डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों देश को चेतावनी दी कि पैसे पेड़ों पर नहीं लगते । वे आर्थिक क्षेत्र में अपनी सरकार की नीतियों का समर्थन कर रहे थे । वे बता रहे थे कि विकास के कामों के लिये आखिरकार पैसा लगता है । आखिर यह पैसा कहाँ से आयेगा? इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि यह पैसा जनता की जेब में से ही तो लिया जायेगा, पैसा आखिर पेड़ों पर तो लगता नहीं । मनमोहन सिंह बात बड़ी पते की कहते हैं और मुहावरों में कहते हैं । चाणक्य ने कहा है कि अच्छा राजा प्रजा से टैक्स इस प्रकार वसूलता है जिस प्रकार मधुमक्खी फूल से शहद लेती हैं । अर्थात् फूल को पता भी नहीं चलता और मधुमक्खी का पेट भी भर जाता है । इटली के मैकयावली ने भी टैक्स वसूलने के बारे में कुछ न कुछ कहा ही होगा । क्योंकि आजकल भारत में राजकाज के लिये इतालवी विरासत का शायद सहारा लेना ज़रूरी हो गया है । बैसे भी मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री हैं, यदि वे इतना जान गये हैं कि पैसा दरखतों पर नहीं लगता तो यह भी जानते ही होंगे कि पैसा जनता के किस हिस्से के पास होता है । पैसा या तो किसान खेत में दिन रात मेहनत कर पैदा करता है या फिर कारखाने में मज़दूर पैदा करता है । लेकिन मनमोहन भी जानते हैं कि पैदा करने के बावजूद इनके पास पैसा रहता नहीं । जनता का एक और हिस्सा भी है । प्रधानमंत्री ने भी कभी न कभी इसको ज़रूर देखा होगा । यह जनता सड़कों पर रिक्शा लेकर दौड़ती है । रिक्शे पर बैठी सवारी के कारण इस जनता का साँस फूला रहता है । जनता साईकिल के पैडल तेज तेज चलाते हुये सुबह सुबह दफ्तर की ओर भागती है । कैरियर पर टिफन होता है । सड़क पर ठेला लगा कर छोटा मोटा सामान बेचती जनता । सुबह से शाम तक सरपट दौड़ती जनता । इस जनता के पास भी पैसा होता है लेकिन वह निरन्तर भागते रहने के कारण पसीने से गीला हो जाता है और गन्धाने लगता है । एक जनता वह है जो रोटी कमाती तो है लेकिन पेट भर खा नहीं पाती, दूसरी वह है जो रोटी कमाती है और खाती भी है,तीसरी वह है जो रोटी कमाती तो नहीं लेकिन पेट भर खाती है और चौथी वह है जो रोटी कमाती तो नहीं पर छक कर खा लेने के बाद उससे खेलती है । यह जनता रोटी से खेलती है । अमेरिका ने मनमोहन सिंह को इस जनता के बारे में कुछ न कुछ ज़रूर बताया होगा । वैसे भी सारी उम्र बाबूगीरी करते करते अब वे सत्ता के केन्द्र में पहुँचे हैं तो इस चौथी किस्म की जनता के घरों में आना जाना भी होता ही होगा यदि प्रधानमंत्री ध्यान से देखें तो इस जनता के घर आँगन में जो पेड़ हैं उन पर पैसा फलता है। अर्थशास्त्र का अजीब किस्म का जादू है । दिन रात पसीना बहा कर पैसा पैदा कोई और करता है और वह पैदा होने के बाद उड़ कर किसी दूसरे के आँगन के पेड़ पर फलने लगता है । यह जनता बोफोर्स वाली है,टू जी स्पैक्टरम वाली है,कोलगेट स्कैंडल वाली है । इन के घरों में पेड़ों पर पैसा लगता है,यह मनमोहन सिंह भी अच्छी तरह जानते हैं । लेकिन इन का कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्योंकि यही लोग तो देश को चला रहे हैं । इन्होंने ही तो मनमोहन सिंह को संभाल रक्खा है ।
अब अमेरिका एक नया अर्थशास्त्र चला रहा है । उसके अनुसार भारत के लोग मेहनत कर पैसा पैदा करें और वह किसी जुगत से अमेरिका के पेड़ों में जा लगे। हिन्दुस्तान में आजकल इसी को मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र कहा जाता है । खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति इसी का नतीजा है । यही कारण है कि सरकार के इस निर्णय की सबसे ज्यादा प्रशंसा अमेरिका में ही हो रही है ।क्योंकि अब भारत के करोड़ोंकिराना व्यापारी तो उजड़ना शुरू हो जायेंगे और अमेरिका के वालमार्ट का पेट फूलना शुरु हो जायेगा । इसीलिये यह प्रश्न बार बार उठता है कि यूपीए की आरि्थक नीतियां क्या अमेरिका तय करता है ? अमेरिका चाहता है कि भारत सरकार अपने यँहा दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर दी जाये । यह अलग बात है कि दुनिया में अपने किसानों को सबसे ज्यादा
सब्सिडी अमेरिका सरकार ही देती है । लेकिन बाकी देश यह सब्सिडी बंद करें, इसके लिये उसके अर्थशास्त्री तर्कों से किताबें भर देते हैं और इन्हीं तर्कों को मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री तोते की तरह दोहराने लगते हैं फिर अवसर चाहे राष्ट्र के नाम संदेश का हो या फिर किसी विश्वविद्यालय के दीक्षाँत समारोह में नई पीढ़ी के अर्थशास्त्रियों का मार्गदर्शन करने का । लेकिन दुर्भाग्य से भारत के लोगों का पेट मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र से नहीं भरता ,अलबत्ता उससे उत्पन्न महँगाई से आम आदमी के लिये जीवन जीना मुशि्कल होता जा रहा और किसान तक आत्महत्या करने के लिये विवश हो रहे हैं । परन्तु ताज्जुब है मनमोहन सिंह इस बढ़ती मंहगाई को ही देश की प्रगति का सूचक बता रहे हैं । यही कारण है कि जिन के पेड़ों पर पैसे लगते हैं उनको तो प्रधानमंत्री खुद अपने पिछवाड़े में पाल ही नहीं रहे बल्कि उनको देश की जनता की खून पसीने की कमाई के करोड़ों रूपये सब्सिडी में भी दे रहे हैं । जिन के रूपये मेहनत के पसीने के कारण सदा ग़ीले रहते हैं, उनके आँगन के पेड़ों को भी कटवाने की व्यवस्था करवा रहे हैं ताकि वे उनकी छाया में भी न बैठ सकें ।
मनमोहन सिंह जी केवल उतना ही अर्थ(या अनर्थ) शास्त्र जानते हैं जितना उन्होंने एल एस ई और विश्व बेंक में पढ़ा है. जब वो भारतीय रिजर्व बेंक के अध्यक्ष थे तो उस समय उन्होंने एक ‘महँ’ कार्य किया था की पाकिस्तानी मूल के दुबई स्थित एक व्यक्ति के कुख्यात बेंक ऑफ़ क्रेडिट एंड कोमर्स इंटरनेश्नल को भारत में अपनी शाखा खोलने की अनुमति प्रदान की थी जबकि उस बेंक की गतिविधियों पर पूरी दुनिया में आक्षेप लगने प्रारंभ हो गए थे. और बाद में ये जगजाहिर हुआ की इसी बेंक ने दुनिया भर से हजारों करोड़ रुपये लूट कर पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के लिए धन जुटाया था. वैसे ये बटन भी शायद प्रासंगिक होगा की इस बेंक के संस्थापक द्वारा नौवें एशियाई खेलों के आयोजन के समय स्वर्गीय राजीव गाँधी को भी ‘चंदा’देकर उपकृत किया था.१९९१ के जिन आर्थिक सुधारों का श्रेय मनमोहन सिंह जी को दिया जाता है वो वास्तव में नेहरूवादी दमघोंटू लाईसेंस,कोटा परमिट राज की असफलता की स्वीकारोक्ति था. और प्रारंभ से ही चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मीनू मसानी और पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी द्वारा इन लाईसेंस, कोटा, परमिट राज का विरोध करते रहे थे लेकिन उन्हें पूंजीवादी कहकर आलोचना की जाती थी. यहाँ तक की भारतीय जनसंघ के अनुरोध पर डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा तैयार की गयी “इन्डियन इकोनोमिक प्लानिंग: एन अल्टरनेटिव एप्रोच” को भी संसद में रखा गया था जिस पर श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा ये कहकर अस्वीकार कर दिया था की देश में स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता. पी. वी. नरसिम्हा राव द्वारा उन नीतियों को तिलांजलि देकर अधिकांशतः डॉ. स्वामी द्वारा सुझाये क़दमों को मनमोहन सिंह से लागू कराया था.लेकिन इसका श्रेय मनमोहन सिंह को दे दिया गया. उसके बाद से आज तक इस ‘महान’ अर्थशास्त्री ने देश को सिवाय कठिनाईयों के और क्या दिया है?और उस पर भी तुर्रा ये की जनविरोधी नीतियां देश की आवश्यकता है. ये नीतियां देश की नहीं बल्कि मनमोहन सिंह जी के विदेशी आकाओं की जरुरत हैं.