हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक औैर बुद्धिजीवी

पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ 

images (1)हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचकों ने पिछले पचास वर्षों में साहित्य की भावनक्षमता और पाठकीय संवेदनशीलता को कुंठित-अवरोधित ही किया है। इन सब ने साहित्य को वाद-विवाद और संवाद के नाम पर बहस का विषय तो बना दिया है, पर साहित्य में डूबकर, गहरे पैठकर प्राप्त की जाने वाली पाठकीय सर्जनात्मकता और उसके दायित्बोध को बिलकुल दरकिनार कर दिया है। इनके लिए साहित्य का मूल्यांकन निकष केवल वर्ग-भेद पर आधारित समाज और युग है और वह भी राजनीतिक सक्रियता से आन्दोलित है। साहित्य में व्यक्ति, परिवार, बहुआयामी समाज, कालांकित और शाश्वत कालबोध, सर्जक की संवेदनशीलता और पाठकीय संवदेन-क्षमताएं, ये सब इनके लिए बेमानी और निरर्थक हैं। यदि साहित्य के क्षेत्र में मार्क्सवाद और जनवाद का नारा देने वाले ये लोग राजनीति में लग गए होते, तो वाम मोर्चा को और ताकत मिल सकती थी और इन्हें भी सार्थकता प्राप्त हो सकती थी। पर इन्होंने साहित्य-क्षेत्र में आकर और यहाँ भी मूलतः आलोचना को चुनकर साहित्य का तो नुकसान किया ही, अपने लिए भी कोई कीर्तिमान स्थापित नहीं किया। कालक्रम में जब-जब साहित्य की संवेदनक्षमता और भावकीय क्षमता की दृष्टि से साहित्य की सटीक पहचान कराने के लिए आलोचकों को याद किया जाएगा, तो वहाँ इनके नाम को स्मरण करने वाला कोई नहीं होगा, क्योंकि ये तो साहित्य के बुनियादी मन्तव्य की ही उपेक्षा करने वाले रहे हैं।

कविता एक ऐसी कला है, जिसे ललित कलाओं के बीच स्थान प्राप्त है। ऐसे में एक प्रश्न मेरे मन में बार-बार उभरता है कि क्या पाँचों ललित कलाओं के बीच कविता जैसी एक कला ही मार्क्सवादियों के लिए समीक्ष्य रह जाती है। आखिर हिन्दी के ये मार्क्सवादी चिन्तक चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्यकला, संगीतकला के क्षेत्र में जनवादी विमर्श क्यों नहीं करना चाहते? चाक्षुष् कलाओं में फिल्म और टी.वी. धारावाहिकों की ओर इनका ध्यान भला क्यों नहीं जा पाता है? क्या इन कलाओं में अन्तर्वस्तु जैसी कोई चीज नहीं होती? क्या ये कलाएँ अपनी अस्मिता में निपट रूपवादी हैं या कि हिन्दी के मार्क्सवादी समीक्षक इन कलाओं से नितान्त अपरिचित हैं? क्या वे इन्हें देखते-सुनते नहीं हैं? क्या फिल्मों, धारावाहिकों से उन्होंने दूरी बना रखी है या कि वे इन सबसे परिचित हैं, इन सबको देखते-सुनते हैं, पर इनको वे अपने विमर्श का, अपने द्वारा की जाने वाली समीक्षा का विषय बनाने से कतराते हैं अथवा वे यह मानते हैं कि मार्क्सवादी, जनवादी चेतना साहित्य में ही अपेक्षित है, अन्य कलाओं में नहीं और हमारे द्वारा जिए जा रहे जीवन में भी नहीं? यह कैसी विडम्बनात्मक स्थिति है कि ये बुद्धिजीवी सर्वहारा के पक्ष में होते हुए भी अपने आचार-व्यवहार से पूँजीवाद का ही विस्तार कर रहे हैं।

आज हिन्दी में ऐसा कोई मार्क्सवादी, जनवादी आलोचक नहीं है, जो सर्वहाराओं और श्रमिकों की लड़ाई साहित्य में तो लड़ने चला है, पर जिसका अपना जीवन किसी बुर्जुआ और पूँजीपति के जीवन से कम है। वस्तुतः वह अपने जीवन में, जीवनशैली में पूँजीपति वर्ग का ही अनुयायी है, यूरोप और अमेरिका के बाजारवाद से मोहग्रस्त है। उपभोक्ता के रूप में पूँजीवादी वर्ग के सदस्यों और उनके बीच कोई अन्तर नहीं है। पर साहित्य में वे पुराने सोवियत संघ और वर्तमान चीन का ही राग अलापते हैं। वे वर्ग-भेद से उत्पन्न नाना प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और प्रश्नों के साथ साहित्य को जोड़ते हैं और समाजशास्त्रीय तथा राजनीतिक उद्देश्य से साहित्य को दस्तावेज की तरह इस्तेमाल करते हुए उसकी निजी अस्मिता पर प्रहार करते हैं।

ये आलोचक साहित्य से सम्बन्धित अन्य मार्क्सवादेतर सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं। चाहे वे शास्त्र या सिद्धांन्त भारतवर्ष में प्रणीत हुए हों या पश्चिम में प्रवर्तित हुए हों। इनकी दृष्टि में समसामयिक साहित्य के मूल्यांकन के लिए ये सभी बेमानी हैं। वे साहित्य का मूल्यांकन विचारधाराई अन्तर्वस्तु के आधार पर ही करते हैं। पर जिस मार्क्स ने विचारधारा की बात की, उसके विकास के आगामी चरणों में किस सीमा तक उस पर पुनर्विचार किया गया और उसके क्या निष्कर्ष निकाले गए, इन सब की अद्यतनता से वे नितान्त अपरिचित हैं। पश्चिम के सिद्धान्त इन्हें कलावादी लगते हैं और भारतीय काव्यशास्त्रीय चिन्तन भी इन्हें रूपवादिता के कारण असार प्रतीत होता है। ये कविता की पहचान बहस के द्वारा करते हैं और समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के अपने सारे ज्ञानभण्डार से कविता का तालमेल बिठाने का जबरन प्रयास करते हैं। कविता चाहे जैसी हो, पर वे इन सबसे इसे जोड़ने का अथक उद्यम करते हैं। कविता में क्या है उसे ये न तो पढ़ पाते हैं, न सुन पाते हैं और न देख ही पाते हैं। पर वे कविता पर समाजशास्त्रीय, अर्थशास्त्रीय और राजनीतिशास्त्रीय बहु-आयामी व्याख्यान-बिन्दुओं को आरोपित अवश्य कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि कविता अपने-आप में खुल नहीं पाती है, पर इन सबका बोझ ढोते-ढोते उसका कवित्व पूरी तरह निष्प्राण अवश्य हो जाता है। इस तरह वे साहित्य में तैराकी भर करते हैं, गोताखोरी नहीं करते।

दुर्योग यह है कि कम-से-कम चार पीढि़यों से ये लोग अपना शिविर बनाकर प्रतिभासम्पन्न युवाओं को गुमराह कर अपने शिविर में दीक्षित कर रहे हैं। सबसे पहले वे उनकी संवदेनशीलता की बलि चढ़ा देते हैं, जहाँ उन सबका काव्य-विवेक दम तोड़ देता है। इस तरह इससे विमुख कर वे उन्हें कुतर्क और कोरी कल्पना करने में पारंगत बना देते हैं।

हिन्दी के जनवादी कवियों में मुक्तिबोध एक जटिल कवि हैं। पर उनके काव्य की समझ को भी अब तक जनवादी आलोचक खोल नहीं पाए हैं। इन्होंने केवल विचारधारा के आधार पर उनके मूल्यांकन का अपूर्ण प्रयास-मात्र किया है। मुक्तिबोध की एलेगॅरी उसकी फंतासी, उसकी विडम्बनात्मकता और उसकी संवेदनशीलता को समझने में ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ नामक पोथा लिखने वाले आलोचक भी असफल रहे हैं। मुक्तिबोध स्वयं काव्य-समीक्षा के लिए समाजशास्त्र, मनोविश्लेषण, सौन्दर्यशास्त्र तथा काव्य के निजी घटक तत्व इन सबको महत्त्व देते हैं। पर मार्क्सोवादी, जनवादी आलोचक इन सबकी उपेक्षा कर उस पर केवल सामाजिक यथार्थ को आरोपित करता है।

ऐसे ही एक दूसरे जटिल मार्क्सवादी कवि केदारनाथ सिंह हैं। हिन्दी में इतने सारे जनवादी आलोचक हैं, पर केदारनाथ सिंह की कविता के मर्म को उद्घाटित करने में पुरानी पीढ़ी के मार्क्सैवादी तो समर्थ नहीं ही हुए हैं, इधर के परमानन्द श्रीवास्तव और रविभूषण तक भी उनकी कविता की समझ खोलने में असमर्थ ही रहे हैं।

मार्क्सवादी चिन्तकों में सबसे बड़ा अभाव केन्द्रण का है। रचना की समझ के लिए रचना के प्रति समीक्षक का केन्द्रण लाजमी होता है। पर मार्क्सवादी समीक्षक अपसरण की कला में अत्यन्त दक्ष हैं। वे जिस कविता को लेते हैं उसके किसी एक बिन्दु के अभिधेयार्थ को पकड़ कर उससे जीवन के नाना-सन्दर्भों को जोड़ते हुए किसी बाजीगर की तरह अच्छा-खासा तमाशा तो दिखा लेते हैं, पर कविता के मर्म में उनकी पैठ नहीं हो पाती है।

सच्चाई यह है कि हिन्दी के मार्क्सवादी-जनवादी समीक्षक समाज तथा राजनीति पर भी गहराई से विचार करने में असमर्थ रहे हैं। भारतीय समाज में जो समस्याएँ समाज को घुन की तरह खाती चली जा रही हैं, उनकी पहचान तक उन्हें नहीं है। राजनीति जिन कारणों से विगर्हृणात्मक स्थिति पर आ गई है, इसकी समझ भी उन्हें नहीं है।

आज मार्क्स्वाद में क्लासिकल मार्क्सवाद से आगे नव्य मार्क्सवाद और उत्तर-मार्क्सवाद तक का चिन्तन विद्यमान है। पर हिन्दी के आलोचकों ने न तो उत्तर-मार्क्सवाद के उभरने की पृष्ठभूमि पर विचार किया है और न ही उसके स्वरूप पर। जैसा हैवेल का अभिमत है, उत्तर-मार्क्सवाद मार्क्सवादी चिन्तन और कर्म के प्रति चुनौती बनकर आया है। वास्तविकता यह है कि उत्तर मार्क्सवाद, मार्क्सवाद का ऐसा सातत्य नहीं है, जो उसके अगले विकासात्मक चरण के रूप में उभरता हो, बल्कि यह मार्क्सवाद से सम्बन्ध-विच्छेद करने वाले, उसे तलाक देने वाले रूप में हमारे सामने आता है। सोवियत संघ में मार्क्सवाद के राजनीतिक पतन ने यह सिद्ध कर दिया कि 1989-91 की सोवियत सामाजिक-क्रान्ति एक प्रतिगामी क्रान्ति थी। ऐनिरड एराटो के अनुसार यह वह समय है जब हम क्रान्ति की ऐसी ऐतिहासिक नवीनता का सामना कर रहे हैं, जो आधुनिक क्रान्ति की परम्परा को ही खारिज कर दे रही है। वास्तविकता यह है कि इसने 1917 की रूसी क्रान्ति से आविर्भूत विशेष क्रान्ति-चक्र को ही परिसमाप्त कर दिया। सच्चाई यह है कि उत्तर-मार्क्सावाद राजनीति, अर्थशास्त्र और समाज-विषयक साम्यवादी दल की एकच्छत्रता के समापन की घोषणा करता है। यह अनेकवादी समाजों के आविर्भाव को मान्यता देता है। यह विद्रोही और सुरक्षात्मक नीति का आमूल पुनर्नवीकरण करता है। आज उत्तर-साम्यवाद एक आन्दोलन भी है और आदर्श भी। यह कोई निषेधात्मक वैचारिकी मात्र नहीं है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक पुनर्नवीकरण के भविष्य को उजागर करने वाला है। पर हिन्दी के मार्क्सवादी बुद्धिजीवी को इन सब पर सोचने-विचारने का समय कहाँ है? वे इस उत्तर-मार्क्सवाद से अपनी असहमति व्यक्त करने के लिए भी तात्त्विक बहस तक उठाना नहीं चाहते हैं, केवल इसकी अनदेखी कर, उपेक्षा कर जड़ मार्क्सवाद की कूपमंडूकता में दादुर की तरह परस्पर ‘अहो रूपं अहो ध्वनिः’ का उच्चार करते जाते हैं।

आज सम्प्रदायवाद से मुक्त होने के लिए जिस धर्म-निरपेक्षता की आवश्यकता है, उसकी समस्या का समाधान प्राथमिक और बुनियादी स्तर की शिक्षा में निहित है, इसे भी वे नहीं समझ पाते हैं। इसी तरह राजनीति एक शुद्ध सेवा है: समाज की, देश की और राष्ट्र की, जिसका वह दायित्व वहन करती है। पर यहाँ अपराधीकरण का चरित्र सबसे बड़े संकट की स्थिति है। सही राजनीति में स्वहित नहीं होता, वर्गहित नहीं होता, इसके विपरीत सम्पूर्ण समाज और देश का हित होता है। सही राजनीति सत्ता-केन्द्रित नहीं होती, सिद्धान्तों में समझौत करने वाली नहीं होती। पर हिन्दी के इन बुद्धिजीवी आलोचकों को ये चीजें कभी नजर नहीं आती है। वर्तमान राजनीतिक दलों को अपनी गद्दी व्यवस्थित रखने के लिए, अपना वोट-बैंक बनाए रखने के लिए जिस तरह अल्पसंख्यक धर्मों और बहुसंख्यक आरक्षित जातियों के साथ सदैव बने रहने की अपेक्षा अनुभव होती है वैसा ही कुछ मार्क्सवादी साहित्यालोचकों में भी दलित आन्दोलन, स्त्री-आन्दोलन चलाने तथा अल्पसंख्यक धर्मों के पक्ष में बोलने की सोद्देश्यता नजर आती है। मनुष्य की मृत्यु पर मनुष्य के पक्ष में कोई नहीं बोलता, पर उसे एक ईसाई की मृत्यु बता कर सारे देश में कोहराम मचाया जाता है, मुसलमानों की मौत पर प्रतिक्रियात्मक दंगे शुरू कराए जाते हैं। धर्म के विरुद्ध टिप्पणी करने पर उग्र आन्दोलन चालू हो जाते हैं। राज्य सरकार की ओर से धर्म के न्यासों को दी गई जमीन विरोधी आन्दोलन खड़े करने पर वापिस ले ली जाती हैं। सैकड़ों मन्दिर टूटते हैं, पर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी शान्त बने रहते हैं। एक पूरे राज्य से हिन्दुओं को निष्कासित कर दिए जाने के बाद भी ये मौन रहे हैं। वहाँ सामान्य स्थिति लौटने पर भी उनके पुनर्वास की व्यवस्था के लिए ये आवाज नहीं उठाते। फिर भी हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक और बुद्धिजीवी अपने-आपको बुद्धिजीवी और मानवतावादी कहते हैं। सत्य यह है कि मैंने आज तक एक भी ऐसा मार्क्सवादी बुद्धिजीवी नहीं देखा, जिसके लिए देश में होने वाली मानवी हत्या एक इन्सान की हत्या हो, चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। उसे तो इन्सान की हत्या और मृत्यु के रूप् में ही देखा जाना चाहिए और यह संकल्प लिया जाना चाहिए कि हम किसी भी इन्सान को इस तरह मरने नहीं देंगे। पर ऐसा नहीं हो पाया है। बहुसंख्यकों की मृत्यु पर ये बुद्धिजीवी खामोश रहते हैं, पर अल्पसंख्यकों की मृत्यु पर ये बोलकर और लिखकर लगातार अपना विरोधी स्वर मुखर करते रहते हैं।

आज संचार-माध्यमों को यह समझाने की आवश्यकता है कि हम जो कुछ प्रसारित करते हैं उसमें नैतिक बोध का होना आवश्यक है। पर मार्क्सवादी विचारधारा से अभिप्रेरित लोग बीते युग के गड़े मुर्दे ही खोद सकते हैं। ये बनारस और वृन्दावन की विधवाओं के यौन-शोषण पर फिल्म निर्माण के पक्ष में बोलते हैं। पर महानगरों के क्लबों में और मॉडलिंग में आज जो अति उन्मुक्त काम यौन संस्कृति उभर कर आई है वह पुरानी गणिका-प्रथा से सौ गुना आगे जा चुकी है, इस ओर किसी मार्क्सवादी बुद्धिजीवी का ध्यान नहीं जा पाता है। वास्तविकता यह है कि मार्क्सवादियों के लिए साहित्य खाने-पीने का एक जरिया भर है। अपने-आप को चर्चा में बनाए रखने का माध्यम मात्र है। साहित्य जितनी गम्भीर सर्जना है उतना ही सहृदयत्व, उतनी ही संवेदनशीलता, उतनी ही चिन्तनात्मकता इन मार्क्सवादी आलोचकों में होनी चाहिए थी। पर लगता है कि यह सब हिन्दी के मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवी और आलोचकों के वश की बात नहीं है। (लेखक सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार हैं) 

(त्रैमासिक पत्रिका ‘चिन्तन-सृजन’ से साभार) 

2 COMMENTS

  1. ” हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक और वुद्धिजीवी” आकर्षक शीर्षक देखकर प्रस्तुत आलेख पढने की उत्कंठा जागृत हुई सो पढ़ डाला. पढने के बाद लगा की मार्क्सवाद का भाषाई प्रस्तुतिकरण और खास तौर से हिंदी परिक्षेत्र के मार्क्सवादी साहित्यकारों,वुद्धिजीवियों समीक्षकों,आलोचकों और कला-पारखियों पर भी प्रछन्न पूंजीवादियों की रहम-नजर है. मेरा निवेदन है कि अपना ‘बुर्जुआ पांडित्य’ बघारने के बजाय इस आलेख के रचनाकार मेरे ब्लॉग www .janwadi .blogspot .कॉम को ही एक-आध बार पढ़ लें. तो हिंदी के मार्क्सवादियों के वास्तविक आलोचनात्मक नजरिये का ककहरा तो सीख ही सकेंगे. रही बात सम्पूर्ण हिंदी बिरादरी कि तो उसके लिए इस आलेख के रचनाकार को ‘जनवादी-लेखक -संघ” प्रगतिशील लेखक संघ ‘ के अखाड़ों कि मिटटी वर्षों तक गोड्नी पड़ेगी तभी लतखौआ कहलाओगे और दुनिया में मसल मशहूर है कि ‘अखाड़े का लतखौआ पहलवान हो जाता है’

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