‘मीडिया‘ के सामने नतमस्तक प्रधानमंत्री!

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लिमटी खरे

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ताकतवर ओहदे ‘वजीरे आजम‘ पर विराजमान ‘कमजोर‘ का तगमा झेलने वाले प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह अंततः मीडिया की ताकत के आगे झुक ही गए। प्रधानमंत्री पर लगने वाले तमाम आरोपों पर लंबे से समय से खामोशी अख्तियार करने के बाद उन्होंने ‘मीडिया घरानों‘ के चंद संपादकों से संवाद का साहस जुटाया। इसके पहले इसी साल फरवरी में वे चुनिंदा समाचार चेनल्स के संपादकों के साथ मुखातिब हुए थे। आखिर क्या वजह है कि देश का प्रधानमंत्री देश दुनिया को अपडेट रखने वाले समाचार के स्त्रोतों से कन्नी काटने पर मजबूर हुआ, वह भी लंबे समय तक। मीडिया में जब उनके और सोनिया गांधी के बीच अनबन के समाचारों को हवा मिलना आरंभ हुआ तब उनकी तंद्रा टूटी। नीरा राडिया मामले में मीडिया मुगलों की बातें और उनके कारनामों के बाद भी पीएम द्वारा उन्हें तवज्जो देना आश्चर्य का ही विषय है। बंद कमरे में क्या गुफ्तगू हुई इस बात का अंदाजा लगाया जाना मुश्किल है। पीएम की ओर से तो कोई बयान नहीं आया पर संपादकों ने जनता का पक्ष रखने के बजाए पीएम की इमेज बिल्डिंग में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई, जो चिंता जनक ही मानी जा सकती है।

 

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कभी प्रत्यक्ष चुनाव न जीतने वाले राज्य सभा के मार्फत राजनीति करने वाले देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वशक्तिशाली प्रधानमंत्री के पद पर आसीन डॉ.मनमोहन सिंह को अंततः अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए मीडिया की बैसाखी का उपयोग करना ही पड़ा। अगर प्रधानमंत्री को इस तरह का कदम उठाना पड़ा तो निश्चित तौर पर यह स्थिति केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ पीएमओ की संवादहीनता के कारण ही निर्मित हुई है। सूचना प्रसारण मंत्रालय की शाखाएं पत्र एवं सूचना कार्यालय (पीआईबी) द्वारा केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली, नीति, योजनाओं आदि को मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचाना, डीएव्हीपी का काम मोटा मोटी तौर पर मीडिया को विज्ञापन जारी करना एवं इसके अन्य संगठनों का काम प्रदर्शनी, गीत संगीत नाटक आदि के माध्यम से जनता को केंद्र की कार्यप्रणाली आदि समझाना होता है। साथ ही साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से नियमित समाचारों का प्रसारण होता है। विडम्बना ही कही जाएगी कि जनता से संग्रहित अरबों खरबों रूपए पानी में बहाने के बाद भी वांछित सफलता नहीं मिल पाती है। मजबूरन वजीरे आजम को संपादकों की टोली को बुलाकर उनसे मुखातिब होना पड़ता है। इनमें से कई तो एसे हैं जो नियमित रूप से पीएम के साथ दौरों पर जाते आते रहते हैं, पर पीएम को ताकतवर दिखाने के लिए इनकी टोली से मिलने का उपक्रम करना पड़ा।

चलिए देर सबेर मनमोहन सिंह जागे तो सही। उन्होंने मीडिया से नियमित संवाद का फैसला लिया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। सच है किसी भी लोकतांत्रिक देश में एयर कंडीशन्ड कमरों में बैठकर सरकारें नहीं चलाई जा सकती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व.नरसिंहराव को तो मीडिया ने मौनी बाबा का खिताब दे दिया था, किन्तु संगठन और सत्ता पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं था, यही कारण था कि उनका शुमार सफल प्रधानमंत्रियों की फेहरिस्त में है।

नरसिंहराव भले ही मौन धारण करते रहे हों, किन्तु उनका कार्यकाल घपलों और घोटालों का पर्याय नहीं था। कहते हैं आदमी का नाम नहीं उसका काम बोलता है। यही कारण है कि आधी लंगोटी पहनकर महात्मा गांधी ने गोरे ब्रितानी अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया था। तब तो अंग्रेजों का जुल्म सर चढ़कर बोलता था। अंग्रेज चाहते तो बापू की आवाज को कहीं भी दबा कर दफन कर देते, पर एसा नहीं हुआ।

मनमोहन सिंह किसके प्रति उत्तरदायी कहे जा सकते हैं? वे लोकसभा से चुनकर तो आए नहीं कि वे अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति जवाबदेह हों। एसे प्रधानमंत्री को कम से कम मीडिया के प्रश्नों का उत्तर देने का माद्दा तो होना ही चाहिए। यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कि देश का प्रधानमंत्री लोकसभा में अपना मत नहीं दे सकता! तब जबकि सरकार बनाने या गिराने का हक भारत गणराज्य में केवल लोकसभा के पास हो। विपक्ष भले ही मध्यावधि चुनावों का शिगूफा छोड़ता रहता हो, पर विपक्ष भी जानता है कि अगर मध्यावधि चुनावों में देश को ढकेल दिया गया तो उनकी छीछालेदर होना तय है। कांग्रेस जनाधार वाली वह पार्टी है जिसकी अगुआई में देश को आजादी मिली है। आज कांग्रेस सबसे मजबूत और ताकतवर पार्टी के तौर पर उभरी है, पर कांग्रेस में इतना साहस नहीं है कि वह मध्यावधि चुनाव करा कर राहुल के गैर करिश्माई व्यक्तित्व के भरोसे चुनावी वैतरणी पार कर सके।

देश मेें धनाड्यों, जनसेवकों और लोकसेवकों की मुट्ठी भर तादाद को अगर छोड़ दिया जाए तो शेष जनता को मंहगाई का दावानल निगल रहा है। प्रधानमंत्री 2009 से मंहगाई पर अंकुश लगाने की ‘तारीख पर तारीख‘ ही दिए जा रहे हैं। फिर से नई पेशी की तारीख मार्च 2012 मिल गई है। सवाल यह पैदा होता है कि अगर वे अपने इन मंहगाई रोकने के आश्वासनों पर कायम नहीं रह पाते हैं तो फिर उन्हें आश्वासन देने का क्या हक है? क्या वजह है कि पिछले साल मध्य प्रदेश के विधायकों की पगार बढ़ाने के विधेयक को संसद ने पारित कर दिया था? क्या मंहगाई सिर्फ सांसदों और विधायकों के लिए ही है? मंहगाई के नाम पर विरोध प्रदर्शनों का स्वांग रचने वाले विपक्ष में बैठे राजनैतिक दल किस तरह अपनी पगार बढ़ने पर मेजें थपथपाकर स्वागत किया करते हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है।

संपादकों की टोली के साथ संवाद में प्रधानमंत्री ने कह दिया कि मीडिया आरोप लगाने वाला, वकील और न्यायधीश की भूमिका में आ गए है। पीएम यह बात शायद भूल गए कि मीडिया के इस नए स्वरूप में आने का कारण सरकारी तंत्र की कार्यशैली, सरकार के पक्ष की चुप्पी और संवाद हीनता ही है। जब भी कोई बड़ा और गलत कदम उठाया गया है तब सरकारी पक्ष पूरी तरह खामोश रहा है।

सच्चाई यह है कि अगर विपक्ष के आरोपों के तीर धड़ाधड़ चलते रहेंगे तब सरकार का रवैया अगर मौन रहेगा तो जनता के बीच वही बात जाएगी जो विपक्ष कह रहा हो, भले ही वे आरोप निराधार हों। कामन वेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार की गूंज उठी। विपक्ष और मीडिया ने जमकर हल्ला बोला। सरकार खामोश रही पर देर सबेर उसे कार्यवाही करनी ही पड़ी। रामदेव बाबा के मसले पर कमोबेश यही हुआ। कपिल सिब्बल अपना राग अलापते रहे पर उनका राग सतही ही था। कपिल सिब्बल की विश्वसनीयता इस बात से ही जाहिर हो जाती है जब आदिमत्थू राजा को संचार मंत्री के पद से हटाया जाकर उन्हें संचार मंत्री बनाया गया था तब वे राजा के बचाव में अनर्गल प्रलाप ही कर रहे थे। इसके अलावा प्रधानमंत्री की कलम से ही दागी सीवीसी थामस की नियुक्ति की गई, इस बारे में भी सरकार बचाव की ही मुद्रा में रही।

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री को सोनिया गांधी ने यह आसनी दी है, इसलिए उन्हें सोनिया का शुक्रगुजार होना चाहिए किन्तु प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे कांग्रेस या सोनिया गांधी के नहीं इस देश के एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं, अतः उनकी जवाबदेही जनता के प्रति ज्यादा बनती है। साथ ही उन्हें यह संदेश साफ तौर पर देना और उसका अनुसारण अपने दैनिक जीवन में भी करना चाहिए कि जनसेवक या लोकसेवक जनता का नौकर होता है, जनता का शासक बनने की भूल अगर वे करेंगे तो उनकी दुश्वारियां इसी तरह बढ़ती जाएंगी।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

1 COMMENT

  1. सही बात है.
    किन्तु जिन्हें यह नहीं मालुम होता है की गुड तेल का भाव क्या है, या यह पता नहीं होता है की गुड और तेल में क्या बोतल में मिलता है और क्या पन्नी में (अर्थात इतने अमीर या उच्छ बल्कि अति उच्छ वर्ग से होते है) उनसे कुछ भी आशा करना व्यर्थ है.

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