मीडिया का स्वनियंत्रण बनाम बाह्यनियंत्रण और सर्वोच्च न्यायालय के दो निर्णय

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रवि शंकर

पिछले कुछ दिनों से मीडिया यानी कि पत्रकारिता पर अंकुश लगाए जाने की खबरें काफी चर्चा में रही हैं। सरकार जहां एक ओर इस मामले में कानून बनाए जाने की बात कह रही थी तो मीडिया इसका पुरजोर विरोध करने और आत्मानुशासन की बातें कह रहा था। इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय के दो ऐसे फैसले आए हैं जो इस मुद्दे के दो विभिन्न किंतु महत्वपूर्ण आयामों को स्पष्ट करते हैं। पहला आयाम है मीडिया पर सरकारी नियंत्रण की और दूसरा आयाम है मीडिया के निरंकुश होने की। सर्वोच्च न्यायालय के इन दोनों निर्णयों से जहां इन दोनों आयामों को समझना सरल हो गया है, वहीं दूसरी ओर इसने सरकार और मीडिया दोनों को आत्मावलोकन करने और अपने लिए कुछ मापदंड और उन मापदंडों को लागू करने का तंत्र विकसित करने का एक अवसर प्रदान किया है।

सर्वोच्च न्यायालय का पहला निर्णय मीडिया के अनुशासन के बारे में था। सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई में हुई 26/11 की घटना के दौरान मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका की आलोचना करते हुए कहा कि यह पूरी तरह गलत और अस्वीकार्य था क्योंकि इससे सुरक्षा बलों का आतंकवादियों से मुकाबला निहायत ही मुश्किल हो गया था। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति सीके प्रसाद की पीठ ने 26/11 मामले की लाइव रिपोर्टिंग किए जाने पर मीडिया को लताड़ लगाते लगाई और कहा कि संविधान की धारा 19 के तहत मिली हर आजादी की तरह भाषण एवं अभिव्यक्ति की आजादी पर भी कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध लगे हुए हैं। कोई भी हरकत जिससे किसी दूसरे को अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीने के अधिकार का हनन होने की आशंका हो या ऐसी किसी करतूत से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा होने की आशंका हो, उसे कभी भी भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर सही नहीं ठहराया जा सकता।

यह तो पूरे देश ने देखा था कि जिस समय मुंबई में आतंकी हमला हुआ, देश के सभी इलेक्ट्रानिक चैनल अपने कैमरे लेकर वहां पहुंच गए और सभी चीजों को लाइव दिखाने की कोशिश करने लगे थे। उनके इस ‘लाइव टेलीकास्ट’ के कारण अंदर बैठे आतंकियों को बाहर सुरक्षाकर्मियों की वास्तविक स्थिति की सही-सही जानकारी मिलती रही और उन्होंने आनन-फानन में हमारे तीन जांबांज बहादुरों को मार गिराया। उनमें से एक ने बुलेटप्रुफ जैकेट और हेलमेट पहन रखा था, परन्तु इसकी जानकारी भी चैनल वालों ने लाइव टेलीकास्ट की थी और इसलिए आतंकियों ने उसकी गरदन पर गोली मारी। बात यहीं सामाप्त नहीं हुई। अगले दिन सवेरे जब हमला जारी ही था, एक अन्य चैनल ने यह दिखाना शुरू किया कि एक आतंकी ने उसे फोन किया है। उसने आतंकी से बातचीत दिखानी शुरू कर दी कि यह हमारा ‘एक्सक्लुसिव’ है। परंतु बाद में जब पता किया गया तो उसी चैनल के किसी भी संवाददाता ने उसकी सत्यता या असत्यता को तस्दीक करने से इनकार कर दिया था। हमले को नेस्तनाबूत करने के बाद जब केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने चैनलों के साथ बैठक करके उन्हें ऐसी स्थिति में कुछ दिशा-निर्देशों का पालन करने की सलाह की तो पत्रकारिता की भावना से ओत-प्रोत ये चैनल भड़क उठे और दो टूक जवाब देते हुए उन्होंने सरकार को कहा कि इस मामले में वे सरकार की कोई बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें किसी प्रकार दिशा-निर्देश स्वीकार नहीं है।

किंतु आज उसी इलेक्ट्रानिक मीडिया के दावों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि जिस तरह से सुरक्षा बलों के अभियान को चैनलों पर लाइव दिखाया गया, उससे सुरक्षा बलों का काम न केवल काफी मुश्किल, बल्कि काफी खतरनाक और जोखिम भरा भी हो गया था। आतंकवादियों और विदेश में बैठे उनके आकाओं के बीच हुई बातचीत के प्रतिलेख का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि आतंकवादियों के संपर्क में रहे लोग सुरक्षा बलों की हर एक गतिविधि से बाखबर थे। बातचीत के ट्रांसक्रिप्ट में एक जगह आतंकवादियों के आका अपने नुमाइंदों से बातचीत के दौरान मीडिया में आ रही एक अटकल भरी खबर का मजाक उड़ा रहे थे। इस खबर में कहा जा रहा था कि ‘कुबेर’ में जिस शख्स का शव मिला था वह आतंकवादी संगठन का मुखिया था, जिसे उसके साथियों ने ही नौका छोड़ने से पहले मार गिराया था।

इसके बाद न्यायालय ने मीडिया की इस दलील पर भी सवाल उठाए कि इसके लिए विनियामक तंत्र उसके भीतर से ही होना चाहिए। पीठ ने कहा कि ऐसे ही मामलों में किसी संस्था की विश्वसनीयता को परखा जाता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर से किए गए मुंबई आतंकवादी हमले की कवरेज से इस तर्क को काफी नुकसान पहुंचा है कि मीडिया के लिए कोई विनियामक तंत्र इसके भीतर से ही होना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि मुंबई पर किए गए आतंकवादी हमलों की लाइव रिपोर्टिंग जिस तरह से की गई उससे भारतीय टीवी चैनल राष्ट्रीय हित या सामाजिक हित का कोई काम नहीं कर रहे थे बल्कि वे तो राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालकर अपने वाणिज्यिक हितों को साध रहे थे। पीठ ने कहा कि टीवी चैनलों की ओर से जो शॉट और तस्वीरें दिखाई गईं, वे तब भी दिखाई जा सकती थीं जब आतंकवादियों से मुकाबला खत्म हो जाता और सुरक्षा अभियान खत्म हो गया होता।

इस निर्णय के द्वारा न्यायालय ने मीडिया लिए एक बाह्य विनियामक तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया। 26/11 के हमले के मामले में इलेक्ट्रानिक चैनलों की भूमिका पर सवाल तो पहले भी उठ ही रहे थे, न्यायालय के इस निर्णय ने उन सवालों को ठोस आधार प्रदान कर दिया। इससे इतना तो सिद्धांततः मान लिया गया कि कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा और जीने के अधिकार के मामलों में रिपोर्टिंग करने में मीडिया पर नियंत्रण रखने के लिए कोई विनियामक तंत्र होना चाहिए और वह आंतरिक नहीं, बल्कि बाहर से होना चाहिए।

परंतु इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया पर नियंत्रण के नाम पर सरकार द्वारा आज की जा रही मनमानी को स्वीकार कर लिया। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय का दूसरा निर्णय पहले निर्णय को पूरा करता है। यह निर्णय मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया, जस्टिस डीके जैन, एसएस निज्जर, रंजना प्रकाश देसाई और जेएस खेहर की पांच सदस्यीय पीठ ने सहारा इंडिया रियल एस्टेट व बाजार नियामक सेबी की अर्जियों का निपटारा करते हुए सुनाया है। सहारा और सेबी ने प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की रिपोर्टिग के बारे में दिशा निर्देश तय करने की मांग की थी। लेकिन कोर्ट ने एक सामान्य दिशा-निर्देश तय करने से मना करते हुए कहा कि पीड़ित पक्ष या अभियुक्त निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की दुहाई देकर रिपोर्टिग पर कुछ समय रोक के लिए उच्च या सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकता है। न्यायालय उस याचिका पर सभी पक्षों को सुनकर अगर तर्कसंगत पाती है तो कुछ समय के लिए रिपोर्टिग टालने का आदेश दे सकती है और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत में भ्रष्टाचार और सरकारी खामियों को उजागर करने में मीडिया की भूमिका को महत्वपूर्ण है और इसलिए अदालतें रिपोर्टिग टालने का आदेश पारित करते समय मीडिया की इस भूमिका का ध्यान रखें।

प्रेस की स्वतंत्रता और न्यायिक प्रशासन के बीच संतुलन का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि किसी भी न्यायिक प्रणाली में इन दोनों के बीच संतुलन बनाना मुश्किल काम है। दुनिया भर में अदालती रिपोर्टिग के बारे में लागू कानूनों की बात करते हुए कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता शामिल है और इसमें सूचना का अधिकार भी आता है, लेकिन संविधान के भाग तीन में दिया गया कोई भी मौलिक अधिकार एब्सोल्यूट यानी कि परिपूर्ण नहीं है। सभी अधिकार एक दूसरे के अधीन हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी पूर्ण नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और निष्पक्ष व स्वतंत्र सुनवाई के अधिकार के बीच संतुलन बनाया जाना चाहिए।

हालांकि न्यायालय का यह निर्णय केवल न्यायालयीन कार्यवाही की रिपोर्टिंग के संबंध में है लेकिन इसके निहितार्थ कहीं अधिक व्यापक हैं। इस निर्णय में न्यायालय ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही है कि कोई भी मौलिक अधिकार एब्सोल्यूट यानी कि परिपूर्ण नहीं है और सभी एक दूसरे के अधीन हैं। इसका सीधा अर्थ है कि एक का कर्तव्य ही दूसरे का अधिकार है। यदि सभी एक-दूसरे के हितों का परस्पर संरक्षण करेंगे, सभी सभी के अधिकारों की रक्षा संभव है, अन्यथा इसके लिए कोई कानून बनाया जाना संभव नहीं है और इसलिए न्यायालय ने मीडिया को अपनी लक्ष्मण रेखा याद रखने के लिए कहा।

अब आवश्यकता है कि इन दोनों निर्णयों को समग्रता में देखा जाए। पहला निर्णय जहां मीडिया पर बाह्य अंकुश लगाए जाने का समर्थन करता है, वहीं दूसरा निर्णय मीडिया के आत्मानुशासन की बात करता है। ये दोनों निर्णय दिखते परस्पर विरोधी हैं परंतु यदि इनके संदर्भों को समझा जाए तो वास्तव में हैं परस्पर पूरक। न्यायालय ने कुछ मामलों में मीडिया पर बाह्य नियंत्रण की बात कही है, उनको मोटा-मोटा परिभाषित भी किया है और कुछ मामलों में मीडिया को स्वनियंत्रण का अधिकार दिया है। इन दोनों सीमाओं की पारिभाषा पर व्यापक बहस छेड़ कर एक सर्वमान्य सीमा बनाया जाना चाहिए। इस बहस में मीडिया के लोग, सरकार और कानूनविद तीनों का समावेश किया जाना चाहिए। यदि ऐसा किया जाता है तो इससे मीडिया के स्वनियंत्रण बनाम बाह्यनियंत्रण का बार-बार उठने वाला मामला सुलझाया जा सकता है।

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