनों गुण व लक्षण ईश्वर में हैं। इनके अतिरिक्त वह आकार रहित, अनन्त शक्तिशाली, सब प्राणियों के प्रति न्याय करने वाला, दया का सागर, जिसका कभी जन्म न हुआ न होगा और न वह जन्म व अवतार ले सकता है, जिसमें कभी किसी प्रकार का कोई विकार नहीं होता, जो अनादि है अर्थात् जिसका आरम्भ कभी नहीं हुआ व जो सदा से है, अनुपम है अर्थात् जिसके गुण, कर्म व स्वभाव सर्वश्रेष्ठ है और जिसके समान अन्य कोई सत्ता व जीवात्मा आदि नहीं हैं, सारे संसार व ब्रह्माण्ड का एकमात्र वही आधार है, सभी ऐश्वर्यों का स्वामी है, सारे ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्यापक है, ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जहां वह ईश्वर उपस्थित न हो, वह सर्वान्तर्यामी अर्थात् घट-घट का वासी है, वह अजर है अर्थात् वह बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था सहित ह्रास व उन्नति से सर्वथा रहित है, मरने व नष्ट न होने वाला अविनाशी है, वह किसी से डरता नहीं है अपितु उसके न्याय से बुरे काम वा पाप करने वाले मनुष्य एवं अन्य प्राणी डरते हैं, नित्य अर्थात वह ईश्वर सदा से है और सदा रहेगा, उसका कभी अभाव नहीं होगा, वह पवित्र और पवित्रतम है और इस सारे ब्रह्माण्ड को उसी ने बनाया है। यह भी जानने योग्य है कि ईश्वर जीवात्माओं के पूर्व कल्प में किये गये पाप-पुण्यों वा प्रारब्ध का सुख व दुःख रुपी भोग कराने के लिए इस सृष्टि की रचना कर इसे धारण करता है। जीवात्मा व सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करें। संसार में स्तुति-प्रार्थना व उपासना करने योग्य वही एकमात्र ईश्वर है क्योंकि वह अनादि काल से अनन्त काल तक हमारे साथ सखा व मित्र की तरह रहने वाला हमारा कल्याण करने वाला, बन्धु, माता, पिता, रक्षक, पालक व जन्म-मृत्यु-मोक्ष सहित सुख एवं आनन्द प्रदान देने वाला है। जो व्यक्ति ईश्वर की योग विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना नहीं करता है वह कृतघ्न, महामूर्ख व पापी होता है व जन्म-जन्मान्तरों में दुःख भोगता है।

मनुष्य उन्नति का तीसरा स्वर्णिम नियम है कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब श्रेष्ठ मनुष्यों, जिन्हें संस्कृत में आर्य कहते हैं, का परम धर्म है।’ वेदों के यथार्थ स्वरूप का अध्ययन करने पर इस तथ्य व रहस्य का ज्ञान होता है कि वेद सभी सत्य विद्याओं का पुस्तक व ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सृष्टि की आदि में अस्तित्व में आया। अनुसंधान करने पर ज्ञात होता है कि यह किसी मनुष्य की रचना नहीं है अपितु यह सांसारिक मनुष्य की सभी साहित्यिक व अन्य ग्रन्थों का आधार है। मनुष्य की बुद्धि को ज्ञान की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी के अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को ज्ञान देने वाले माता-पिता व आचार्य तो होते नहीं हैं। अतः मनुष्य को ज्ञान मिलना असम्भव होता है। न वह बोल सकता है और प्रकृति में होने वाली ध्वनियों को वह समझ सकता है। ईश्वर सर्व विद्याओं का आधार व मूल स्रोत है। वह सर्वव्यापक व सर्वान्र्यामी है। उसका सृष्टि बनाने व प्राणी मात्र को उत्पन्न करने के साथ यह कर्तव्य भी है कि वह आदि सृष्टि के प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों को ज्ञान व भाषा प्रदान करे। वही आदि सृष्टि में मनुष्यों को सबसे पहले ज्ञान देता है जिसे वेद कहते हैं। ईश्वर ने सृष्टि की आदि में यही वेद ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा के द्वारा दिया वा स्थापित किया था। इन ऋषियों ने अन्य मनुष्यों को इसका अध्ययन कराया और उसके बाद यह अध्ययन अद्यावधि होता आ रहा है। आज भी वेद मूल रुप में सुरक्षित हैं। इसकी पुष्टि कोई भी व्यक्ति इनका अध्ययन करके कर सकता है। वेदों में परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक और सांसारिक सभी प्रकार का यथार्थ ज्ञान उपलब्ध है। वेदों में अन्य धर्म ग्रन्थों की तरह से कहानी किस्से या इतिहास किंचित भी नहीं है। यह विवेचित तथ्य है कि यदि ईश्वर वेदों का ज्ञान न देता तो मनुष्य बिना ईश्वर की सहायता के भाषा की उत्पत्ति नहीं कर सकता था जिससे उसका जीवन निर्वाह न हो सकने के कारण संसार आगे नहीं चल सकता था, आरम्भ में वहीं समाप्त होना निश्चित होता है। ऐसा इसलिए कि मनुष्यों को छोटे से छोटा व्यवहार करने के लिए वा चिन्तन व विचार करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है जिसके न होने व फलतः स्वयं व परस्पर व्यवहार न होने से जीना सम्भव नहीं होता। पशुओं की बात और है, उन्हें ईश्वर ने अपने सभी काम करने के लिए आवश्यकता के अनुरुप ज्ञान दिया है जिससे वह अपने सभी कार्य सुगमतापूर्वक करते हैं। मनुष्य इस स्वभाविक ज्ञान की दृष्टि से पशुओं से काफी पीछे है।

जीवन उन्नति का चौथा नियम है कि ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ पांचवा नियम है कि ‘सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिये।’ छठा नियम है कि ‘संसार का उपकार करना मनुष्य व समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।’ सातवां नियम है कि ‘सबसे प्रीति-पूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।’ आठवां नियम है कि ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’ यह सभी नियम निर्विवाद हैं और अत्यन्त सरल भी हैं। अतः इस पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। हां, उनका पालन करने से उन्नति और पालन न करने से जीवन की अवनति होना सुनिश्चित है, इसकी कल्पना की जा सकती है। इतना कहना उचित होगा कि अविद्या व अज्ञान का नाश करना भी सभी मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो जीवन व समाज में अविद्या में वृद्धि होगीं जो नाना प्रकार की समस्याओं को जन्म देंगी जैसा कि आजकल समाज में देखने को मिल रहा है। अविद्या से उत्पन्न इन सामाजिक बुराईयों में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानता, अस्पर्शयता, लोगों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करना व आतंकवाद सहित अहिष्णुता का ढोंग करना आदि भी शामिल हैं। मनुष्य जीवन की सफलता के लिए नवां स्वर्णिम नियम है कि ‘प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये। किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।’ इस नियम में महत्वपूर्ण व आवश्यक बात यह कही गई है हमें अपनी उन्नति तो करनी ही है परन्तु दूसरों की उन्नति करने पर भी हमें सम्यक् ध्यान देना व पुरुषार्थ करना है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बहुत से लोग उन्नति से वंचित होकर पिछड़ जायेंगे जो उन्नत व्यक्तियों के लिए ही कष्टदायक होगा। आज समाज में इसका प्रभाव सर्वत्र देखने को मिलता है। चोरी, लूट व भ्रष्टाचार आदि इसी कारण से तो है कि अविद्या का नाश नहीं किया गया और दूसरों की उन्नति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। पाठक इन सभी नियमों पर विचार कर इसके लाभों व न मानने से होने वाली हानियों पर और अधिक विचार कर सकते हैं। अन्तिम दसवां स्वर्णिम नियम है कि ‘सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व-हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।’ सामाजिक सर्व-हितकारी नियम में चरित्र निर्माण, अनुशासन, स्वच्छ व पवित्र जीवन तथा भ्रष्टाचार मुक्त व्यवहार, सहिष्णुता आदि अनेक बातें आती हैं। इससे न केवल देश व समाज उन्नत होता है अपितु व्यक्तिगत जीवन भी उन्नत होता है। जिस परिवार, समाज व देश में इन नियमों का व्यवहार किया जायेगा, उसकी कायापलट हो जायेगी और वह परिवार, समाज व देश सुख-शान्ति-समृद्धि-आरोग्यता-प्रसन्नता-उल्लास से युक्त होकर स्वर्ग व मुक्ति का अधिकारी होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,707 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress