याद आ रही ससुराल जाती मिनी , मेवा बेचते रहमत, नेताजी सुभाष, टैगोर

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जैसे-जैसे तालिबान काबुल को अपने कब्जे में ले रहा,मेरी आंखों के सामने शरद के पत्तों की तरह सरसराकर गुज़र रही तस्वीरें, कहानी.. काबुल का रहमत खान,छोटी सी मिनी..जो कब छोटी से बड़ी हो गई और ससुराल जाने लगी। नेताजी सुभाष की याद आ रही और काबुल के शोर बाजार में उनका चंद दिनों का ठिकाना..याद आ रहे टैगोर, उनकी कालजयी रचना काबुलीवाला , कानों पर गूंजता मन्ना डे का ए मेरे प्यारे वतन गीत और उस गीत को सुनकर कोलकाता के खान बाजार के काबुलीवालों की आंखों से छलकते आंसू मुझे तड़पा देते हैं।
कुछ समय पहले अरशद गनी जब वहां के राष्ट्रपति थे और भारत आए थे, हमारे PM को बताए थे कि यह रिश्ता आज का नहीं है, बल्कि टैगोर के काबुलीवाला ने वर्षों पहले बना दिया है। आज फिर इस रिश्ते पर सवालिया निशान लगने लगा है। गनी तो मुल्क छोड़कर भाग गए हैं। कोलकाता के खान बाज़ार में सारे काबुलीवाले वतन का यह हाल देखकर तड़प रहे हैं। काबुलीवाला फ़िल्म में मन्ना डे का यह गीत फिर ज़िंदा हो उठा है। बलराज साहनी का रोल फिर एकबार सभी याद करने लगे हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की कालजयी रचना काबुलीवाला ने भारत और अफगानिस्तान का रिश्ता अटूट बना दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था इधर खराब है। तालिबानी हरकतों से अफगानिस्तान पर निवेश तीन अरब डॉलर के डूबने की आशंका भी जताई जा रही है। काबुलीवाला से रिश्ता ने ही भारत को काबुल खींचकर ले गया था यह पूंजी लगाने । अफगानिस्तान के तकरीबन तेरह हजार स्टूडेंट्स भारत में पढ़ते हैं। आज वे भी बेहद सशंकित है।
नेपाल के गोरखा और काबुल के खान साहब कभी भारत को पराए लगे ही नहीं।काबुलीवाला एक मामले में जिद्दी होते हैं। वे तकादा अधिक करते हैं। रुपया छोड़ नहीं सकते। लोग चुटकी भी लेते हैं काबली की तरह तकादा करने उतर आए.. वे रुपया वसूलकर ही छोड़ते हैं। नहीं मिलने पर जान दे भी सकते हैं। जान ले भी सकते हैं। चादर की उधारी के कारण रहमत को जान लेनी पड़ी। पड़ोस में शोर हो रहा था। छोटी सी मिनी देखी उसके दोस्त रहमत काबुलीवाला को पुलिस पकड़कर ले जा रही है। मिनी ने पूछा, काबुलीवाला ! ओ काबुलीवाला! कहां जा रहे हो। रहमत जवाब देता है ससुराल। वहां ससुर को मारना है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की काबुलीवाला कहानी आज पूरी दुनिया को याद आ रही होगी। पांच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता था। एक दिन सवेरे-सवेरे बोली,‘‘बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी । ’
एक दिन मिनी कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी,‘‘काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!’’ कंधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अंगूर की पिटारी लिए एक लंबा-सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।
फिर मिनी का डर टूटा। रहमत काबुलीवाला उसका दोस्त बन गया।काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश-बादाम दे-देकर मिनी के छोटे-से हृदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे ख़ूब हंसते। रहमत काबुली को देखते ही मिनी हंसती हुई पूछती,‘‘काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?’’ रहमत हंसता हुआ कहता,‘‘हाथी।’’ फिर वह मिनी से कहता,‘‘तुम ससुराल कब जाओगी?’’ इस पर उलटे वह रहमत से पूछती,‘‘तुम ससुराल कब जाओगे?’’ रहमत अपना मोटा घूंसा तानकर कहता,‘‘हम ससुर को मारेगा।’’
फिर एक दिन चादर की उधारी का पैसा नहीं मिलने पर रहमत ने एक व्यक्ति का खून कर दिया और जेल चला गया।

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई। मिनी बड़ी होने लगी। उसे भूलती गई।कई साल बीत गए।मिनी का विवाह का दिन आ गया । पिता अपने कमरे में बैठा हुआ ख़र्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।उसने पूछा,‘‘क्यों रहमत कब आए?” “कल ही शाम को जेल से छूटा हूं,” उसने बताया। मिनी के पिता ने कहा,‘‘आज घर में एक ज़रूरी काम है। फिर कभी आना।’’ वह उदास होकर जाने लगा। दरवाज़े के पास रुककर बोला,‘‘ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?’’ शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची है। पिता ने कहा,‘‘बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।’’ वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके निकल गया।फिर वह लौट आया और बोला,‘‘यह थोड़ा-सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। दे दीजिएगा।’’ उसने पैसे नहीं लिए। कहा, आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी है। मैं उसकी याद करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूं। मैं यहां सौदा बेचने नहीं आता।’’
उसने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ काग़ज़ का टुकड़ा निकाला और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि काग़ज़ के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी की इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है। मिनी की पिता की आंखें भर आईं। सबकुछ भूलकर उसी समय मिनी को बाहर बुलाया गया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी आकर खड़ी हो गई। उसे देखकर काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हंसते हुए बोला,‘‘लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?’’ मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुंह लाल हो उठा। मिनी के चले जाने पर एक गहरी सांस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया।उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? मिनी के पिता ने उसे कुछ रुपए निकालकर दिए और कहा,‘‘रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ.’’

आज का रहमत तो अब मुल्क भी नहीं जा सकता है। अब तो उस देश में तालिबान का कब्ज़ा है। मिनी की तरह खान साहबों की बेटियां भी बड़ी हो गई होंगी।

अफगानिस्तान से हमारा एक और रिश्ता है। 1940 में जब अंग्रेजों ने सुभाष चन्द्र बोस को घर पर नज़रबंद किया तो उन्होंने पाकिस्तान से दोस्त अकबर मियां को बुलाया फिर अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर धनबाद के गोमो स्टेशन होकर आगे निकल गए। वे पेशावर होते हुए रूझ फिर जर्मनी पहुंचे थे अंतरराष्ट्रीय मदद मांगने तस्कि हिंदुस्तान को आज़ाद कराया जा सके। काबुल के शोर बाजार में वे कुछ दिन ठहरे थे। उनको टीवी हो गई थी। एक खान साहब ने ही इलाज़ किया था।

अभिशप्त राष्ट्रपति भवन

अफगानिस्‍तान में दूसरा एंग्‍लो युद्ध शुरू हुआ तो फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट ने आज के प्रेसिडेंट के किले को ध्‍वस्‍त कर दिया था। इसी महल में अफगानिस्‍तान के हफीजुल्‍ला अमीन रहा करते थे। वो एक कम्‍युनिस्‍ट नेता और टीचर थे जिन्‍होंने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्‍तान की स्‍थापना की थी। 1978 में जब सौर क्रांति हुई तो मोहम्‍मद दाउद खान और उनके परिवार को पीपुल्‍स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्‍तान (PDPA) के सदस्‍यों ने अर्ग के अंदर ही मार डाला था । मोहम्‍मद दाउद, अफगानिस्‍तान के 5वें प्रधानमंत्री थे।

उत्तम मुखर्जी

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