मेरी सत्ता लगे कभी पत्ता !



मेरी सत्ता लगे कभी पत्ता, 
जाती उड़ कभी वही अलबत्ता;
लखे खद्योत कभी द्योति तके,
ज्योति संश्लेत कभी स्रोत लखे !

भूल मैं जाता कभी जो तरता,
भटक में पाता कभी जो खोता;
अटक मैं जाता कभी आहिस्ता,
पार कर जाता कभी जग सरिता !

त्याग की सीमा कभी मैं वरता,
सोच की हद से दूर मैं होता;
भाव में पर कभी मैं बह जाता,
शेर बन जगत कभी छा जाता !

विश्व को तिनका वत कभी लखता,
जगत के तिनके से कभी डरता;
आग हर हृदय कभी दे देता,
आँच अपनी से कभी जल जाता !

समझ ना पाया सृष्टि का रिश्ता,
देख मैं पाया कहाँ जग सत्ता;
‘मधु’ की सत्ता उसी की सत्ता,
समझ ना पाया यही चित द्रष्टा ! 

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’ 

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