‘भागवत पुराण’: निगाहें कहीं पर, निशाना कहीं

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तनवीर जाफ़री

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने महिलाओं के साथ होने वाले दुराचार व बलात्कार के परिपेक्ष्य में पिछले दिनों अपनी यह राय ज़ाहिर की कि बलात्कार जैसे मामले भारत में कम होते हैं जबकि इंडिया में अधिक। गोया उन्होंने साफतौर पर प्रगतिशील शहरी समाज पर निशाना साधते हुए यह कहने की कोशिश की है कि गांव के वातावरण में रहने वाली महिलाएं शहर की महिलाओं से अधिक सुरक्षित रहती हैं। जबकि शहरी महिलाएं स्कूल-कॉलेज, नौकरी, प्रशिक्षण जैसे कई कामों से अपने घर से बाहर निकलती हैं। ठीक इसके विपरीत गांव का जीवन शहर की तुलना में काफी ठहरा हुआ होता है। प्राय: गांव की महिलाएं अपने घर अथवा खेती-बाड़ी संबंधित या पशुधन संबंधी व्यस्तताओं में अपना समय गुज़ार देती हैं। परिणामस्वरूप ऐसी महिलाओं का शैक्षिक व बौद्धिक विकास नहीं हो पाता। जिसका सीधा प्रभाव उस परिवार के बच्चों पर पड़ता है। परंतु संघ प्रमुख मोहन भागवत को शहर में रहने वाली महिलाओं की शिक्षा,सामाजिक उत्थान या आत्मनिर्भरता का पक्ष तो हरगिज़ नहीं दिखाई दिया बल्कि उन्हें सिर्फ यही नज़र आया कि शहरी लड़कियां चूंकि बाहर निकलती हैं, उनका पुरुषों से वास्ता पड़ता है, स्कूल-कालेज,सिनेमा, शापिंग मॉल, ऑफ़िस आदि में उनका बराबर आना-जाना रहता है। लिहाज़ा बलात्कार जैसी घटना की वे आसानी से शिकार हो जाती हैं।

हालांकि भागवत के इस बयान के बाद इस विषय को लेकर बहस छिड़ गई है कि क्या संघ प्रमुख का वक्तव्य सही है? क्या वास्तव में भागवत का आंकलन सही है कि गांव की महिलाएं यौन उत्पीडऩ से सुरक्षित रहती हैं? या फिर गांव में होने वाले इस प्रकार के मामले न ही अखबार व मीडिया की सुखयों में आ पाते हैं न ही ऐसे तमाम मामले पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हो पाते हैं। जबकि ठीक इसके विपरीत शहर में होने वाली कोई भी घटना मीडिया की नज़रों से मुश्किल से ही बच पाती है। लिहाज़ा इस विषय को लेकर भारत व इंडिया की तुलना करना मेरे ख्याल से कतई मुनासिब नहीं है। जब ‘भागवत के भारत’ में किसान आत्महत्याएं करते हैं या दलित समाज का कोई परिवार बाहुबलियों या दबंगों के अत्याचार या शोषण का शिकार हो जाता है उस समय क्या इंडिया तो क्या भारत इसे पूरे देश का मामला समझा जाता है। लिहाज़ा महिला यौन शोषण जैसे घिनौने अपराध को लेकर भारत के शहरों और गांवों के मध्य इस प्रकार की लकीर खींचना क़तई मुनासिब नहीं है। परंतु फिर भी यह सवाल अपनी जगह पर क़ायम है कि आखर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक जि़म्मेदार मुखिया ने ऐसा गैर जि़म्मेदाराना बयान क्या यूं ही बिना किसी मकसद के दे डाला? मेरे विचार से ऐसा भी नहीं है बल्कि भागवत का यह बयान बहुत कुछ चिंतन-मंथन व सोच-विचार करने के बाद तथा एक सोची-समझी दूरगामी रणनीति के तहत दिया गया है।

दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनैतिक संगठन जिसे भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाना जाता है का देश में जो भी जनाधार आज देखने को मिल रहा है वह संघ परिवार तथा उसके विश्व हिंदू परिषद तथा बजरंग दल जैसे कई सहयोगी कथित सामाजिक व धार्मिक संगठनों से जुड़े स्वयं सेवकों व कार्यकर्ताओं के बल पर ही है। भाजपा के अपने पार्टी कार्यकर्ता पूरे देश में नाममात्र ही हैं। यही वजह है कि चाहे वह भारतीय जनसंघ रही हो या फिर भारतीय जनता पार्टी यह दोनों ही हिंदूवादी दक्षिणपंथी राजनैतिक संगठन संघ परिवार के न केवल इशारों पर काम करते आ रहे हैं बल्कि भाजपा पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नियंत्रण में भी रहती है। कहना $गलत नहीं होगा कि संघ परिवार का भारतीय जनता पार्टी में तथा पार्टी द्वारा लिए जाने वाले सभी प्रमुख फैसलों में पूरा दखल, निर्देश व अधिकार रहता है। यहां तक कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष किसे बनना है यह तक संघ परिवार तय करता है। इस प्रकार भाजपा को अपने संरक्षण में रखकर संघ परिवार ने पार्टी का जो जनाधार खड़ा किया है उसमें इनके अधिकांश समर्थक व इनके हिंदूवादी कट्टरपंथी विचारों से सहमति जताने वाला स्वयं सेवक मुख्य रूप से शहरों में ही रहते हैं। विशेषकर शहरी व्यापारी वर्ग तथा स्वर्ण जाति का एक वर्ग भाजपा का मतदाता गिना जाता है। और अब तो शहरों में भी कर्नाटक,हिमाचल प्रदेश,उतराखंड,उत्तर प्रदेश, बिहार व राजस्थान जैसे कई राज्यों में इनका शहरी जनाधार भी पहले से कम होता दिखाई दे रहा है।

ज़ाहिर है संघ परिवार व भाजपा दोनों ही अपने इस खोए जनाधार की भरपाई करना चाह रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार आज भी देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी भारतीय गांवों में ही रहती है। और संघ परिवार या भाजपा का जनाधार देश के ग्रामीण इलाक़ों में नाममात्र है। देश का ग्रामीण वर्ग सांप्रदायिकता, कट्टरपंथी विचारधारा, धर्म आधारित विद्वेष तथा धर्म के आधार पर राजनैतिक दलों में विभाजित होने जैसी बातों को जल्दी पचा नहीं पाता। यही वजह है कि संघ व भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद देश के ग्रामीण अंचलों में उनकी सांप्रदायिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण की एक भी योजना सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों के मद्देनज़र समाज को विभाजित करने में महारत रखने वाले संघ परिवार के मुखिया द्वारा नारी यौन शोषण जैसे संवेदनशील मामले को भारत व इंडिया जैसा शगूफ़ा छोड़ कर प्रयोग में लाने की कोशिश की जा रही हो। भागवत ने ज़रूर यह सोचा होगा कि नारी यौन शोषण का ठीकरा शहरी समाज के सिर फोडऩे से संभवत: गांव के लोग खुश होंगे तथा स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेंगे। संघ को यह भी बखूबी मालूम है कि शहर में जो संघ समर्थक मतदाता उनके पक्ष में है तथा उसे सांप्रदायिकता या हिंदूवाद की घुट्टी पिला दी गई है वह जल्दी इनसे अलग नहीं होगा। लिहाज़ा शहरों के जो मत इन्हें अपने पक्ष में दिखाई दे रहे हैं उनके अतिरिक्त गांवों के मतदाताओं को खुश कर जो मत गांव से इस मंथन के पश्चात प्राप्त होंगे वह 2014 में भाजपा की स्थिति को सुदृढ़ कर सकते हैं।

इस पूरे प्रकरण में मज़े की बात तो यह है कि गांव के रहने वाले तमाम लोग अब भी गांव की पंचायतों व खापों के फरमान को ईश्वरीय फ़रमान मानते हैं। वह वर्ग भी महिलाओं के सामाजिक,शैक्षिक या बौद्धिक उत्थान के पक्ष में नहीं है। उदाहरण के तौर पर अभी पिछले दिनों मेरठ व जयपुर से ऐसे समाचार प्राप्त हुए जिसमें ग्राम पंचायत ने कुंवारी लड़कियों के मोबाईल फोन रखने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इन पंचायतों का यह तजुर्बा है कुंवारी लड़कियां मोबाईल फोन रखने की वजह से जल्दी पुरुषों के संपर्क में आ जाती हैं। जबकि यह प्रतिबंध वहां पर शादीशुदा महिलाओं पर नहीं लगाए गए हैं। ज़ाहिर है ऐसी पुरुषवादी सोच रखने वाले किसी भी धर्म-जाति या संप्रदाय के लोगों के कानों को भारत व इंडिया के मध्य लकीर खींचने वाला यह भागवत पुराण सुनते हुए अच्छा लगेगा कि गांवों में अथवा भारत में बलात्कार या यौन शोषण के मामले कम होते हैं। और संघ प्रमुख की संभावित सोच के मुताबिक यही ग्रामीण समाज उनका लक्ष्य है।

बावजूद इसके कि 16 दिसंबर के दिल्ली गैंगरेप कांड के बाद इस घटना को लेकर गुस्से में आया असंगठित भारतीय समाज इस बात की पूरी कोशिश कर रहा है कि इस मामले को राजनैतिक रंग दिए बिना घटना की गंभीरता को समझा जाए तथा आए दिन होने वाले नारी के यौन शोषण व नारी के साथ बरती जाने वाली दरिंदगी के विरुद्ध सख्त से सख्त कानून बनाया जाए। उनकी सुरक्षा के उचित प्रबंध किए जाएं। यहां तक कि इस प्रकार के एकत्रित हुए गैर राजनैतिक लोगों विशेषकर युवाओं के विरोध प्रदर्शन का सिलसिला आज भी साकेत स्थित न्यायालय तथा जंतरमंतर पर जारी है। बहुत सुखद है कि तमाम कोशिशों के बाद इस घटना को कोई भी राजनैतिक दल अपने पक्ष में भुना पाने में सफल नहीं रहा। परंतु संघ प्रमुख भागवत ने जिस प्रकार इस प्रकरण को लेकर इंडिया व भारत के बीच संस्कारों की खाई बनाने की कोशिश की है उससे साफ ज़ाहिर होता है कि उन्होंने इस चर्चा को 2014 के आम चुनावों में ले जाने का प्रयास किया है। कहना गलत नहीं होगा कि इस प्रकार का विवादित बयान देकर उन्होंने अपनी निगाहें कहीं और केंद्रित की हैं तो निशाना कहीं और है। यानी इसी वर्ष देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा के आम चुनावों पर तथा 2014 के संसदीय चुनावों की ओर निशाना साधने का प्रयास।

3 COMMENTS

  1. संघ के विरोधियो को पहले यह बयान देख लेना चाहिए। मोहन जी ने भारत के मूल्यो की बात कही है लेकिन संघ विरोध की छाती कूटने वालों को तो बस मौका चाहिए ॥ अपनी बकवास करने का ,

  2. संघ प्रमुख श्री भगवत जी का बयान सन्दर्भ से काटकर सनसनी पैदा करने और टी आर पी बढ़ाने के लिए
    जबरदस्ती प्रचारित किया गया था ताकि कुछ लोगों को इसकी आलोचना की अड़ में अपनी भड़ास निकलने का अवसर मिल जाये.वास्तव में उनका कहने का अर्थ केवल यही था की अपने देश के संस्कारों में बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और ये घटनाएँ सामन्यतय पश्चिमी वातावरण के प्रभाव वाले छेत्रों में ज्यादा होती हैं.अपने यहाँ तो स्पष्ट कहा गया है की “आहार निद्रा भय मैथुनं च,सामान्य मेतत पशुभि नरानाम. धर्मेही तेषाम अधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभि नरानाम.” लेकिन पश्चिमी रंग में रेंज लोग धर्म को केवल पूजा अर्चना तक सीमित मानते हैं इसलिए उनके आचरण और पशुओं के आचरण में अंतर नहीं रह जाता. आज भी ग्रामीण समाज में अधिकांश लोग धर्म को जीवन को संयमित करने वाली व्यवस्था के रूप लेते हैं.इसका अर्थ ये नहीं है की महिलों को शिक्षा, रोजगार और जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ने के अवसर न मिले. धर्म का आचरण महिलाओं से ज्यादा पुरुषों के लिए जरूरी है क्योंकि पुरुषों की अमर्यादित जीवन शेली के कारन समाज में विघटन की स्थिति पैदा हो रही है.भाई तनवीर जी कृपया अपने पूर्वाग्रहों को व्यक्त करने की बजाय सन्दर्भ को पूरी तरह समझ कर संतुलित लिखेंगे तो अधिक प्रभाव होगा.

  3. tanvir bhai aapane upar kuchh or andar luchh or likha hai rss ka virodh is desh me aap jaise log or kongress do hi karte hai isase kise labh ya kise hani ye kisi ko soch ne ki jarurat nahi hai bhavatji ne sirf rupatmak tippani ki hai agar aapko thik nahi lagti to na padho magar isaka aadhar lekar apani mansikta ka padarsan na karo rss kisi rajnitik parti ko samarthan deta hai ya nahi isase aapako kya lena dena kya aaj bhi kongres ko aap log samarthan nahi dete or janadhar badhe ya kam ho isase is bayan ko kya lena dena aap jaise log bharatiy samaj ko sthir nahi hone dete ye kamnasibi hai aap jaise lekhkoki ?

    ye dal or vo dasl se pare hame desh ki bat karni hai magar aap jaise achhi tarah jante hai ki hindustan ki aavam ek ho jayegi to aapaka or aapake jaise vicharo vali kongres ka kya hoga aap lekhak hai to pragtishil vichar rakhye naki aise vichar jiska jikra aapne apane lekhme kiya hai .
    muje lagta hai ki aapaki निगाहें कहीं पर, निशाना कहीं ki kosis hai magar aab bhartiy jag raha hai savdhan ho jaye !!!!!

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