“परोपकारी पत्रिका के नये अंक में अनेक नये तथ्यों की जानकारी”

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मनमोहन कुमार आर्य

परोपकारिणी सभा, अजमेर ऋषि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी सभा है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द जी ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व की थी। परोपकारिणी सभा से परोपकारी नामक एक पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित होती है। इसमें नियमित रूप से कुछ तड़पकुछ झड़प शीर्षक से एक लेख श्रृंखला प्रकाशित होती है जिसके लेखक आर्यजगत के विख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। यह पत्रिका अनेक दशकों से हमें प्राप्त हो रही है। हम प्रायः इस स्तम्भ को पढ़ने का पूरा प्रयास करते हैं। पत्रिका के नये जुलाई द्वितीय अंक में भी प्रा. जिज्ञासु जी ने अपने उक्त शीर्षक लेख में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रकाशन किया है। हमने अनुभव किया कि हम इसे अपने फेसबुक, व्हाट्सएप्प तथा अन्य पाठकों तक भी इन बातों को पहुंचायें। इसकी पूर्ति हेतु ही यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी के आर्यसमाज से सम्बन्धों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताया है कि आर्यसमाज की उदयपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिकासत्यार्थ सौरभमें प्रकाशित श्री सीताराम गुप्त जी के एक लेख पर उनकी दृष्टि गई। लेख में विष्णु प्रभाकर जी का चित्र देखकर उन्होंनें लेख को पढ़ा। उन्होंने पाया कि लेख में विष्णु प्रभाकर जी के आर्यसमाज के साथ सम्बन्धों की चर्चा नहीं है। अपने लेख में लेखक श्री सीताराम गुप्त ने उन्हें प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक बताया है। विद्वान लेखक प्रा. जिज्ञासु जी लिखते हैं कि श्री विष्णु प्रभाकर जी किस कोटि के आर्यसमाजी विचारक थे यह इस पत्रिका के सम्पादक जी को क्या पता? उनके जीवन का निर्माण हिसार में हुआ। उनके धर्ममूर्ति मामा जी जिन्होंने उनको समाजसेवी, चरित्रवान्, धर्मात्मा और आर्य बनाया, वह मेरे बड़े स्नेही कृपालु थे। आज भी उनके परिवार से जिज्ञासु जी जुड़े हुए हैं। वियोगी हरि जी के ग्रन्थहमारी परम्परामें विष्णु प्रभाकर जी का आर्यसमाज के दर्शन, इतिहास समाज सेवा पर मौलिक पठनीय प्रेरक लेख उनकी ऋषि भक्ति आर्यसमाज के प्रति उनकी श्रद्धा का ज्वलन्त प्रमाण है। जिज्ञासु लिखते हैं कि एक बार वह विष्णु प्रभाकर जी के दर्शनार्थ गये तो धर्मानुरागी विष्णु प्रभाकर जी ने उन्हें उठने ही दिया था।अपने लेख में जिज्ञासु जी ने श्री मैक्समूलर की अन्तिम पुस्तक की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है कि इस पुस्तक में श्री मैक्समूलर ने महर्षि दयानन्द को विष दिये जाने की चर्चा की है। जिज्ञासु जी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा है कि हमारे इस काल के किसी वक्ता लेखक को तो इस पुस्तक की जानकारी है और ही उसमें वर्णित इस कथन का ज्ञान है। जिज्ञासु जी ने बताया है कि महात्मा मुंशीराम जी के एक लेख से उनके मन में इस पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जागी। श्री लक्ष्मण जिज्ञासु जी ने उनके लिए इस पुस्तक को जैसेकैसे खोज निकाला। लेख लिखते समय उन्हें यह पुस्तक मिलने के कारण वह मैक्समूलर जी की पुस्तक में लिखे महर्षि दयानन्द के विषपान विषयक शब्दों को प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।

 

एक अन्य जानकारी देते हुए जिज्ञासु जी बताते हैं कि पं. लेखराम जी ने अपनी कुल्लियात पुस्तक में अंग्रेजी राज की दण्ड प्रणाली में यूरोपियनों के साथ पक्षपात का प्रश्न उठाकर असाधरण साहस का परिचय दिया। पं. लेखराम जी ने पादरियों को ललकारा कि वह मुख क्यों नहीं खोलते? फिर पं. लेखराम जी ने आगे लिखा अंग्रेज के न्यायालय में पक्षपात करके गोरे हत्यारे को मुक्त कर दिया जाता है। ऐसे उदाहरण एक दो नहीं प्रत्युत सैंकड़ों हैं। सैंकड़ों भारतीयों की हत्या गोरों ने की, परन्तु एक भी गोरे को फांसी पर चढ़ाया गया। प्रा. जिज्ञासु जी पाठकों से पूछते हैं कि शूर शिरोमणि पं. लेखराम देशभक्त को इतिहास में कभी स्थान मिलेगा क्या? कौन सुनेगा? किसे सुनाऊं? मेरी अपनी कथा पुरानी।

 

एक स्थान पर प्रा. जिज्ञासु जी ने आडवाणी जी द्वारा स्वामी विवेकानन्द द्वारा कहे शब्दों कि देशवासी अन्य देशों में जाकर व्यापार नहीं करेंगे तो देश में कंगाली होगी, का प्रतिवाद किया है। आडवाणी जी ने यह भी कहा कि यह बात सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द ने कही थी। इसका उत्तर देते हुए प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी लिखते हैं कि हमारे संघी भाई और आडवाणी जी जैसे नेता यह नहीं जानते कि सबसे पहले महर्षि दयानन्द जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में यह घोष किया था कि यदि देशवासी विदेशी भी यहीं व्यापर करें, विदेशों में व्यापार को फैलावें तो देश में निर्धनता हो तो क्या हो? सत्यार्थप्रकाश में स्वामी विवेकानन्द जी के सार्वजनिक जीवन से बहुत पहले ऋषि दयानन्द ने यह विचार दिया। वेतनभोगी इतिहासकारों पक्षपाती नेताओं ने इसका महत्व जाना।

 

वयोवृद्ध आर्य विद्वान प्रा. जिज्ञासु जी ने अपने लेखन तथा स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के देश की स्वतन्त्रता में योगदान विषयक कुछ जानकारी भी प्रस्तुत की है। वह लिखते हैं कि एक बार प्रसिद्ध विद्वान् स्व. शिवराज जी मौलवी फाजिल ने जिज्ञासु जी को कहा, ‘‘आपने आर्यसमाज के इतिहास की सुरक्षा उसके प्रामाणिक लेखन के लिए इस्लाम की हदीस शैली को अपनाकर आर्यसमाज की बहुत सेवा की है। यह आपकी विशेष देन है। मुसलमानों ने गप्पें गढ़गढ़कर हदीस शैली का अवमूल्यन कर दिया। आप सतर्क होकर लिखते हैं। तब उन्होंने जिज्ञासु जी से यह भी पूछा, ‘‘यह आपको कैसे सूझा?’’ जिज्ञासु जी ने उन्हें बताया, ‘‘विद्यार्थी जीवन में शास्त्रार्थ महारथी महाशय चिरंजीलाल जी प्रेम को सायं समय भ्रमणार्थ ले जा रहा था। तब जिज्ञासु जी को एक प्रश्न के उत्तर में महाशय चिरंजीलाल जी ने कहा कि पं. लेखराम जी के ऋषि जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आपने ऋषिजीवन की एकएक घटना को जैसी बताई गई, सुनाई गई, वैसे ही सुनाने वाले का नाम देकर उसको लेखबद्ध कर दिया। यह बात तत्काल जिज्ञासु जी के हृदय पर अंकित हो गई।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के जीवन की घटना के विषय में जिज्ञासु जी ने लिखा है कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को एक आन्दोलन में पंजाब कांग्रेस का डिक्टेटर नियत किया गया। स्वामी जी ही जेल जाने वाले प्रत्येक जत्थे का डिक्टेटर नियुक्त करते थे। सरकार को पता नहीं चल रहा था कि इन जत्थों जत्थेदारों की निक्ति कौन करता है? अन्ततः गोरी सरकार को यह भनक पड़ गई कि यह सत्याग्रह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी चला रहे हैं। सरकार ने श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर पर छापा वा रेड मारा। एकएक कागज, पोथी पुस्तक को उलटपुलट कर देखा गया। प्रमाण तो कुछ भी मिला, परन्तु तथ्य यही था। सारे स्वराज्य संग्राम में केवल आर्यसमाज के ही मिशनरी कालेज की तलाशी ली गई। ओवैसी के मदरसे, देवबन्द के दारुल उलूम, सिख मिशनरी कालेज, मिर्जाइयों के, ईसाइयों के, काशी के, शंकराचार्यों के किसी मठ पर कभी छापा पड़ा? इन आर्यसमाजी इतिहास पण्डितों ने कभी इस स्वर्णिम और विलक्षण घटना की चर्चा की? महाशय कृष्ण जी, ला. जगत नारायण जी, पं. नरेन्द्र जी, पं. धर्मपाल जी, श्री वीरेन्द्र जी आदि स्वतन्त्रता सेनानियों तथा श्री स्वामी सर्वानन्द जी महाराज, पं. शान्तिप्रकाश जी की साक्षी से यह महत्वपूर्ण घटना यह लेखक कई बार लिख चुका है। 124 वर्षीय स्वतन्त्रता सेनानी वेदज्ञ पं. सुधाकार जी चतुर्वेदी भी तो उस काल में वहीं महाराज के चरणों में रहे। अपनपे स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को उजागर करना, उसकी रक्षा करना, यह पापकर्म है, ऋषिद्रोह है यह बहुत बड़ा अपराध है। क्या कोई सुनेगा?

 

जिज्ञासु जी ने अपने लेख में डा. सत्यप्रकाश जी के विषय में यह भी जानकारी दी है कि जब स्वराज्य संग्राम में भारत के एकमेव वैज्ञानिक डॉ. सत्यप्रकाश पर बम बनाने का अभियोग चला तो अपने सम्बन्धी सरकारी अधिकारी के साथ पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय जी ने कलेक्टर को कहा कि दोष मिथ्या है। उसने कहा, आप पुत्र से कहें कि मैं स्वराज्य संग्राम से दूर रहूंगा। यह लिखकर दे दे तो छोड़ देगें। पूज्य उपाध्याय जी ने पुत्र को ऐसा कहने से दो टूक ना कर दी।

 

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक प्रमुख जानकारी यह भी दी है कि उन्होंने पं. लेखराम जी के ग्रन्थकुल्लियात आर्य मुसाफिर ग्रन्थ के दूसरे भाग के सम्पादन का कार्य पूरा कर दिया है। परोपकारिणी सभा इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए तीव्र गति से प्रयासरत है।

 

हमने परोपकारी में जिज्ञासु जी का जब यह लेख पढ़ा तो हमें लगा कि जिासु जी के महत्वपूर्ण विचारों को अपने मित्रों तक भी पहुंचाना चाहिये। हमें लगता है कि माननीय जिज्ञासु जी के द्वारा प्रस्तुत तथ्यों से आर्यबन्धु लाभान्वित होंगे।

 

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