मोदी सरकारः साल भर चले अढ़ाई कोस

-संजय द्विवेदी-

man ki bat

-देश के प्रधानमंत्री के सामने सत्ता को मानवीय और जनधर्मी बनाने की चुनौती-

भारतीय जनता पार्टी को पहली बार केंद्र में बहुमत दिलाकर सत्ता में आई नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल पूर्ण होने पर जो स्वाभाविक उत्साह और जोशीला वातावरण दिखना चाहिए वह सिरे से गायब है। क्या नरेंद्र मोदी की सरकार से उम्मीदें ज्यादा थीं और बहुत कुछ होता हुआ न देखकर यह निराशा सिरे चढ़ी है या लोगों का लगता है मोदी की सरकार अपने सपनों तक नहीं पहुंच पाएगी। सक्रियता, संवाद और सरकार की चपलता को देखें तो वह नंबर वन है। मोदी आज भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उनके कद का कोई नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। वैश्विक राजनेता बनने की ओर अग्रसर मोदी आज दुनिया में सुने और सराहे जा रहे हैं। किंतु भारत के भीतर वह लहर थमती हुयी दिखती है।

दिल्ली चुनाव के परिणाम वह क्षण थे जिसने मोदी की हवा का गुब्बारा निकाल दिया तो कुशल प्रबंधक माने जा रहे भाजपा अध्यक्ष का चुनाव प्रबंधन औंधे मुंह पड़ा था। सिर्फ तीन सीटें जीतकर भाजपा दिल्ली प्रदेश में अपने सबसे बुरे समय में पहुंच गयी तो बिहार में उसके विरोधी एकजुट हो गए। यह वही समय था, जिसने मोदी की सर्वोच्चता को चुनौती दी। इधर अचानक लौटे राहुल गांधी के गर्जन-तर्जन और सोनिया गांधी के मार्च ने विपक्षी एकजुटता को भी मुखर किया। संसद में राज्यसभाई लाचारी पूरी सरकार पर भारी पड़ रही है और सरकार लोकसभा में बहुमत के बावजूद संसद के भीतर घबराई सी नजर आती है। वह तो भला हो अरविंद केजरीवाल और उनके नादान दोस्तों का कि वे ऐसी सरकार चला रहे हैं, जहां रोजाना एक खबर है और उनसे लोगों की उम्मीदें धराशाही हो गयी हैं। यह अकेली बात मोदी को राहत देने वाली साबित हुयी है। केंद्र की सरकार को एक साल पूरा करते हुए अपयश बहुत मिले हैं। बिना कुछ गलत किए यह सरकार कारपोरेट की सरकार, किसान विरोधी सरकार, सूटबूट की सरकार, धन्नासेठों की सरकार जैसे तमगे पा चुकी है। आश्चर्य यह है कि भाजपा के कार्यकर्ता और उसका संगठन इन गलत आरोपों को खारिज करने के आत्मविश्वास से भी खाली है। आखिर इस सरकार ने ऐसा क्या जनविरोधी काम किया है कि उसे खुद पर भरोसा खो देना चाहिए? नरेंद्र मोदी की ईमानदारी, उनकी प्रामणिकता और जनता से संवाद के उनके निरंतर प्रयत्नों को क्यों नहीं सराहा जाना चाहिए? एक कठिन परिस्थितियों से वे देश को प्रगति और विकास की राजनीति से जोड़ना चाहते हैं। वह संकल्प उनकी देहभाषा और वाणी दोनों से दिखता है। किंतु क्या नरेंद्र मोदी यही अपेक्षा अपनी टीम से कर सकते हैं? अगर अरविंद केजरीवाल के नादान दोस्तों ने उनकी छवि जमीन पर ला दी है तो मोदी भी समान परिघटना के शिकार हैं। उनके दरबार में भी गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति, आदित्यनाथ, साक्षी महराज जैसे नगीने हैं, जो उन्हें चैन नहीं लेने देते तो विरोधियों के हाथ में कुछ कहने के लिए मुद्दे पकड़ा देते हैं।

आप देखें तो अटल जी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का जादू इतनी जल्दी नहीं टूटा था बल्कि साल पूरा करने पर अटल जी एक हीरो की तरह उभरे थे। यह भरोसा देश में पैदा हुआ थी कि गठबंधन की सरकारें भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकती हैं। अटल जी के नेतृत्व के सामने भी संकट कम नहीं थे, किंतु उन्होंने उस समय जो करिश्मा कर दिखाया, वह बहुत महत्व का था। उनकी सरकार ने जब एक साल पूरा किया तो उत्साह चरम पर था हालांकि यह उत्साह आखिरी सालों में कायम नहीं रह सका। किंतु आज यह विचारणीय है कि वही उत्साह मोदी सरकार के एक साल पूरे करने पर क्यों नहीं दिखता।

क्या संगठन और सरकार में समन्वय का अभाव है? हालांकि यह शिकायत करने का अधिकार नरेंद्र मोदी को नहीं है क्योंकि यह माना जाता है कि अमित शाह उनका ही चयन हैं और वे मोदी को अच्छी तरह समझते हैं। फिर आखिर संकट कहां है? मोदी का मंत्रिमंडल क्या बेहद औसत काम करने वाली टीम बनकर नहीं रह गया है? उम्मीदों की तरफ भी छलांग लगाती हुयी यह सरकार नहीं दिखती। संसद में सरकार का फ्लोर मैनेजमेंट भी कई बार निष्प्रभावी दिखता है। मंत्री आत्मविश्वास से खाली दिखते हैं, किंतु उनका दंभ चरम पर है। कार्यकर्ताओं और सांसदों की न सुनने जैसी शिकायतें एक साल में ही मुखर हो रही हैं। जाहिर तौर पर दल के भीतर और बाहर बैचेनियां बहुत हैं। संजय जोशी प्रकरण को जिस तरह से मीडिया में जगह मिली और संगठन से जिस तरह के बर्ताव की खबरें आयीं, वह चौंकाने वाली हैं। क्या सामान्य शिष्टाचार भी अब अनुशासनहीनता की श्रेणी में आएंगे, यह बात लोग पूछने लगे हैं। नरेंद्र मोदी के अच्छे इरादों, संकल्पों के बावजूद समूची सरकार की जो छवि प्रक्षेपित हो रही है, वह बहुत उत्साह जगाने वाली नहीं है। समन्वय और संवाद का अभाव सर्वत्र और हर स्तर पर दिखता है। विकास और सुशासन के सवालों के साथ भाजपा के अपने भी कुछ संकल्प हैं। उसके साथ राजनीतिक संस्कृति में बदलाव की उम्मीदें भी जुड़ी हुई हैं, पर क्या बदल रहा है,यह कह पाना कठिन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत जल्दी मोदी से ज्यादा उम्मीदें पाली जा रही हैं। पर यह उम्मीदें तो मोदी ने ही जगाई थीं। वे पांच साल मांग रहे थे, जनता ने उन्हें पांच साल दिए हैं। अब वक्त डिलेवरी का है। जनता को राहत तो मिलनी चाहिए। किंतु मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह का संगठित दुष्प्रचार हो रहा है, वह इस सरकार की छवि पर ग्रहण लगाने के लिए पर्याप्त है।

दिल्ली में आकर मोदी दिल्ली को समझते, उसके पहले उनके विरोधी एकजुट हो चुके हैं। राजनेताओं में ही नहीं दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में बसने वाले नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों की एक ऐसी आबादी है, जो मोदी को सफल होते देखना नहीं चाहती। इसलिए मोदी के हर कदम की आलोचना होगी। उन्हें देश की जनता ने स्वीकारा है, किंतु लुटियंस की दिल्ली ने नहीं। स्वाभाविक शासकों के लिए मोदी का राजधानी प्रवेश एक अस्वाभाविक घटना है। वे इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि एक राष्ट्रवादी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में विराजी हुयी है। नरेंद्र मोदी की विफलता में ही इन भारतविरोधी बुद्धिजीवियों और अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की शक्ति लगी हुयी है। देश के भीतर हो रही साधारण घटनाओं पर अमरीका की बौखलाहट देखिए। अश्वेतों पर आपराधिक अन्याय-अत्याचार करने वाले हमें धार्मिक सहिष्णुता की सलाहें दे रहे हैं क्योंकि हम धर्मान्तरण की प्रलोभनकारी घटनाओं के विरोध में हैं। वे ग्रीनपीस के साथ खड़े हैं क्योंकि सरकार भारत विरोधी तत्वों पर नकेल कसती हुयी दिखती है। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी की सरकार को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह आराम से काम करे। उसके सामने यह चुनौती है कि वह समय में देश के सामने खड़े जटिल प्रश्नों का हल निकाले। मोदी अपने समय के नायक हैं और उन्हें यह चुनौतियां स्वीकारनी ही होगीं। साल का जश्न मने न मने, नरेंद्र मोदी और उनकी टीम को इतिहास ने यह अवसर दिया है कि वे देश का भाग्य बदल सकते हैं। इस दायित्वबोध को समझकर वे अपनी सत्ता और संगठन के संयोग से एक ऐसा वातावरण बनाएं जिसमें देश के आम आदमी का आत्मविश्वास बढ़े, लोकतंत्र सार्थक हो और संवाद निरंतर हो। उम्मीद की जानी कि अपनी सामान्य पृष्ठभूमि की विरासत का मान रखते हुए नरेंद्र मोदी इस सत्ता तंत्र को आम लोगों के लिए ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाने के अपने प्रयत्नों को और तेज करेंंगे। तब शायद उनके खिलाफ आलोचनाओं का संसार सीमित हो सके। अभी तो उन्हें लंबी यात्रा तय करनी है।

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  1. संजय द्विवेदी जी,मोदी जी की साल भर की असफलता की कहानी कहते कहते,आप को यह कहने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई कि “वह तो भला हो अरविंद केजरीवाल और उनके नादान दोस्तों का कि वे ऐसी सरकार चला रहे हैं, जहां रोजाना एक खबर है और उनसे लोगों की उम्मीदें धराशाही हो गयी हैं। यह अकेली बात मोदी को राहत देने वाली साबित हुयी है” चाहे नमो की बखान हो या उनकी असफलता की ककहानी,ऐसा क्यों हो रहाहै कि उसमे अरविन्द केजरीवाल को घसीटना आवश्यक हो जाता है? दिल्ली एक अधूरा राज्य है,वहां के मुख्य मंत्री के अधिकार बहुत सीमित है. फिर भी लोगों की उम्मीदें नहीं टूटी हैं.मीडिया न चाहते हुए भी इन पे नजर डालने के लिए मजबूर हो गया है.बावजूद इन सीमित अधिकारों के, इन चंद महीनों में अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने क्या कुछ भी सराहनीय नहीं कियाहै? क्या आपलोगों को दिल्ली में सचमुच कुछ परिवर्तन नहीं दिख रहा है?आँखों की पट्टी खोलिए औए दिल्ली के उन क्षेत्रों का दौरा कीजिये ,जो आजतक उपेक्षित थे.आपको परिवर्तन दिख जाएगा. सरकारी स्कूलों ,सरकारी अस्पतालों ,अन्य सरकारी बिभागों में आपको बहुत कुछ बदला हुआ नजर आएगा.

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