‘ईश्वर का ध्यान करने से दुःखों की निवृत्ति होती है’

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-मनमोहन कुमार आर्य,

वेद और योग-दर्शन सभी मनुष्यों को ईश्वर का ज्ञान कराकर उन्हें ईश्वर की उपासना का सन्देश देते हैं। ईश्वर का ज्ञान व ध्यान करना क्यों आवश्यक है? इसका उत्तर है कि मनुष्य को सृष्टि में विद्यमान सभी सत्तावान पदार्थों का ज्ञान होने से हानि कुछ नहीं अपितु उनसे लाभ होता है। हम स्वदेशी गाय के दुग्ध के लाभों को जानकर उससे लाभ ले सकते हैं। भैंस के दुग्ध के गुणों को जानकर व गाय के दुग्ध के गुणों से उनकी तुलना करके अधिक गुणकारी दुग्ध का लाभ ले सकते हैं। इसी प्रकार से हानिकारक पदार्थों के गुण-दोष जानकर भी उनका यथायोग्य उपयोग व त्याग किया जा सकता है। यदि हम जानेंगे नहीं तो हम उनसे लाभ नहीं ले सकते और न जानने से हानि भी हो सकती है। इसी प्रकार ईश्वर को जानकर हम उससे होने वाले लाभों को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर के प्रमुख गुण क्या हैं? प्रथम गुण तो यह है कि वह एक अनादि व नित्य सत्ता है। अनादि पदार्थ अविनाशी होते हैं। अतः ईश्वर का कभी विनाश नहीं होगा, वह सदा रहने वाली सत्ता है। इस एक गुण को ही जानकर हम आश्वस्त होते हैं कि ईश्वर अनादि काल से हमारा सनातन सखा है और हमेशा रहेगा। यह अनुभूति तब होती है जब हमें यह ज्ञान होता है कि हम शरीर नहीं अपितु एक चेतन पदार्थ जीवात्मा हैं। जीवात्मा भी अविनाशी है। इससे यह सिद्ध होता है कि हम दोनों इस ब्रह्माण्ड में हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। यह ज्ञान सुख, शान्ति व सन्तुष्टि देने वाला है। ईश्वर के अन्य गुणों में वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर सर्वज्ञ भी है और सभी जीवों के पुण्य व पाप कर्मों का फल प्रदाता भी है। वह सही अर्थों में सच्चा न्यायाधीश है। किसी जीव का कोई कर्म भले ही वह रात के अन्धेरे व किसी गुप्त स्थान पर छुप कर किया गया हो, ईश्वर की दृष्टि से बच नहीं सकता और जीवात्मा को उसका सुख व दुःख रूपी फल ईश्वर की व्यवस्था से यथासमय मिलता है। ईश्वर के इन गुणों को जानने सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश और वेद भाष्य सहित उपनिषद, दर्शन ग्रन्थों एवं ऋषियों के अन्य ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। इससे मनुष्य को ईश्वर के सत्य व यथार्थ गुणों का ज्ञान हो जाता है।

मनुष्य को अपनी जीवात्मा को भी जानना चाहिये। जीवात्मा भी सत्य एवं चेतनस्वरूप है। यह आकार रहित, अल्पशक्तिमान, इच्छा-राग-द्वेष आदि के वशीभूत, विद्या व अविद्या में फंसी हुई ईश्वर से व्याप्य, अजर, अमर, सूक्ष्म, दृष्टि से अगोचर, सुख व दुःख का अनुभव करने वाली सत्ता है। यह जन्म व मरण में बन्धी हुई है। जन्म व मरण का कारण बन्धन होता है जो पाप व पुण्य कर्मों के कारण से होता है। यह भी सिद्ध है कि संसार में जितनी भी प्राणी योनियां हैं उनमें मनुष्य योनि श्रेष्ठ है। मनुष्य योनि में भी अनेक स्थितियां होती है। स्वस्थ शरीर, ज्ञान से युक्त आत्मा व बुद्धि, स्वाधीनता, आवश्यकता के अनुसार धन सम्पत्ति व परिवारजनों का होना आदि मनुष्य को अपने पूर्वजन्मों के कारण व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है। सभी मनुष्य व प्राणी दुःख से बचना चाहते हैं। अतः दुःखों से बचने व दुःख का निवारण ईश्वर के ज्ञान व उपासना से होता है। यह कैसे होता है इसे समझने का प्रयास हमें करना चाहिये।

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ तथा सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त है। आनन्दस्वरूप होने से वह सभी प्रकार के दुःखों से सदा सर्वदा पूरी तरह से मुक्त है। अतः ईश्वर की संगति करने अर्थात् आत्मा को परमात्मा से संयुक्त करने वा उससे जोड़ने से ईश्वर का आनन्द गुण जीवात्मा में प्रविष्ट होता है। इससे मन व आत्मा के मल, विक्षेप व आवरण दूर हो जाते हैं। मन स्वच्छ व पवित्र होने से जीवात्मा के सभी कर्म भी पुण्यकारी होते हैं। जब मनुष्य के सभी कर्म पुण्य व शुभ होंगे तो उसे दुःख मिलने का तो प्रश्न ही नहीं होता। यह भी जान लेना आवश्यक है कि मनुष्य का जीवात्मा भौतिक शरीर से युक्त होता है। शरीर का धर्म कुपथ्य के होने से विकारों वा रोगों का होना व उनसे दुःख होना सम्भव होता है। इसी कारण से ईश्वर भक्त व योगियों को भी शारीरिक कष्ट होते देखे जाते हैं। इनसे रक्षा के लिए साधक को अधिक से अधिक स्वाध्याय के साथ शारीरिक व्यायाम, योगासन, ऋत-मित-हितकारी भोजन, युक्ताहारविहार, संयम, उचित मात्रा में निद्रा तथा पुरुषार्थमय जीवन आदि व्यवहार व आचरण हैं। ऐसा करके मनुष्य अनेक प्रकार के शारीरिक दुःखों व रोगों से बच सकता है। जो कुछ थोड़े कष्ट आयेंगे उन्हें सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिये। यदि हमारा प्राणी मात्र के प्रति व्यवहार अच्छा है और हम बलिवैश्वदेव-यज्ञ करते हैं, सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव रखते हैं तो सावधान रहते हुए हम अन्य प्राणियों से होने वाले आधिभौतिक दुःखों से बच सकते हैं। आध्यात्मिक दुःखों के निवारण के लिए वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा ईश्वरोपासना आदि कार्य हैं। ईश्वरोपासना के साथ हमें अग्निहोत्र यज्ञ का सेवन भी करना चाहिये और अपने व्यवहार को वैदिक मान्यताओं के अनुसार बनाना चाहिये। ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी आदि श्रेष्ठ विद्वानों व महापुरुषों के जीवन चरितों को पढ़कर भी हम अपना जीवन उनके अनुरूप बना कर अनेक दुःखों से बच सकते हैं। यह जानना भी आवश्यक है कि हमें यह जो मनुष्य जीवन मिला है वह शुभ कर्मों को करने, ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र सहित वेदाध्ययन व ज्ञानार्जन के लिए मिला है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारी इस जीवन व परजन्म में उन्नति होगी अन्यथा हमें परजन्म में मनुष्य जीवन मिलेगा, इस पर शंका करनी चाहिये। शास्त्रों के अध्ययन व उनके यथार्थ ज्ञान से ही हम इस प्रश्न का उत्तर जान सकते हैं।

जब हम ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करते हैं तो इसमें ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना दोनों सम्मिलित होती है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर हमारी स्तुति को सुनता है। वह अपनी ओर से स्तुति के अनुरूप हमारे गुण-कर्म-स्वभाव को सुधारता है। हम स्तुति व प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘तेजोसि तेजो मयि धेहि, वीर्यमसि वीर्यम् मयि धेहि’ आदि। इस प्रकार से प्रार्थना करने से हमें ईश्वर के तेज व बल की प्राप्ति होती है। हमें केवल यह करना होता है कि हम जो भी प्रार्थना करें उसके अनुरूप जो कर्म अपेक्षित हैं, वह करने चाहिये। ईश्वर ज्ञानस्वरूप है। हम जब उससे ज्ञान मांगते हैं तो शनैः शनैः हमारी बुद्धि ज्ञानयुक्त होने लगती है। यह संगतिकरण व उपासना की प्रक्रिया के अनुसार होता है। इसी कारण वैदिक धर्म में प्रातः व सायं दो समय सन्ध्या वा ध्यान करने का विधान है। सन्ध्या के अतिरिक्त यज्ञ करते समय, भोजन करते हुए व स्वाध्याय आदि करते हुए भी ईश्वर विषयक मन्त्रपाठ करने व ईश्वर विषय का अध्ययन करने से ईश्वर से संगतिकरण व उसकी उपासना होती है जिससे अनेक लाभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी महाभारत काल के बाद विश्व में उत्पन्न सर्वश्रेष्ठ महामानव थे। उन्होंने पूरे संसार का उपकार किया है। उन्होंने ही ईश्वर व जीवात्मा आदि का सत्यस्वरूप बताया व ईश्वर का ध्यान करने की सही विधि बताने सहित यज्ञ-अग्निहोत्र का विधान व क्रियात्मक ज्ञान भी कराया। उन्हें जो विद्या व शारीरिक बल प्राप्त हुआ, वह विद्वानों की संगति सहित योग विधि से ईश्वरोपासना, सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय व उनके अभ्यास वा आचरण से ही प्राप्त हुआ था। हम भी यदि इन उपायों का प्रयोग व अभ्यास करते है तो निश्चय ही हमारा भी कल्याण होगा।

ईश्वर दुःख रहित है अतः उसका ध्यान व ‘ओ३म्’ नाम जप आदि करके हम भी दुःखों से निवृत्त हो सकते हैं। केवल गायत्री मन्त्र के अर्थ सहित जप करने से ही आत्मा व शरीर को अनेक लाभ होते हैं और हमारे अनेक दुःख दूर होते हैं। ऐसा सम्भव नहीं है कि आप आनन्दस्वरूप ईश्वर की उपासना करें और आपके दुःख दूर न हों। ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण व हमें प्राणों से भी प्रिय है। वह दुःखों से सर्वथा रहित है और सुखों से युक्त है। अतः हमें उसकी उपासना करके अपने दुःखों को दूर करने के साथ उपासना से प्राप्त होने वाले धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करना है। उपासना से मनुष्य अधर्म को छोड़कर सच्चा धार्मिक बन जाता है। उपासना से उसको अर्थ, धन दौलत सहित श्रेष्ठ भोग ज्ञान, सुख व श्रेष्ठ कर्म प्राप्त होते हैं। ज्ञान से युक्त श्रेष्ठ कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव होती है। अतः हमें ईश्वर को जानना है, उसे जानकर उसकी उपासना करनी है और यज्ञादि कर्मों को करते हुए देश व समाज का हित करना है। इससे हमें निश्चय ही लाभ होगा।

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