भारत में राष्ट्रीय फ़िल्मों का निर्माण बहुत कम हुआ है, यद्यपि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस बात की ज़ोरों से आशा की जाती थी कि हमारे फिल्म निर्माता मुखर होकर उस दिशा में अग्रसर होंगे। पिछले साठ बरसों की अवधि में जितने चित्रों का निर्माण हुआ है उनमें कुल सात-आठ ऐसे चित्र थे जो सचमुच राष्ट्रीय इतिहास पर आधारित कहे जा सकते हैं – और उन्हें बने भी दशकों का समय व्यतीत हो चुका है। उंगलियों पर गिने जाने वाले यह चित्र हैं शहीद, समाधि, पहला आदमी, आज़ादी की राह पर, आन्दोलन, हिन्दुस्तान हमारा, शहीद के नाम से ही बना एक अन्य चित्र, और जीवन संग्राम।
इनमें से प्रथम दो चित्र, शहीद और समाधि, जो क्रमशः 1942 के अगस्त आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये बर्मा में किये गये नेताजी सुभाष के प्रयत्नों पर आधारित थे, नायक-नायिकाओं की प्रेम गाथाओं से इस क़दर भरपूर थे कि उनका मूल उद्देश्य ही समाप्त हो गया लगता था – हालांकि अभिनय और निर्देशन कौशल की दृष्टि से उन्हें निश्चित ही उत्कृष्ट फ़िल्मों की श्रेणी में रक्खा जा सकता था। पहला आदमी भी समाधि की तरह ही नेताजी सुभाष के कार्यकलापों पर आधारित चलचित्र था, लेकिन बिमल रॉय जैसे समर्थ फ़िल्मकार द्वारा निर्देशित होने के बावजूद अपनी शिथिल कथावस्तु के कारण वह ज्य़ादा लोकप्रिय नहीं हो पाया। ऊपर के प्रथम चार चित्रों में सर्वाधिक प्रामाणिक चित्र आज़ादी की राह पर था, जिसकी पटकथा डॉ। पट्टाभि सीतारामैया ने स्वलिखित कांग्रेस के इतिहास के आधार पर तैयार की थी और जिसमें पृथ्वीराज, बनमाला और जयराज जैसे उस काल के शीर्षस्थ कलाकारों ने अभिनय किया था। उसमें प्रेम कहानी को किंचित प्रमुखता न देकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के निमित्त किये गये देशवासियों के प्रयत्नों का सही चित्रण करने की चेष्टा की गयी थी और इसीलिये वह अन्य चित्रों से सर्वथा भिन्न था।
दुःख की बात है कि समुचित प्रचार के अभाव में वह चित्र भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाया, यद्यपि बॉक्स-आफ़िस के मानदण्डों से भी उसमें किसी वस्तु की कमी नहीं थी। राष्ट्रीय आन्दोलनों को दृष्टि में रखते हुए अब तक बने चित्रों में वही एक ऐसा चित्र था जिसे पूरी तरह ऐतिहासिक कहा जा सकता है, और सामान्यतः कहीं भी प्रदर्शित होने पर उसे समुचित सफलता मिलनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और आज़ादी की राह पर के निर्माता, जिन्होंने उसके बाद सन् बयालीस के आंदोलन को आधार बना कर एक तथ्यपरक चित्र के निर्माण करने का निश्चय किया था, सर्वथा निराश होकर रह गये।
सच में तो राष्ट्रीय चलचित्रों के निर्माण में हिंदी फ़िल्मों की अपेक्षा बंगाली फ़िल्म उद्योग बहुत आगे रहा है, और उस अवधि में उसने हमें चटगांव शस्त्रागार, भुलिनाई, बयालीस और विप्लवी खुदीराम जैसे चित्र दिये जिन पर किसी भी राष्ट्र के फ़िल्म उद्योग को गर्व का अनुभव हो सकता है। यह सभी चित्र एक निश्चित उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निर्मित किये गये थे और उनमें सिलोलाइडी प्रेम प्रसंगों के स्थान पर घटना-विशेष को अपेक्षित महत्व दिया गया था। बंगाल के यह सभी चित्र जहां भी प्रदर्शित हुए वहां दर्शकों ने दिल खोल कर उनका स्वागत किया। देश की स्वाधीनता-प्राप्ति के संबंध में किये गये साधारण जनवर्ग के प्रयासों का उनमें तथ्यपूर्ण चित्रण प्रस्तुत किया गया था।
पिछले कतिपय दशकों में हिंदी फ़िल्म उद्योग के जिन व्यक्तियों ने राष्ट्रीय चित्रों के निर्माण में विशेष रूचि ली थी उनमें सिन्ध के युवा निर्माता हरनाम मोटवाने और जर्मन निर्देशक पॉल ज़िल्स के नाम उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने न केवल ऐसे गंभीर कथानकों पर फ़िल्म निर्माण किया जिन्हें बड़ा से बड़ा फ़िल्मकार भी आसानी से चित्रित करने का साहस नहीं करता, बल्कि उन कथानकों का निर्माण कार्य भी पूरी ईमानदारी के साथ सम्पन्न करने में वह सक्षम और समर्थ रहे।
प्रामाणिकता और उत्कृष्ट निर्माण मूल्यों की दृष्टि से हरनाम मोटवाने कृत आंदोलन एक बहुत ही उच्चकोटि की फ़िल्म थी। उसकी कहानी एक ऐसे परिवार से संबंध रखती थी जिसकी तीन पीढ़ियां हमारे देश की राजनीतिक उथलपुथल के बीच से होकर गुजरीं और जिन्होंने हमारे प्रत्येक स्वाधीनता आंदोलन में पूरी तरह से योगदान किया। इसके अतिरिक्त आंदोलन का आधा से अधिक भाग उन सच्ची घटनाओं से परिपूर्ण था जो उस अवधि में हमारे देश में हुई थीं। गांधीजी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक सभी मूर्द्धन्य नेताओं को हमने आंदोलन में हंसते-बोलते, चलते और काम करते देखा था।
आंदोलन की कहानी सन 1885 से प्रारंभ हुई थी जब कांग्रेस ने बम्बई में अपना पहला अधिवेशन किया था, और फिर भारत में गांधीजी के आगमन, जलियांवाला बाग़ के जघण्य नरहत्याकाण्ड, सन् 21 के नमक सत्याग्रह, सन् 30 के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आन्दोलन और सन् 42 के खुले विद्रोह से होती हुई 15 अगस्त 1947 के उस मंगल प्रभात में समाप्त हुई थी जब दिल्ली के लाल किले पर जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार भारत का राष्ट्रीय तिरंगा फहराया था। तकनीक और तथ्यपरक परिवेश के चित्रण की दृष्टि से आंदोलन निश्चित ही एक प्रथम श्रेणी का चित्र था, और निर्देशक फणि मजूमदार ने उसके एक-एक फ़्रेम में नवजीवन भर दिया था। उसके प्रायः सभी कलाकार नये थे और ऐसे लोगों को लेकर इतने कठिन कथानक का चित्रण करना सचमुच ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। लेकिन तब भी निर्माता हरनाम मोटवाने और निर्देशक फणि मजूमदार अपने मंतव्य को जीवंत करने में पूरी तरह सफल रहे। आंदोलन में शिवराज का प्रथम श्रेणी का अभिनय हमें बरसों नहीं भूल सकता।
पॉल ज़िल्स कृत हमारा हिन्दुस्तान की कहानी में यद्यपि वह प्रभाव और स्वाभाविकता नहीं थी जिसे हमने आंदोलन में देखा था, तब भी एक सर्वथा नये दृष्टिकोण पर आधारित होने के कारण निश्चित ही वह हमारे अभिनन्दन का पात्र था। उसकी कथावस्तु लगभग पांच हज़ार बरसों की परिधि में फैली हुई थी और उसमें भारत के सांस्कृतिक, राजनैतिक, औद्योगिक और सामाजिक विकास का यथार्थ चित्रण था। हिन्दुस्तान हमारा की कहानी का प्रारम्भ महाभारत के उस काल से हुआ था जब कुरूक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश किया था, और फिर भगवान बुद्ध, अशोक और अकबर को लांघती हुई आज के युग तक पहुंच कर वह समाप्त हो गयी थी।
पन्द्रह-सोलह रीलों के छोटे से आकार में इतने लम्बे इतिहास को एक साथ चित्रित करना सचमुच एक कठिन कार्य था, लेकिन तब भी फ़िल्मकार पॉल ज़िल्स ने उसके प्रस्तुतीकरण में कोई कोताही नहीं की। हिन्दुस्तान हमारा एक अन्य दृष्टि से भी अन्यान्य चित्रों से भिन्न था, और वह यह कि उसमें पहली बार भारत के लगभग सभी शीर्षस्थ कलाकारों ने एक साथ काम किया था। आज की भाषा में कहना हो तो आसानी से उसे मल्टी-मल्टी स्टारर कहा जा सकता है। पृथ्वीराज कपूर, नलिनि जयवंत, देव आनन्द, प्रेमनाथ, जयराज, सुरेन्द्र, के।एन। सिंह, वास्ती, डैविड, दुर्गा खोटे, यशोधरा काटजू, तृप्ति मित्रा, चेतन आनन्द, शैवन्ती और नर्त्तक रामगोपाल जैसे उस ज़माने के चोटी के कलाकारों को पहली बार हमने हिन्दुस्तान हमारा में ही एक साथ देखा था। इन सभी लोगों ने उसमें सहकारिता के आधार पर काम किया था और चित्र की आय के अनुपात में ही सबको पारिश्रमिक राशि दी गयी थी। उस उद्योग में, जिसमें लाखों से कम पर उस ज़माने में भी कोई नामवर कलाकार काम करने पर राज़ी नहीं होता था, यह सचमुच ही एक क्रान्ति थी। इसीलिये हिन्दुस्तान हमारा राष्ट्रीय नज़रिए से तो एक महत्वपूर्ण चित्र था ही, आर्थिक दृष्टि से भी उसने एक नयी परम्परा को जन्म देने की कोशिश की थी।
मनोजकुमार अभिनीत शहीद और हरबंस खन्ना द्वारा निर्मित जीवन संग्राम इस श्रृंखला के ऐसे अन्तिम चित्र थे जिनमें हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों को इतिहासबद्ध करने का प्रयत्न किया गया था। बाद में इस परम्परा को हमारे फ़िल्म निर्माता भूलते ही चले गये और पिछली चौथाई शती में किसी भी ऐसे चित्र का निर्माण नहीं हुआ जिसे हम अपनी राष्ट्रीय गरिमा और अस्मिता से ओतप्रोत कह सकें। साहित्य की तरह फ़िल्में भी समकालीन राष्ट्रीय परिस्थितियों की द्योतक होती हैं। इसके अर्थ क्या यह नहीं कि जिस तरह हमारी फ़िल्में राष्ट्रीय चेतना से विहीन होती जा रही हैं उसी तरह हमारा जनमानस भी?
बिलकुल सही मानना है आपका……….
साहित्य की तरह फ़िल्में भी समकालीन राष्ट्रीय परिस्थितियों की द्योतक होती हैं। इसके अर्थ क्या यह नहीं कि जिस तरह हमारी फ़िल्में राष्ट्रीय चेतना से विहीन होती जा रही हैं उसी तरह हमारा जनमानस भी?