डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले दिनों जब अन्ना हजारे दिल्ली में जंतर मंतर पर जनलोकपाल विधेय़क के समर्थन में धरने पर बैठे, तो उनके साथियों ने सिविल सोसयटी का नाम बार बार उछाला । उनका कहना था कि लोकपाल विधेयक का प्रारुप तैयार करते समय सिविल सोसयटी के नुमाइंदों को भी शामिल किया जाना चाहिए । सिविल सोसयटी से उनका क्या अभिप्राय़ था, यह तो वही लोग बेहतर जानते होंगे । वैसे शंका समाधान के लिए आस्कफोर्ट इंग्लिश डिक्शनरी देखी जा सकती है । सिविल सोसयटी के नुमाइंदें भी यही चाहते होंगे कि भ्रम की स्थिति में आक्सफोर्ड़ का ही सहारा लिया जाए । उसी तरह जिस प्रकार इस सोसयटी के लोग अभी भी वेद के प्रामाणिक अर्थों के लिए दयानंद या दोमोदर सातवलेकर की बजाय मैक्समुलर की ओर ही भागते हैं । अन्ना हजारे शायद सिविल सोसयटी शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं कर रहे थे । उनका मकसद तो इतना ही रहा होगा कि सरकार बहादूर के घर में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नकेल डालने के लिए जो विधेयक बने, उसके प्रारुप को पुख्ता बनाने के लिए, आम समाज व जनता के प्रतिनिधि भी होने चाहिए । लेकिन उनके आंदोलन को जो लोग घेरे हुए थे, उन्होंने तुरंत व्याख्या कर दी – अन्ना सिविल सोसयटी की बात कर रहे हैं ।
इसका अर्थ हुआ कि भारत का समाज दो प्रकार का है । एक सिविल सोसयटी व दूसरी बिचारी आम सोसयटी । वैसे तो सिविल सोसयटी और आनसिविल सोसय़टी भी कहा जा सकता है । लेकिन तब शायद सिविल सोसयटी वाले ही कहें, कि बात का बतंगड बनाया जा रहा है । परंतु लगता है बात का बतंगड तो बन ही गया है । शायद अन्ना हजारे को भी आम सोसयटी पर उतना विश्वास नहीं रहा है । तभी उन्होंने कहा होगा कि भारत का जो आम मतदाता है, वे सौ रुपये के नोट, शराब की एक बोतल और एक साडी पर बिक जाता है । य़हां आम मतदाता का अर्थ आम सोसयटी से भी लगाया जा सकता है । शायद अन्ना भी सोचने लगे हैं कि देश का भविष्य इस प्रकार की आम सोसयटी पर नहीं छोडा जा सकता । उसके लिए तो सिविल सोसय़टी के दमदार सैनिकों को ही मैदान में उतारना होगा ।
वैसे रिकार्ड के लिए जिस समय 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपात स्थिति लागू कर दी थी और सोसय़टी के सभी सिविल अधिकारों को एक ही डकार में निगल लिया था, तो देश की यह तथाकथित सिविल सोसयटी अपने रक्त से हस्ताक्षर कर के इंदिरा के प्रति निष्ठा की शपथें खा रही थी । उस समय आम सोसयटी के लोग ही सिविल अधिकारों के लिए आंदोलन करके जेलें भर रहे थे । पंजाब में अकाली दल के उस समय के अध्यक्ष शांत हरचंद सिंह लोंगोवाल को जब इस सिविल सोसयटी के प्रतिनिधियों ने आपात स्थिति के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन को बेमतलब बता कर बंद करने की सलाह दी थी तो उन्होंने कहा था कि हमारे पास जेल जाने के आतुर कार्यकर्ताओं की इतनी लंबी सूची है कि हम चाह कर भी इस आंदोलन को बंद नहीं कर सकते । जाहिर है यह सूची आम सोसयटी के लोगों की ही थी ,सिविल सोसयटी के लोगों की नहीं । सिविल सोसयटी के लोग तो अपवादों को छोड कर मीडिया समेत आपात स्थिति की विरुदावली में मग्न थे ।
यह क्या आश्चर्य का विषय नहीं है कि इसी आम सोसयटी ने चुनाव में इंदिरा की सरकार को धूल चटा दी थी । कांग्रेस ने सौ का नोट, शराब की बोतल और एक साडी तो तब भी आम मतदाता को दी ही होगी । हां यह जरुर हुआ कि जब आम सोसयटी में यह चमत्कार दिखा दिया तो सिविल सोसय़टी में तुरंत उसकी अंग्रेजी भाषा में लंबी लंबी ब्याख्याएं दे कर परिवर्तन का श्रेय स्वयं लेने का प्रय़ास किया । मान लेते हैं कि आम सोसयटी का मतदाता शराब की बोतल, सौ का नोट एक साडी लेकर वोट डालता है । लेकिन कम से कम वोट डालने तो जाता ही है । इस बात की भी क्या गारंटी है उसने जिससे सौ का नोट लिया है, उसे ही वह वोट डाल रहा है । सौ का नोट देने वाले को लगता है कि वह मुझे वोट डाल रहा है । अन्ना दुखी हैं, कि वह नोट लेकर गलत आदमी को वोट डाल रहा है । लेकिन आम सोसयटी का यह मतदाता इन दोनों से चतुर है । वह मन ही मन हंस रहा है, खूब उल्लु बनाया और वोट वहीं डालता है जहां उसकी मर्जी है । शठेः शाठ्य़म आचरेत । ठग से ठग जैसा व्यवहार करो । यदि ऐसा न होता तो इंदिरा की सरकार न उखडती । बिहार में माफिया के बाहुबली न हारते ।
दुर्भाग्य यह है कि आम सोसयटी तो अपना कर्तब्य़ बखूबी निभा देती है . लेकिन जंतर मंतर वालों की यह सिविल सोसय़टी ही घालमेल में जुट जाती है । ज्यादातर घोटाले तो इस तथाकथित सिविल सोसयटी के लोग ही करते हैं । क्या कोई बता पाएगा कि सिविल सोसयटी के कितने लोग धूप में लाइन में लग कर अपना वोट डालने जाते हैं । मनमोहन सिंह तो सिविल सोसय़टी में ही आते हैं ना । वे असम में मतदाता है । अब वे असम में किस प्रकार मतदाता है, यह तो सिविल सोसयटी ही बता सकती है । आम सोसयटी में इतनी योग्य़ता कहा कि इस प्रकार के रहस्यों को समझ सके । असम में विधानसभा के चुनाव हुए । कायदे से उन्हें वहां अपने वोट ड़ालने के लिए जाना चाहिए था । उनके लिए तो सौ की नोट की भी महत्ता नहीं है । वे अपनी इच्छानुसार अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट डाल सकते हैं । चुनाव आयोग करोडों रुपये के विज्ञापन यह समझाने के लिए जारी करता है कि मतदाता को अपना वोट डालना चाहिए । चुनाव आयोग की यह अपील तो सिविल सोसय़टी और आम सोसयटी के सभी मतदाताओं के लिए समान रुप से ही होगी । आम सोसय़टी तो अपने इस लोकतांत्रिक कर्तब्य को चुनाव आयोग के विज्ञापनों के बिना भी समझती है । असम में 75 प्रतिशत से भी ज्यादा मतदान हुआ , यह इसका प्रमाण है । लेकिन सिविल सोसयटी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वोट नहीं डाला । जब गुजरात के मुख्यमंत्री ने दुख प्रकट किया कि जब प्रधानमंत्री ही वोट नहीं डालेगें तो आम सोसय़टी में क्या संदेश जाएगा तो दरबार के सिपाही क्रुद्ध हो उठे । प्रधानमंत्री को और हजारों व्यस्तताएं होती हैं । ऐसे वेसिर पैर के प्रश्न नहीं उठाने चाहिए । दरबारियों का कर्तब्य है कि वे राजा के हर कदम को उचित ठहराएं । इसलिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता । लेकिन क्या सिविल सोसय़टी बताएगी कि लोकतंत्र में वोट डालना वेसिर पैर का काम है । लोकतंत्र में मतदान से ज्यादा महत्वपूर्ण प्राथमिकता और क्या हो सकती है ।
सिविल सोसयटी यह प्राथमिकता अच्छी तरह जानती है । आम सोसय़टी सरकार बनाती है । सरकार चाहे कोई भी बने, उसे सिविल सोसयटी तुरंत लपक लेती है और मजे से दोनों हाथों से लूटती है । उसी प्रकार जिस प्रकार सिविल सोसयटी ने अन्ना हजारे का जंतर मंतर वाला एक निष्पाप आंदोलन लपक लिया । अन्ना हजारे को चाहिए कि वे चोर की चिंता न करें, चोर की मां को पकडें । चोर को तो आम सोसयटी खूद ही पीट लेगी । लेकिन अन्ना हजारे भी क्या करें, चोर की मां तो इसी सिविल सोसयटी में भीतर तक बैठी हुई है ।
नाली के कीड़े शीर्षक लेख पढिये.आपलोग स्वयं समझ जायेंगे कि आपलोग क्या कह रहें हैं और भारत के भविष्य के लिए आपलोगों के ये विचार कितने हानिकारक हैं.
शासकों के सारे उपदेश इसी अज्ञानी जनता के लिए होते हैं. ये अभिजात वर्ग के लोग यानी सफ़ेद कॉलर वाले या ये सिविल सोसाईटी वाले तो कानून से भी दो हाथ ऊपर होते हैं. इनके हितों के लिए खटना, मरना और तिस पर भी इन पर उंगली उठाने की भूल न करना: ये सब फ़र्ज़ हैं इस जनता के.
– बेचारे अन्ना और उनका आन्दोलन तो बाबा रामदेव को किनारे करने के षड्यंत्र का शिकार कब बन गया, उन्हें और जनता को पता भी न चला. क्या कमाल का दाव खेला गया. भ्रष्टाचार से क्रोधित जन भावनाओं को अन्ना से जोड़ दिया और पी.एम्.ओ. कार्यालय ने पूरी ताकत लगाकर, प्रचार करवा कर अन्ना को भ्रष्टाचार – मुक्ति का दूत बना दिया. अगली चाल ये रही की अना के मुख से सोनिया की प्रशंसा करवा दी. संसद यानी भ्रष्टाचार की सिरमौर इस सरकार को लोकपाल बिल पर अंतिम निर्णय लेने का औचित्य स्वीकार करवालिया. सबसे बड़ा उद्देश्य यह सिद्ध किया कि बाबा रामदेव से जन ज्वार का ध्यान हटा कर कमज़ोर, साधनहीन और कुटिल शासकों के खेल को समझने में असमर्थ अन्ना से जोड़ दिया. अन्ना को तो चाहे जिधर मोड़ लिया. पर बाबा रामदेव इन कुटिल ताकतों के लिए भारी ख़तरा बन गए थे.
– अन्ना हजारे तो एक हथियार था बाबा के विरुद्ध. अभी और न जाने कितने और भी प्रहार प्रत्यक्ष व परोक्ष चल रहे होंगे. पर करें क्या, इन दुष्टों के कुछ बुरे दिन ही चल रहे हैं, बाबा पर जितनी बार जितने बड़े प्रहार किये जाते हैं, वे उतने और शक्तिशाली होकर उभरते हैं. इस बार भी जनता को समझ आने लगा है कि अन्ना जी जैसों के बस कि बात नहीं इन कुटिल ताकतों से निपटना. अतः जन मत का विश्वास बाबा रामदेव पर पहले से और अधिक बढ़ गया. वही बात हुई कि ” चौबे जी गए थे छब्बे जी बनाने, बेचारे दूबे जी बन के लौटे ”. बुरी हुई बेचारी चांडाल चौकड़ी के साथ, और अभी न जाने और क्या-क्या होना है; बस देखते जाओ.
– डा. अग्निहोत्री जी को इस चुटीले लेख हेतु बधाई.
आपकी बात सही है। इन्हीं सिविलाइज्ड लोगों की वजह से अन्ना मुसीबत में हैं और वह अनसिविलाइज्ड लोग हैरान है जिन्होंने दूर दराज से आकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम को बल दिया था। अन्ना ने अपने मोहरे चुनने में गलती कर दी जिसकी वजह से अन्ना का अनशन और आम जनता की मेहनत बेकार जाती दिख रही है। अब तो अन्ना भी मानने लगे हैं कि उन्हें समिति में शामिल लोगों की पर्याप्त जानकारी नहीं थी।
बहुत ही ख़ूबसूरत और करारा व्यंग्य